गांधी को क्यों अछूत समझता पाकिस्तान

गांधी को क्यों अछूत समझता पाकिस्तान
विवेक शुक्ला

महात्मा गांधी की अगर 30 जनवरी,1948 को हत्या ना होती तो वे कुछ दिनों के बाद पाकिस्तान जाने वाले थे। वे लाहौर, रावलपिंडी और कराची जाने की ख्वाहिश रखते थे। गांधी जी ने कहा भी था- मैं लाहौर जाना चाहता हूं। मुझे वहां जाने के लिए किसी तरह की सुरक्षा की जरूरत नहीं है। मुझे मुसलमानों पर भरोसा है। वे चाहें तो मुझे मार सकते हैं? पर (पाकिस्तान) सरकार मेरे आने पर रोक कैसे लगा सकती है? अगर वह मुझे नहीं आने देना चाहेगी तो उसे मुझे मारना होगा। ( गांधी वांगमय, खंड 96:7 जुलाई, 1947 - 26 सितंबर, 1947, पेज 410)।

दरअसल गांधी जी पाकिस्तान इसलिए यात्रा करना चाहते थे कि दोनों देशों में बंटवारे के बाद हुई खूनी हिंसा के बाद सौहार्द का वातावरण बन जाए। वे वहां की जनता से मिलना-जुलना चाहते थे। गांधी को लेकर पाकिस्तान में दो तरह के नैरेटिव सामने आते हैं। पंजाब,जो पाकिस्तान की सियासत तथा सेना में भागीदारी के लिहाज से सर्वाधिक अहम सूबा है, में उन्हें एक 'काईंयांÓ हिन्दू नेता के रूप में ही पाठ्य पुस्तकों में पेश किया जाता रहा है। उन्हें मुसलमानों के शत्रु के रूप में पेश किया जाता है। वे वहां की स्कूल और कॉलेजों की किताबों में कांग्रेस के एक औसत नेता के रूप में सामने आते हैं। पाकिस्तान की गुजरे सत्तर सालों की सरकारों ने अधकचरी जानकारियों के आधार पर बनी गांधी की शख्सियत के साथ न्याय करने की कभी चेष्टा भी नहीं की। पाकिस्तान एक तरह से डरता है गांधी जी से।

पाकिस्तान के अधिकतर लेखक और इतिहासकार लगता है कि भांग खाकर गांधी को मुस्लिम विरोधी बताते रहे हैं। ये उस गांधी को हिन्दुओं का नेता के रूप में पेश करते है, जो मारे जाने से तीन दिन पहले दिल्ली में कुतुबउद्धीन बख्तियार काकी की दरगाह को देखने जाता है। दरगाह को दंगाइयों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। गांधी जी दरगाह में जाकर मुसलमानों को भरोसा देते हैं कि दरगाह की कायदे से मरम्मत होगी। वे मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोकते भी हैं। वहां उस गांधी को पाठ्य पुस्तकों में अछूत माना जाता है जिसकी प्रार्थना सभाओं में कुरान की आयतें अनिवार्य रूप से पढ़ीं जाती थीं। उस गांधी को मुसलमान विरोधी ठहरा दिया जाता है, जो इजरायल-फ़लस्तीनी विवाद पर टूक राय रखता था। इजरायल-फ़लस्तीनी विवाद पर महात्मा गांधी गहराई से नज़र रख रहे थे। उनका कहना था कि फ़लस्तीनी जगह उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेज़ों का है। यह सही नहीं होगा कि यहूदियों को अरबों पर थोप दिया जाए। बेहतर तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जन्मे हैं और रह रहे हैं वहां उनके साथ समता का व्यवहार हो। अगर यहूदियों को फ़लस्तीनी जगह ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं? या कि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं ? संभवत: पाकिस्तान में गांधी को हिन्दुओं का नेता साबित करने वालों को यह भी नहीं पता कि उनके सबसे बड़े पुत्र हरिलाल गांधी ने इस्लाम धर्म को अपना लिया था। वह अब्दुल्ला बन गया था। जब गांधी को हरिलाल के अब्दुल्ला बनने की जानकारी प्राप्त हुई थी तो उन्होंने कहा था- 'मुझे उम्मीद है कि अब वह बेहतर इंसान बन जाएगा।Ó

दो गांधी कहां

पाकिस्तान के खैबरपख्तूख्वाह प्रांत के लिए कहा जा सकता है कि उधर गांधी के हक में हमेशा माहौल रहा है। इसकी संभवत: वजह यह रही कि यह सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान का सूबा है। गांधी और सरहदी गांधी घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। गांधी जी ने सरहदी गांधी के साथ 1938 में इस सूबे का गहन दौरा भी किया था। वे पेशावर, बन्नू और मरदान भी गए थे। बताते चलें कि राजधानी से सटे औद्योगिक शहर फरीदाबाद में बन्नू के लोगों को बसाया गया था। इसलिए सरहदी गांधी 1969 में फरीदाबाद में अपने लोगों से मिल गए थे। बहरहाल, गांधी जी का सरहदी गांधी के सूबे ने तहेदिल से स्वागत किया था। देश के बंटवारे के बाद यहां पर गांधी और सरहदी गांधी के उसूलों और मूल्यों पर चलने वाली अवामी नेशनल पार्टी (एएनपी) सबसे बड़ी और शक्तिशाली सियासी जमात रही है। सीमांत गांधी के पुत्र खान अब्दुल वली खान ने इसकी स्थापना की थी। वे भी गांधी जी से बार-बार मिले थे। अपने दादा और पिता की तरह इसके वर्तमान नेता अफसंदयार वली खान भारत के मित्र हैं। अफसंदयार के दादा और पिता ने देश बंटवारे का कड़ा विरोध किया था। एनपीए ने हमेशा ही कट्टरवादियों से लोहा लिया है।

यह भी याद रखा जाए कि मौजूदा पाकिस्तान में 1947 से पहले सिर्फ मुस्लिम लीग का ही असर नहीं था। वहां पर कांग्रेस का व्यापक जनाधार था। कांग्रेस के कई बड़े सम्मेलन लाहौर और कराची में हुए थे। 31 दिसंबर 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित कर भारत के लिए पूर्ण स्वराज की मांग की गई थी। इसी दिन, रावी नदी के तट पर भारतीय स्वाधीनता का तिरंगा झंडा फहराया गया था। इसमें गांधी जी भी थे। इसके दो सालों के बाद 1931 में कांग्रेस का कराची में अधिवेशन हुआ भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में हुआ था। इस अधिवेशन में गांधी-इरविन समझौते का समर्थन किया गया, जिसने कांग्रेस को सरकार के साथ समान स्तर पर बात करने का अवसर प्रदान किया। जाहिर है, लाहौर और कराची जैसे शहरों में कांग्रेस का प्रभाव होगा जिसके चलते वहां कांग्रेस के अधिवेशन हुए। इन शहरों में रहने वाले कांग्रेसी 1947 के बाद वहां ही रह गए। इनके बीच में गांधी जी के सत्य, अहिंसा और सर्वोदय जैसे सिद्धातों को लेकर प्रतिबद्धता बनी रही थी। इसलिए यकीन कीजिए कि पाकिस्तान में कांग्रेस और गांधी की विचारधारा से जुड़े लोग अब भी हैं। इसलिए तो कराची तथा रावलपिंडी में गांधी जी के नाम पर कुछ समय पहले तक पार्क भी थे। उनके नाम तो बदल दिये गये। लेकिन, गांधी का विचार तो सरहद पार जीवित है और उसे अब वहां का शिक्षित और उदारवादी तबका आदर के भाव से देखता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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