जिन्होंने कठोरतम प्रताड़ना सहकर भी की अपने स्वत्व की रक्षा
रमेश शर्मा
पिछले दो हजार वर्षों में संसार का स्वरूप बदल गया है। बदलाव केवल शासन करने के तरीके या राजनैतिक सीमाओं में ही नहीं हुआ अपितु परंपरा, संस्कृति, जीवनशैली और सामाजिक स्वरूप में भी हुआ है । किंतु भारत इसमें अपवाद है। असंख्य आघात सहने के बाद भी यदि भारतीय संस्कृति और परंपराएँ दिख रहीं हैं तो इसके पीछे ऐसे बलिदानी हैं जिन्होंने कठोरतम प्रताड़ना सहकर भी अपने स्वत्व की रक्षा की है। ऐसे अमर बलिदानी वीर छत्रपति सम्भाजी राजे महाराज का जन्म 14 मई 1657 को पुरन्दर के किले में हुआ था माता यसुबाई भी युद्ध कला में निपुण थीं पर बालक संभाजी को माँ का संरक्षण न मिल पाया। जब वे केवल दो वर्ष के थे तभी माता का निधन हो गया था। उनका पालन पोषण दादी के संरक्षण में हुआ। माता के निधन के साथ जो संघर्ष आरंभ हुआ वह जीवन की अंतिम सांस तक रहा। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तब से स्वयं अपने जीवन की सुरक्षा करना और युद्ध से रिश्ता जुड़ गया था। वे नौ वर्ष की आयु में ही पिता शिवाजी महाराज के साथ औरंगजेब की आगरा जेल में बंदी रहे थे। जेल से निकलते ही शिवाजी महाराज ने अपने इस नन्हे पुत्र को अपने से अलग कर दिया था।
छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ था। तब कुछ समय तक शिवाजीे महाराज के अनुज राजाराम को हिन्दु पदपादशाही पर सत्तारूढ़ कर दिया था। और अंत में 16 जनवरी 1681 को सम्भाजी महाराज का विधिवत राज्याभिषेक हुआ। इसी वर्ष औरंगजेब का एक विद्रोही पुत्र अकबर दक्षिण भारत भाग आया था। और संभाजी महाराज से शरण की याचना की। छात्रपति श्री सम्भाजी महाराज जितने वीर और पराक्रमी थे उतने भावुक भी उन्होंने शहजादे अकबर को अपने यहाँ शरण और सुरक्षा प्रदान की। इससे औरंगजेब और बौखलाया। यह वही शहजादा अकबर था जो संभाजी महाराज के बलिदान के बाद अपने परिवार के साथ राजस्थान चला गया था। और वहाँ वीर दुर्गादास राठौर के संरक्षण में रहा। सम्भाजी महाराज ने चारों ओर मोर्चा लिया था। एक ओर मुग़लों से तो दूसरी ओर पोर्तगीज एवं अंग्रेज़ों से भी। इसके साथ अन्य आंतरिक शत्रु थे सो अलग। इतने संघर्ष के बीच भी उन्होंने मराठा साम्राज्य को विस्तार दिया ।
1689 पुर्तगालियों को पराजित करने के बाद वे संगमेश्वर में व्यवस्था बनाने लगे। संभाजी महाराज ने तीन दिशाओं में एक साथ युद्ध किये। मुगलों से, निजाम से और पुर्तगालियों से भी। पर वे कोई युद्ध न हारे। और यदि हारे तो एक विश्वासघात के कारण हारे। यह 31 जनवरी 1689 का दिन था। वे संगमेश्वर में थे और अपना राजकीय कार्य पूरा करके रायगढ़ जाने वाले थे। जब वे संगमेश्वर में थे तभी उन्हें मार्ग में फंसाने की योजना बन गई थी। गणोजी को वे अपना विश्वासपात्र मानते थे। वह किसी रिश्ते में उनकी पत्नी का भाई लगता था। गणोजी ने बताया कि क्षेत्रवासी उनका सम्मान करना चाहते हैं । यह आग्रह कुछ इस प्रकार किया गया कि सम्भाजी टाल न सके। उन्होंने मार्ग में रुकना स्वीकर कर लिया। इसके लिये सम्भाजी महाराज ने अपने केवल 200 सैनिक साथ रखे और सेना को रायगढ़ रवाना कर दिया। यह आमंत्रण की योजना एक षड्यंत्र था। मुगल सैन्य सरदार मकरब खान ने गणोजी शिर्के को लालच दिया था कि यदि वह संभाजी को पकड़वाने में सहयोग करेगा तो दक्षिण का आधा राज्य दे दिया जायेगा। गणोंजी लालच में आ गया और वह षड्यंत्र में शामिल हो गया।
मुग़ल सरदार मुकरब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5,000 के फ़ौज के साथ वहां जा पहुंचा। यह वह रास्ता था जो केवल मराठों को पता था । इसलिए सम्भाजी महाराज को कभी संदेह भी न हुआ था कि शत्रु इस और से आ भी सकता है । लेकिन शिर्के ने मुगल सेना को पूरे मार्ग का विवरण भेज दिया थ। मार्ग सकरा था। उससे किसी समूह को एक साथ नहीं निकला जा सकता था। एक एक करके ही निकलना संभव था। संभाजी महाराज अपने निजी सुरक्षा सैनिकों के साथ इसी प्रकार चलने लगे। लेकिन शत्रु की जमावट बहुत तगड़ी थी पाँच हजार सैनिक तैनात थे। इतनी बड़ी फौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार नहीं हो पाया चूकि सैनिक एक एक करके निकल रहे थे। सब पकड़े गये या बलिदान हुये। औरंगजेब ने संभाजी महाराज को जीवित पकड़ने का आदेश दिया था इसलिये सम्भाजी महाराज अपने मित्र कवि कलश के साथ 1 फरवरी 1689 को बंदी बना लिये गये। औरंगजेब ने समर्पण करने पर पूरा राज्य लौटाने का लालच दिया । समर्पण की शर्त इस्लाम कुबूल करना थी। सम्भाजी महाराज ने इंकार कर दिया। और तब क्रूरताओं का सिलसिला चला। यह सब कोई 38 दिन चला। इस प्रकार 11 मार्च 1689 को उनका बलिदान हुआ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)