विवेकानंद ने कहा था- धार्मिक बनिए धर्मांध नहीं!
स्वामी विवेकानंद युवाओं के आदर्श हैं। उनकी जयंती पर युवा दिवस मनाया जाता है। उनके बारे में इतना कुछ लिखा पढ़ा जा चुका है कि एक औसत युवा भी कुछ न कुछ तो जानता ही है। स्वामी जी ने भारतीय ज्ञान परंपरा, अध्यात्म और सनातनी संस्कृति की कीर्ति पताका को विश्व में फहराया। अमेरिका धर्मसंसद में दिए गए भाषण और फिर विद्वानों द्वारा की गई व्याख्या की वजह से उन्हें विश्वव्यापी ख्याति मिली। युवाओं के भविष्य की जितनी चिंता स्वामीजी ने की शायद ही किसी मनीषी ने की हो। वे हमेशा यह कहते- सृष्टि में जो कुछ भी श्रेष्ठ है वह तुम्हारे भीतर है उसे पहचानो, उठो, जागो और लक्ष्य तक पहुँचो। विवेकानंद ने धर्म को तर्क की कसौटी पर परखने की सीख दी और कहा- धार्मिक बनो लेकिन धर्मान्ध नहीं। वे वे युग की अच्छाइयों को देशानुकूल ढ़ालने और अपने देश की विशिष्टता को युगानुकूल बनाने की बात करते थे। स्वामीजी ने यूरोप और अमेरिका में जगह-जगह पहुँचकर व्याख्यान दिए। भारत की पुरातन और सनातन विशिष्टता को जन-जन तक पहुँचाया। वे जीवन पर्यंत भारतीय सनातनता और मेधा को वैश्वक क्षितिज देने के लिए प्रयत्नशील रहे। कभी-कभी विचार आता है कि यदि स्वामीजी अमेरिका न गए होते तो क्या उनको इतनी ख्याति मिलती? शायद नहीं। हमारी आज भी यही सबसे बड़ी ग्रंथि है कि हम अपने ही गुण के गाहक नहीं हैं। ..घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध..। इस प्रवृत्ति ने भारतीय मेधा का बड़ा नुकसान किया है। समय के साथ कम होने की बजाय आज वह नजरिया और भी मजबूत हो चुका है।
कुछ बरस पहले एक वैज्ञानिक वेंकटरामण रामाकृष्णन को रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला, संभवत: 2009 में। वे गुजरात के बडौदा में पढ़े थे। बाद में विदेश गए और ट्रिनटी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई व शोधकार्य पूरा किया। पुरस्कार मिलने के बाद उनके इंटरव्यू का वो कथन याद है जिसमें उन्होंने यह बताया था कि भारत में प्रतिभाओं को किस तरह हतोत्साहित किया जाता है। आगे बढ़े नहीं कि टाँग खींचने के लिए अपने ही लोग तैयार। क्या आपको यह नहीं लगता कि हम एक ऐसी हीनग्रंथि के शिकार बन चुके हैं जिसके चलते खुदपर ही भरोसा नहीं रहा और उसे ही अपनी नियति मान लिया। हमारा चरित्र इतना ईर्षालु हो चुका हैं कि दूसरे की प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते। हमारी नजरों में वही बड़ा लेखक, वैग्यानिक, दार्शनिक, फिल्मकार है जिसे बुकर, पुल्तिजर, नोबेल, आस्कर मिलते हैं। ऐसा क्यों है? जब इस पर जब भी विचार करते हैं तो पीछे की ओर लौटना पड़ता है। भारत ने विश्व ज्ञानकोष को जितना भी कुछ दिया है वह सातवीं शताब्दी के पहले। चरक, कणाद, भाष्कराचार्य, आर्यभट्ट, पणिन,भरतमुनि, नागार्जुन आदि सभी वैग्यानिक सातवीं सदी के पहले ही हुए हैं। इसके बाद भारत में मौलिक वैज्ञानिक अन्वेषण की परंपरा खत्म सी हो गई। सातवीं सदी के पहले तक भारत की स्थिति वही थी जो इंगलैड और अमेरिका की आज है। नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय थे जहाँ विश्व भर से छात्र वैसे ही पढ़ने आते थे जैसे आज कैंमब्रिज,आक्सफोर्ड और ट्रिनटी जाते हैं। विदेशी हमलावरों ने धन दौलत और राज्य बाद में लूटा, उनके पहले निशाने पर यहां के शैक्षणिक संस्थान और यहां की ज्ञान परंपरा रही। अँग्रेज यहाँ आए तो उन्होंने भारतीय शिक्षा संस्कृति व गुरु-शिष्य परंपरा की जाजम ही पलट दी। हम पर ऐसी शिक्षा पद्धति थोपी जो हमारे खुद के वजूद पर ही संदेह पैदा करने वाली थी, उसी को आज भी हम ओढ़े-दसाए चल रहे हैं। हमारा सनातनी ज्ञान और कृतियाँ को जो कैसे भी श्रुति-स्मृति के जरिए चलती चली आईं उन्हें अँग्रेजों ने मिथ करार देकर खारिज करना शुरू कर दिया। अब देसी अँग्रेज उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आज हालात यह है कि अमेरिका के नासा ने भले ही रामसेतु के अस्तित्व की पुष्टि की हो पर जब हम राम-रामायण, कृष्ण-महाभारत की बात करते हैं और उसे अपने सनातनी गौरव के साथ जोड़ते हैं तो कोई विदेश में रहने वाले नहीं यहाँ के अपने ही देसी विद्वान चढ़ बैठते हैं, बोलने वाले का गला पकड़ लेते हैं। बहस शुरू हो जाती है कि राम-कृष्ण काल्पनिक पात्र हैं इनका हमारे सनातनी इतिहास से कोई वास्ता नहीं। रामायण-महाभारत में दर्ज प्रसंग महज भायाथो लॉजी हैं, कवियों की कोरी कल्पना। जिन विद्वानों और अन्वेषकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे भारत की सनातनी संस्कृति, यहां के शोध-अनुसंधान के बिखरे सूत्रों को सहेजकर फिर उसी गौरव को वापस लाने की दिशा में काम करें, वे पूरा वक्त इसी खोज में लगा देते हैं कि हम पूर्वकाल की भारतीय ज्ञान की पूँजी को कैसे पुंगी में बदल दें। अपने देसी बौद्धिकों की इस अधकचरी नस्ल ने देश का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है। इन्हीं के बनाए वातावरण के चलते हमारा आत्मविश्वास इतना खोंखला हो गया है कि जब किसी प्रतिभा को विदेश में सम्मान मिलता है तभी हम उसे स्वीकार करते हैं।
आज हम यदि विश्वगुरु बनने की बात करते हैं तो प्रतिभाओं के आँकलन का अपना पैमाना बनाएं, उन्हें सम्मान दें यह न ताके बैठे रहें कि जब बुकर मिलेगा तभी बड़ा लेखक मानेंगे। विवेकानंद ने भारतीय स्वाभिमान की वैश्विक प्राणप्रतिष्ठा की। उन्हें युवाओं का आदर्श बनाएं न बनाएं पूजें या न पूजें भारत को हर क्षेत्र में स्वाभिमानी बनाए जैसी कि स्वामी जी की अभिलाषा थी। इस ग्रंथि को हिंद महासागर में विसर्जित कर दें कि जो कुछ विदेश से आ रहा है वही श्रेष्ठ है, यह धारणा बननी चाहिए कि हमारा अपना उससे भी श्रेष्ठ है। लेकिन यह लफ्फाजी नहीं वास्तव में हर मानदंड में श्रेष्ठ रहे इसका भी जतन करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)