किसान आंदोलन-2 का औचित्य क्या?
आलेख लिखे जाने तक, पंजाब-हरियाणा के शंभू, खनौरी और जींद सीमा पर तनाव है। यहां आक्रमक किसान प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए पुलिस को विवश होकर आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े, तो रबर की गोलियां तक चलानी पड़ी। दिल्ली से सटे सिंघु, टिकरी, सीमापुरी, लोनी, गाजीपुर, डीएनडी, लिंक रोड, रजोकरी और बदरपुर सीमा पर पुलिस द्वारा सुरक्षा के कड़े उपाय किए है। यहां कंक्रीट के भारी अवरोधक, सड़क पर लोहे की नुकीली तार और कीलें भी लगाई गई हैं। इस आंदोलन से स्थानीय लोगों को फिर से समस्या का सामना करना पड़ रहा है। कई क्षेत्रों में इंटरनेट सेवा बंद है, तो दिल्ली में एक महीने के लिए धारा 144 भी लागू है। विपक्षी दलों- विशेषकर मोदी विरोधियों का तर्क है कि देश में सभी को प्रदर्शन का अधिकार है, इसलिए किसान आंदोलन-2 को रोकने हेतु इस प्रकार के सख्त उपाय न केवल उनके अधिकार पर 'कुठाराघातÓ और 'लोकतंत्र की हत्याÓ है। यक्ष प्रश्न है कि क्या सरकार (केंद्र सहित) के पास इससे कोई बेहतर विकल्प हो सकता था?
सुधी पाठकों को 2020-21 के किसान आंदोलन की कई विचलित तस्वीरें स्मरण होगी। गणतंत्र दिवस के दिन उन्मादी लोगों ने राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक लालकिले के प्राचीर पर मजहबी झंडा लहराया दिया था। तब सैकड़ों ट्रैक्टरों पर तलवारों और अन्य घातक धारदार हथियारों से लैस होकर तथाकथित किसानों ने सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों, जो तब संयंम बरत रहे थे— उन्हें मारने का प्रयास किया। तब देश ने आंदोलनस्थल पर वह बर्बर तस्वीरें भी देखी, जिसमें असीम यातना देकर मौत के घाट उतारने के बाद दलित लखबीर के शव को क्षत-विक्षत प्रदर्शनस्थल पर लटका दिया गया था। प्रदर्शनस्थल पर एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार की खबर मीडिया की सुर्खियां तक बनी थी। झज्जर के एक किसान को जिंदा जला दिया गया था।
तब देश ने दिल्ली-सीमा और उसके आसपास प्रदर्शनकारियों के मुख से भारत-हिंदू विरोधी नारों को सुना था। यहां तक, उसी जमघट से दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत के घाट उतारने की खुलेआम धमकियां भी दी जा रही थी। उस समय 1500 से अधिक मोबाइल टावरों को प्रदर्शनकारियों ने इसलिए क्षतिग्रस्त कर दिया था, क्योंकि तब उन तीनों कृषि कानूनों को मिथ्या प्रचार के बल पर अंबानी-अदाणी को लाभ पहुंचाने वाला बताया जा रहा था।
पुराने किसान आंदोलन की आड़ में भयावह अराजकता और इसमें विरोधी दलों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से देशविरोधी शक्तियों को संबल मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रहित में 19 नवंबर 2021 को तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी। यह स्थिति तब थी, जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट ने पाया था कि देश के 73 में से 61 किसान संगठनों ने तीनों कृषि कानूनों का समर्थन किया था। कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र इस प्रकार की अराजकता को बर्दाश्त नहीं सकता। इसलिए पिछले घटनाक्रम के कारण और इस बार के आंदोलन में किसानों की 'तैयारियोंÓ को देखते हुए सरकार के उपरोक्त सभी उपाय न्यायोचित और स्वाभाविक है। अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे किसान नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों के बीच सोमवार (12 फरवरी) को चंडीगढ़ में बैठक बेनतीजा रही थी, जिसके बाद किसान नेताओं ने आंदोलन की घोषणा कर दी। केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा, जोकि चंडीगढ़ की बैठक में भी शामिल थे— उनके अनुसार, सरकार को जानकारी मिली है कि कई ऐसे लोग हैं जो कि माहौल को प्रदूषित करने की कोशिश कर सकते हैं... किसान इससे बचें।
इस बार भी अधिकतर आंदोलित किसान वर्ग पंजाब से है, जो देश में सबसे समृद्ध है। यहां कृषि पूर्णत: सिंचित है। पंजाब के किसानों को मुफ्त बिजली, अत्यधिक सब्सिडी वाले उर्वरक और गेहूं-धान की खुली खरीद की सुनिश्चितता प्राप्त है। भारत बदलाव के दौर से गुजर रहा है और अन्य वर्गों की भांति किसानों की स्थिति भी सुधर रही है, विशेषकर राष्ट्रीय हरित क्रांति (1960 दशक) के बाद से अधिक। इससे कालांतर में किसानों का एक वर्ग नव-धनाढ्य (आढ़ती सहित) बनकर उभरा है। उनका रहन-सहन मुंशी प्रेमचंद के किस्से-कहानियों में चित्रित किसानों जैसा नहीं है। बकौल मीडिया रिपोर्ट, दिल्ली कूच करने वाले किसान 800 ट्रॉलियों में 6 महीने तक का राशन साथ में लेकर चले हैं। यही नहीं, वे लंबे-चौड़े मोटर-वाहन ट्रॉलियों (जिसमें सोने का भी प्रबंध है), आधुनिक परिधान, महंगे स्मार्टफोन और पानी के टैंकर-ड्रम और डीजल इत्यादि लेकर आंदोलन में शामिल हुए है। पंजाब में आढ़ती किसानों की उपज बेचकर कुल बिक्री मूल्य पर ढाई प्रतिशत का लाभ कमा रहे है।
किसानों के नाम पर जो वर्तमान आंदोलन किया जा रहा है, वह समाज के एक समृद्ध और संगठित वर्ग द्वारा अपने हितों की रक्षा हेतु दुराग्रह है। वास्तव में, 60 साल से ऊपर के सभी किसानों को 10 हजार प्रति माह पेंशन और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) की गारंटी के साथ अन्य सभी मांगों को जस का तस पूरा करना— किसी भी सरकार के लिए असंभव है। मोदी सरकार 23 फसलों पर एमएसपी तय करती है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि केवल एमएसपी गारंटी की मांग मानने पर ही राजकोष पर प्रतिवर्ष 10 लाख करोड़ रूपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट का 10 गुना, रक्षा बजट का दोगुना और आधारभूत ढांचे पर व्यय हो रहे खर्च से कहीं अधिक है। ऐसा होने पर महंगाई चरम पर पहुंच जाएगी।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने किसानों की मांगों का समर्थन किया है। यदि उनके लिए यह मांगें उतनी उचित है, तो 2004-14 तक जब देश में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार का शासन था, तब उन्हें लागू या फिर इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास क्यों नहीं किया? कांग्रेस आम चुनाव जीतने के बाद इन वादों को पूरा करने का दावा कर रही है, ऐसा इसलिए क्योंकि राहुल सहित सभी विरोधी दल जानते है, 2024 में कांग्रेस की केंद्र सरकार बनने की संभावना शून्य है। इस पृष्ठभूमि में जब लोकसभा चुनाव में दो माह से कम का समय बचा है, तब इस प्रकार के आंदोलन को शुरू करने के पीछे का उद्देश्य और स्वार्थ क्या हो सकता है, उसका अनुमान लगाना सुधी पाठकों के लिए कठिन नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार व पूर्व राज्यसभा सांसद हैं)