चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार

चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार
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हितानंद

विश्व इतिहास में बाल्यावस्था में शौर्य, साहस और दृढ़ता की ऐसी अद्वितीय अमर वीरगाथा कहीं और नहीं मिलती जिसमें 6 और 8 वर्ष की आयु के छोटे साहिबजादों ने धर्म की रक्षा के लिए स्वयं को शहीद कर दिया। गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों साहिबजादों की यह शहादत धर्म रक्षा के लिए दी गई शहादत का अभूतपूर्व उदाहरण है। धर्म त्याग करने पर सब कुछ दिए जाने का प्रलोभन या इसे नहीं मानने पर अमानवीय यातनाएं झेलते हुए मृत्यु के विकल्प में से छोटे साहिबजादों ने शहीद हो जाने का ही संकल्प लिया। उन्हें चुनवा देने के लिए उठाई जा रही 'खूनी दीवारÓ के सामने निडर खड़े दोनों छोटे साहिबजादों ने जपुजी का पाठ करते हुए अपना सर्वस्व राष्ट्र, संस्कृति और धर्म के लिए समर्पित कर दिया। इस महान शहादत के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए एवं उनकी वीरता को स्मरण करने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिवर्ष 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवसÓ घोषित किया है।

दिसंबर के अंतिम सप्ताह का भारतीय इतिहास में विशेष महत्व है। इसे 'शोकÓ और 'शौर्य का सप्ताहÓ कहा जाता है। गुरु गोबिंद सिंह सिखों की गुरु परंपरा में दसवें गुरु हैं। उन्हें 'सरबंस दानीÓ की भी उपाधि दी गई है क्योंकि 21 दिसम्बर से 27 दिसम्बर के सात दिनों में गुरु गोविंद सिंह ने अपने चार पुत्रों और माता को देश और धर्म के लिए समर्पित कर दिया था और इसके बाद भी उन्होंने दृढ़ता से कहा-

'इन पूतन के सीस पर, वार दिए सुत चार।

चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार।।Ó

यह मध्यकालीन भारत की बड़ी मार्मिक किन्तु़ गौरवशाली कथा है, जब बर्बर विदेशी लुटेरे भारत की सत्ता पर कब्जा करके बैठे हुए थे। इनसे धर्म, संस्कृति और राष्ट्र को बचाने के लिए समाज में विद्रोह और संघर्ष भी चल रहे थे। गुरु गोबिंद सिंह ने भी मुगलों से युद्ध छेड़ रखा था।

गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादे थे। इनमें से तीसरे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह को 17 नवंबर 1696 को माता जीतो जी ने आनंदपुर साहिब में जन्म दिया। 25 फरवरी 1699 को छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह का जन्म हुआ। इसके लगभग 10 माह बाद 5 दिसंबर 1700 के दिन माता जीतो जी के परलोक गमन कर जाने पर गुरु गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी जी ने अपने पौत्रों बाबा जोरावर सिंह और उनके छोटे भाई बाबा फतेह सिंह की उच्चतम आदर्श देते हुए परवरिश की। एक बार सभी सिरसा नदी पार करते समय बाढ़ के पानी में दोनों साहिबजादे और दादी माता गुजरी जी का गुरु गोबिंद सिंह जी से साथ छूट गया। माता गुजरी जी उन्हें घने जंगल से निकाल ले गईं। उनका रसोइया गंगू भी नदी पार करने में सफल हो गया था। वह दादी और दोनों साहिबजादों को अपने गांव खेड़ी ले गया।

घर पहुंचने पर रसोइया गंगू ने माता गुजरी जी की गठड़ी से आभूषण चुरा लिए और इनाम के लालच में मुगलों को सूचना दे दी। मुगल अधिकारी तीनों को हिरासत में लेकर सरहिंद ले गए जहां उन्हेंं दिसंबर की कड़ाके की ठंड और बर्फीली हवाओं के बीच सबसे ठंडे बुर्ज में भूखे रखा गया। जब इसकी जानकारी गुरु गोबिंद सिंह के श्रद्धालु भाई मोती मेहरा को लगी तो वे खतरा उठाकर सीढ़ी लगाकर उस ठंडे बुर्ज तक पहुंचे और छोटे साहिबजादों को दूध पिलाकर लौटे।

उधर, चमकौर के युद्ध में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादे शहीद हो चुके थे। 9 दिसंबर 1705 को दोनों छोटे साहिबजादों को चमकौर से लौटे सरहिंद के फौजदार नवाब वजीर खान के समक्ष पेश कर दिया गया। वजीर खान ने दोनों साहिबजादों को इस्लाम कबूल करने के लिए कई प्रलोभन दिए लेकिन साहिबजादों ने सब प्रलोभनों को ठोकर मार कर धर्म की रक्षा पर अडिग रहने की गर्जना कर दी थी। वजीर ने उन्हें मौत की धमकी दी पर दोनों साहिबजादे अपने निर्णय से बिल्कुल भी नहीं डिगे। अंतत: बर्बर आततायी वजीर खान ने दोनों छोटे साहिबजादों को मृत्युदंड की सजा सुना दी।

साहिबजादा जोरावर सिंह और उनके छोटे भाई फतेह सिंह ने कड़ाके की ठंड में दो और रातें उसी ठंडे और हौसला तोड़ देने वाली बर्फीली हवा वाले बुर्ज में दादी की गोद में बिताईं। जब साहिबजादों को वजीर खान के दरबार में लाया गया तो दोनों ने जोर से गर्जना करते हुए कहा -वाहिगुरु जी का खालसा। वाहिगुरु जी की फतेह।।

दरबार में वजीर खान ने एक बार फिर दोनों को लालच दिया कि वे इस्लाम स्वीकार करके मुसलमान बन जाएं इसके लिए वे जो कहेंगे दिया जाएगा। साहिबजादों ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा- हम किसी भी कीमत पर अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे। हम अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ रहे हैं। हम गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्र, गुरु तेग बहादुर जी के पौत्र और गुरु अर्जनदेव जी के वंशज हैं। हम उनके दिखाए मार्ग पर ही चलेंगे। अपने धर्म की रक्षा के लिए हम हर एक कुर्बानी देने को तैयार हैं। वजीरखान ने अपनी सभी चालें बेकार जाते देख दोनों को जीवित ही दीवार में चुनवाने का हुक्म दे दिया।

दरबार से वापस बुर्ज में भेजे साहिबजादों ने माता गुजरी जी को जब पूरी बात बताई तो उन्होंने दोनों को गले से लगा लिया और उनकी बहादुरी के लिए शाबाशी दी। अगले दिन दरबार में फिर उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए लालच दिए गए, मौत का डर दिखाया गया पर वे धर्म रक्षा के अपने निर्णय पर अडिग रहे। अंत में दोनों को उस स्थान पर ले जाया गया जहां दीवार चुनवाई जा रही थी। दोनों साहिबजादों को साथ खड़ा करके जल्लाद दीवार उठाने लगे। दोनों साहिबजादों ने गुरुवाणी का पाठ शुरू कर दिया। जैसे ही दीवार दोनों के मुख तक पहुंची तो भरभराकर गिर गई। दोनों साहिबजादे बेहोश हो गए। होश में आने पर उन्हें फिर धर्म परिवर्तन के लिए प्रलोभन दिए गए लेकिन वे दोनों नहीं माने। अंतत: 26 दिसंबर को दुष्ट वजीर खान ने दोनों साहिबजादों को शहीद करा दिया। इसके साथ ही दोनों साहिबजादों ने अपनी महान शहादत से गुरुवाणी की इन पवित्र पंक्तियों को सच किया-

'सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत,

पुरजा-पुरजा कट मरै कबहू ना छाड़े खेतÓ

इधर ठंडे बुर्ज में यातनाएं सह रहीं वृद्ध माता गुजरी जी ने भी यह सूचना मिलते ही 27 दिसंबर को प्राण त्याग दिए। इसके बाद जो हुआ वह भी विश्व इतिहास में पहली बार हुआ। दोनों साहिबजादों और माता गुजरी जी के अंतिम संस्कार के लिए जो जमीन वजीर खान ने दी वह दुनिया की सबसे कीमती जमीन रही और सरहिंद के एक धनी व्यापारी सेठ टोडरमल ने ेइसे लेकर तीनों का पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कराया। इसके लिए वजीर खान ने शर्त रखी कि अंतिम संस्कार के लिए जितनी भूमि चाहिए उसे सोने के सिक्कों से ढंक दिया जाए। सेठ टोडरमल ने इसके लिए एक स्थान चुना और उसे सोने के सिक्के बिछाकर ढंक दिया। सोने के सिक्कों के बदले वह स्थान लेकर तीनों का अंतिम संस्कारर कर दिया गया। सरहिंद के पास फतेहगढ़ साहिब में इस स्थान पर आज भी चार गुरुधाम सुशोभित हैं। उस स्थान पर प्रतिवर्ष 25 से 28 दिसंबर तक महान शहीदों का पवित्र स्मरण करते हुए दीवान सजाए जाते हैं।

साहिबजादों की कुर्बानी ने देश में एक नई क्रांति का संचार किया। पूरा समाज मुगल शासन को खत्म करने के लिए एकजुट हो गया। गुरु गोबिंद सिंह जी को जब साहिबजादों और माता गुजरी जी की शहादत का समाचार मिला तब वे माछीवाड़े के जंगलों में थे। उन्होंने घोषणा की कि यह अब भारत से मुगल सत्ता के खत्मा होने का कारण बनेगा। इसके कुछ समय बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने नांदेड़ पहुंचकर माधवदास बैरागी को अमृत छका कर सिख सजाया। अब वे माधवदास से बंदा सिंह बहादुर हो गए। बाबा बंदा सिंह बहादुर के नेतृत्व में सिखों ने सरहिंद पर आक्रमण कर चपड़चिड़ी के मैदान में 12 मई 1710 को हुए युद्ध में मुगल सेना को बुरी तरह से पराजित किया। वजीर खान मारा गया और 14 मई को सिखों ने सरहिंद पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार दोनों साहिबजादों और माता गुजरी जी की शहादत आज भी सिखों द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली अरदास में स्मरण किया जाता है।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश पर्व 9 जनवरी 2022 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 'वीर बाल दिवसÓ मनाए जाने की घोषणा की थी कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह की शहादत को याद करते हुए प्रतिवर्ष 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवसÓ मनाया जाएगा। प्रधानमंत्री जी की घोषणा के अनुरूप श्री गोबिंद सिंह जी के साहिबजादों की अद्वतीय शहादत के प्रति श्रद्धांजलि देने के लिए भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाने के लिए राजपत्र में अधिसूचना जारी की। इसके अनुसार ही अब प्रतिवर्ष 26 को वीर बाल दिवस मनाया जाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों पुत्रों की शहादत ने भारत की तरुणायी में यह चेतना जगाने का काम किया कि राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए इस मातृभूमि पर हजारों पुत्र कुर्बान किए जा सकते हैं।

(लेखक भारतीय जनता पार्टी मध्य प्रदेश के प्रदेश संगठन महामंत्री हैं)

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