वीर सावरकरः स्वातंत्र्य समर का एक उपेक्षित नायक
स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर की पूरी जिंदगी रचना, सृजन और संघर्ष का उदाहरण है। आजादी के आंदोलन के वे अप्रतिम नायक हैं। उनकी प्रतिभा के इतने कोण हैं कि किसी एक पक्ष का भी अभी ठीक से मूल्यांकन होना शेष है। वे क्रांतिकारी, सामाजिक चिंतक, समाज सुधारक,इतिहासकार, उपन्यासकार, कवि, राजनेता एवं संगठनकर्ता हैं। सावरकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के प्रथम क्रांतिकारी हैं, जिन्हें दो बार काला पानी सजा सुनाई गई। सावरकर पर अंग्रेज अफसर की हत्या की साजिश रचने और भारत में क्रांति की पुस्तकें भेजने के दो अभियोगों में 25-25 वर्ष मतलब कुल मिलाकर 50 वर्ष की सजा सुनाई गयी थी। 4 जुलाई 1911 को अंडमान-निकोबार की सेल्लुलर जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में उनके बड़े भाई गणेश भी थे, किंतु कड़े नियमों के कारण दो साल तक दोनों भाई आपस में मिल भी नहीं सके।
उनके व्यक्तित्व का गलत आकलन और उनकी मृत्यु के इतने सालों बाद भी उनका उपहास उड़ाने वालों की एक लंबी सूची है। किंतु काला पानी की भयंकरता का अनुमान उनके आलोचकों को नहीं है। यदि होता तो वे स्वातंत्र्यवीर सावरकर की पूजा करते, आलोचना नहीं। काला पानी की विभीषिका,यातना और त्रासदी किसी नरक से कम नहीं है। सावरकर ने न सिर्फ इसे भोगा बल्कि उन्होंने इस अनुभव से 'काला पानी' नामक एक उपन्यास भी लिखा। यह उपन्यास अंडमान की जेल में बंद सश्रम कारावास काट रहे बंदियों के ऊपर हो रहे अत्याचारों, क्रूरतापूर्ण व्यवहार के बारे में त्रासद वर्णन करता है।
वीर सावरकर का जन्म 28, मई,1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले ग्राम भगूर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई और 1905 में उन्होंने बीए पास किया। वे 9 जून,1906 को इंग्लैंड के चले जाते हैं और इंडिया हाउस, लंदन में रहते हुए क्रांतिकारी गतिविधियो के साथ लेखन कार्य में जुट जाते हैं। इंडिया हाउस उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था, जिसे पंडित श्यामजी चला रहे थे। सावरकर ने 'फ्री- इंडिया' सोसाइटी का निर्माण किया, जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। उनकी एक लेखक के तौर पर यहीं से पहचान बननी प्रारंभ हुई। 1907 में आपने '1857 का स्वातंत्र्य समर' नामक पुस्तक लिखनी प्रारंभ की। उनके मन में आजादी की अलख जल रही थी। वे ऐसे पहले भारतीय भी हैं, जिन पर हेग की अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा भी चला। अपने जीवनकाल में संघर्षों के बाद भी उन्होंने विपुल लेखन किया। उनकी प्रमुख किताबों में- कमला, गोमांतक,मोपलों का विद्रोह,मेरा आजीवन कारावास, वरहोच्छवास, हिंदुत्व, हिंदु पदपादशाही, 1857 का स्वातंत्र्य समर, उः श्राप, उत्तरक्रिया, संन्यस्त खड्ग आदि हैं।
30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे के बाद सावरकर जी को भी गिरफ्तार किया था, क्योंकि गोडसे भी हिन्दू महासभा का कार्यकर्ता था, जिसके सावरकर 1943 तक अध्यक्ष रह चुके थे। हत्या की साजिश में शामिल होने का उन पर भी आरोप लगाया गया। हालांकि नाथूराम गोडसे ने हत्या की योजना के लिए खुद को ही जिम्मेदार बताया। बाद में आरोप मुक्त करते हुए सावरकर को रिहा कर दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार श्री राम बहादुर राय ने एक साक्षात्कार में कहा है कि, "दरअसल उन पर आख़िरी दिनों में जो कलंक लगा है, उसने सावरकर की विरासत पर अंधकार का बादल डाल दिया है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा उदाहरण मिले जो क्राँतिकारी कवि भी हो, साहित्यकार भी हो और अच्छा लेखक भी हो। अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर जिसने 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उनकी कंठस्थ किया। यही नहीं पाँच मौलिक पुस्तकें वीर सावरकर के खाते में हैं, लेकिन इसके बावजूद जब सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से जुड़ जाता है, सावरकर समाप्त हो जाते हैं और उनकी राजनीतिक विचारधारा वहीं सूख भी जाती है।"
देखा जाए तो सावरकर अकेले ऐसे नहीं हैं, जिन्हें इतिहास में उपेक्षा मिली। ऐसे अनेक क्रांतिवीर हैं जो अंग्रेजों के विरूद्ध लड़े,किंतु स्वतंत्र भारत की बदली राजनीति ने उन्हें अप्रासंगिक कर दिया। खासकर ऐसे क्रांतिकारी जो गरम दल से जुड़े थे। बावजूद इसके इससे सावरकर का संघर्ष और त्याग कहीं से कम नहीं होता। कई बार उनकी भगत सिंह से तुलना की जाती है कि आखिर भगत सिंह ने माफी क्यों नहीं मांगी। सच तो यह है कि भगत सिंह अपने इरादों का ऐलान कर चुके थे और उन्हें बम धमाके के बाद फांसी के फंदे पर जाना स्वीकार था। सावरकर यहां अपने माफीनामे को रणनीति की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे शायद यह मानते रहे होगें कि यहां से निकलकर वे देश के लिए कुछ कर पाएं। श्री रामबहादुर राय उन्हें अपने इसी इंटरव्यू में सावरकर को एक 'चतुर क्रांतिकारी' की संज्ञा देते हैं। राय कहते हैं- "उनकी कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे।"
विवादों के बाद भी अपनी पूरी जिंदगी देश के लिए होम करने वाले नायक को राजनीति के निशाने पर क्यों रखा गया, इसका बड़ा कारण हिंदुत्व के प्रति उनकी सोच और व्याख्याएं हैं। हिंदुत्व की विचारधारा के विरोधी जनों ने उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को भी लांछित करना प्रारंभ किया ताकि उन्हें अंग्रेजों का पिठ्ठू बताकर हिंदुत्व को भी लांछित किया जा सके। निशाने पर दरअसल सावरकर नहीं, हिंदुत्व का विचार है। सावरकर की सारी तपस्या पर पानी फेरने के यह जतन तब किए जा रहे हैं, जबकि महात्मा गांधी भी उन्हें 'वीर' कहकर संबोधित करते थे। सरदार भगत सिंह भी सावरकर को 'आदर्श' के रूप में देखते थे। 'मतवाला' के 15 और 22 नवंबर,1924 के अंक में भगत सिंह का लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से छपा है। विश्वप्रेम शीर्षक से छपे इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं- "विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर। विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी।" हालांकि 1966 में इंदिरा गांधी ने सावरकर के बलिदान, देशभक्ति और साहस को प्रणाम करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। 1970 में इंदिरा सरकार ने सावरकर जी के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था। इतिहास में वह पत्र भी दर्ज है जो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सावरकर राष्ट्रीय स्मारक को लिखा था। 20 मई, 1980 को श्रीमती गांधी ने स्मारक के सचिव श्री बाखले को लिखे पता में कहा था कि- "मुझे आपका 8 मई 1980 को भेजा पत्र मिला। वीर सावरकर का अंग्रेजी हुक्मरानों का खुलेआम विरोध करना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक अलग और अहम स्थान रखता है। मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें और भारत माता के इस महान सपूत की 100 वीं जयंती के उत्सव को योजनानुसार पूरी भव्यता के साथ मनाएं।"
इतना ही नहीं राष्ट्रध्वज के बीच में चक्र लगाने का सुझाव वीर सावरकर ने सर्वप्रथम दिया था, जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया। सावरकर जी सामाजिक कुप्रथाओं के विरूद्ध थे। उन्होंने छुआछूत के विरोध में आंदोलन चलाया और जाति प्रथा का विरोध किया। इसके साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए भी उन्होंने मांग की। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हिंदुत्व' में लिखा है- "हमारे राष्ट्र के लोगों की जीवंत मातृभाषा बनने का बहुमान संस्कृत की ज्येष्ठ कन्या हिंदी को प्राप्त हुआ है। ...रामेश्वरम् से निकलकर हरिद्वार की यात्रा पर जानेवाला कोई साधु, सन्यासी अथवा कोई व्यापारी संपूर्ण यात्रा के समय संपूर्ण हिंदुस्थान में इसी भाषा का प्रयोग करता गया।" आजादी के आंदोलन में अपना सर्वस्व झोंक देने वाले इस क्रांतिकारी ने 1 फरवरी,1966 से अन्न-जल त्याग दिया और 26 फरवरी,1966 को उनका देहावसान हो गया। एक लेख में उन्होंने अपने इस संकल्प को 'आत्महत्या नहीं आत्मार्पण' नाम दिया। उनका कहना था कि उनके जीवन का उद्देश्य अब पूरा हो चुका है, ऐसे में मृत्यु की प्रतीक्षा करने के बजाए अपना जीवन त्याग देना ही श्रेयस्कर है। ऐसे प्रखर राष्ट्रचिंतक एवं ध्येयनिष्ठ क्रांतिधर्मा वीर सावरकर की स्मृतियां लंबे समय से हमारे राष्ट्रजीवन को उनके त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाती रहेंगीं।
(लेखक प्रो.संजय द्विवेदी, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)