स्व के चरमोत्कर्ष का प्रतीक वीरांगना रानी दुर्गावती
मृत्यु तो सभी को आती है , परंतु इतिहास उन्हें ही याद रखता है जो स्वाभिमान के साथ जिये और मरेÓ -रानी दुर्गावती ने आत्मोत्सर्ग के समय अपने सेनापति से कहा था) पूर्वपीठिका - भारत के हृदय स्थल में स्थित त्रिपुरी के महान कलचुरि वंश का 13वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अवसान हो गया था, फलस्वरूप सीमावर्ती शक्तियां इस क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए लिए लालायित हो रही थीं। अंतत: इस संक्रांति काल में एक वीर योद्धा जादोंराय (यदुराय) ने, तिलवाराघाट निवासी एक महान् ब्राह्मण सन्यासी सुरभि पाठक के भागीरथ प्रयास से, त्रिपुरी क्षेत्रांतर्गत, गढ़ा-कटंगा क्षेत्र में गोंड वंश की नींव रखी। (यह उपाख्यान आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य की याद दिलाता है) कालांतर में यह साम्राज्य महान् गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना गया। गोंडवाना साम्राज्य का चरमोत्कर्ष का प्रारंभ 48वीं पीढ़ी के महानायक राजा संग्रामशाह (अमानदास) के समय हुआ और इनकी पुत्रवधू वीरांगना रानी दुर्गावती का समय गोंडवाना साम्राज्य के स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है।
भोपाल, नागपुर और बिलासपुर तक गोंडवाना साम्राज्य का विस्तार
गोंडवाना साम्राज्य के गढ़ जबलपुर, सागर, दमोह, सिवनी, मंडला, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, नागपुर, होशंगाबाद, भोपाल, और बिलासपुर तक फैले हुए थे। समकालीन इतिहासकारों की माने तो 70 हजार गांव थे जिनकी संख्या रानी दुर्गावती के समय 80 हजार तक हो गई थी। किलों की संख्या 57 परगनों की संख्या 57 हो गई थी। कतिपय इतिहासकारों ने 56 सूबों का उल्लेख किया है। अकबर का दरबारी लेखक अबुल फजल लिखता है कि 23 हजार गांव में प्रत्यक्ष प्रशासन था और शेष सामंतों के अधीन करद गांव थे। गोंडवाना या गढ़ा-कटंगा विस्तृत और संपन्न राज्य हो गया था, इसके पूर्व में झारखंड, उत्तर में भथा या रीवा का राज्य, दक्षिण में दक्षिणी पठार और पश्चिम में रायसेन प्रदेश था। इसकी लंबाई पूर्व से पश्चिम 300 मील तथा चौड़ाई उत्तर से दक्षिण 160 मील थी। इन सीमाओं को रानी दुर्गावती ने और बढ़ा लिया था। गोंडवाना साम्राज्य का क्षेत्रफल लगभग इंग्लैंड के क्षेत्रफल जितना हो गया था। विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों के कारण दिल्ली के सुल्तान या पड़ौस के कोई अन्य राजा गोंडवाना पर अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सके। महान् पुरातत्व एवं इतिहासविद राय बहादुर हीरालाल के जबलपुर गजेटियर, श्री रविशंकर शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ, जगमोहन दास स्मृति ग्रंथ और जबलपुर कमिश्नरी द्वारा प्रकाशित जबलपुर अतीत दर्शन ग्रंथ में गढ़ों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
नर्रई के घमासान युद्ध और स्व के लिए वीरांगना का प्राणोत्सर्ग
अंतत: वीरांगना ने नर्रई की ओर कूच किया और युद्ध के लिए 'क्रौंच व्यूहÓ रचना तैयार की। 23 जून 1564 को नर्रई में प्रथम मुठभेड़ हुई, रानी और उनके सहयोगियों ने मुगलों की दुर्गति कर डाली। आसफ खान सहित मुगल सेना भाग निकली और डरकर बरेला तक निकल गई। 23 जून की रात तक तोपखाना गौर नदी पार कर बरेला पहुंच गया। 23 जून की रात को घातक षड्यंत्र हुआ। आसफ खान ने रानी के एक छोटे सामंत बदन सिंह को घूस देकर मिला लिया। उसने रानी की रणनीति का खुलासा कर दिया कि कल युद्ध में रानी मुगलों को घने जंगलों की ओर खींचेगी जहाँ तोपखाना कारगर नहीं होगा और सब मारे जाएंगे। आसफ खान डर गया उसने उपचार पूंछा, तब बदन सिंह ने बताया कि नर्रई नाला सूखा पड़ा है और उसके पास पहाड़ी सरोवर है जिसे यदि तोड़ दिया जाए तो पानी भर जाएगा और रानी नाला पार नहीं कर पाएगी और तोपों की मार सीधे पड़ेगी। 24 जून 1564 को प्रात: लगभग 10 बजे भयंकर मोर्चा खुल गया और घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ पहले हल्ले में मुगलों के पांव उखड़ गए। मुगलों ने 3 बार आक्रमण किये और तीनों बार गोंडों ने जमकर खदेड़ा, इसलिए मुगलों ने तोपखाना से मोर्चा खोल दिया। रानी दुर्गावती ने योजना अनुसार घने जंगलों की ओर बढ़ना प्रारंभ किया परंतु बदन सिंह की योजना अनुसार पहाड़ी सरोवर तोड़ दिया गया। नर्रई में बाढ़ जैसी स्थिति बन गयी, अब वीरांगना घिर गयी। इसी बीच वीरनारायण के घायल होने की खबर आई परंतु वीरांगना रानी दुर्गावती तनिक भी विचलित नहीं हुई। आंख में तीर लगने के बाद भी युद्ध जारी रखा, मुगल सेना के बुरे हाल थे परंतु अचानक रानी को एक तीर गर्दन पर लगा रानी ने तीर तोड़ दिया। हाथी सरमन के महावत को अधार सिंह पीछे हटने का आदेश दिया परंतु रानी समझ गयी थी कि अब वो नहीं बचेंगी! अत: अधार सिंह को उन्होंने स्वयं को मार देने का आदेश दिया परंतु अधार सिंह ने वीरांगना को मारने से मना कर दिया। लगभग 150 मुगल सैनिकों का वध करते हुए, भीषण युद्ध किया जब उनको मूर्छा आने लगी तो उन्होंने अपनी कटार से प्राणोत्सर्ग किया। वहीं सेनापति अधार सिंह के नेतृत्व में कल्याण सिंह बघेला, चक्रमाण कलचुरि और महारुख ब्राह्मण ने युद्ध जारी रखा और वीरांगना के पवित्र शरीर को सुरक्षित किया तथा युवराज वीर नारायण सिंह को रणभूमि से सुरक्षित भेज कर अपनी पूर्णाहुति दी। युवराज वीरनारायण सिंह ने वीरांगना रानी दुर्गावती का अंतिम संस्कार कर चौरागढ़ में सेनापति अधार सिंह के साथ मुगलों के विरुद्ध मोर्चा जमाया, जहाँ मुगलों के विरुद्ध चौरागढ़ ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया।
(लेखक श्रीजानकीरमण महाविद्यालय जबलपुर में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष हैं)