जीते रहो श्रीमान् मोहम्मद बिन सलमान

जीते रहो श्रीमान् मोहम्मद बिन सलमान
विजय मनोहर तिवारी

एमबीएस के नाम से मशहूर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की उम्र 38 साल है और वे जो कर रहे हैं, उसकी चर्चा भारतीय मीडिया में न के बराबर है। जिन अल्पसंख्यकों को खुश करने के नाम पर सारे सेक्युलर दल और सेक्युलर मीडिया अयोध्या को लेकर विक्षिप्त रहा, उसे थोड़ा ठंडा पानी पीकर मोहम्मद बिन सलमान पर भी गौर करना चाहिए। असल ब्रेकिंग न्यूज उधर हैं, जिन पर घंटों के प्राइम टाइम शो भी किए जा सकते हैं। राहुल गाँधी चाहें तो अपनी यात्रा में मोहम्मद बिन सलमान के फैसलों का जनहित में प्रचार-प्रसार करके सवाब कमा सकते हैं।

अब यह सर्वज्ञात है कि मोहम्मद बिन सलमान ने अपने मुल्क में धार्मिक और सामाजिक सुधारों की शृंखला शुरू की हुई है। दो साल पहले एक ऐसे ही बड़े सुधार का निर्णय लिया था, जिसे भारतीय मीडिया पूरी तरह दबा गया। किसे याद है कि भारत के मेवात इलाके में पैदा हुई तबलीगी जमात पर एमबीएस ने अपने यहाँ 'आतंक का दरवाजाÓ बताकर बंदिश लगा दी है। कोई तबलीगी वहाँ नजर नहीं आ सकता। मजे की बात है कि भारत में न केवल तबलीगी इज्तिमे धड़ल्ले से चल रहे हैं बल्कि तबलीग से जुड़े किसी मौलाना मोहम्मद साद या उनके गुर्गों ने मोहम्मद बिन सलमान के फैसले पर आसमान सिर पर नहीं उठाया। आसमान सिर पर उठाना तो दूर चूँ भी नहीं की। सब सरकारों को पता है कि सौ साल पुरानी यह जड़ जमात सदियों पुरानी इस्लामी व्यवस्था को जीवन का अंतिम सत्य मानकर सिर का ताज बनाकर घूमती है, सऊदी अरब को अज्ञात कारणों से इनके इरादे ठीक नहीं लगे और एमबीएस ने भड़ाक से इनके लिए दरवाजा बंद कर दिया। एमबीएस को बाहरी मुल्क में पैदा हुई किसी जमात की किन कारगुजारियों के कारण यह फैसला लेना पड़ा, भारत में इस पर विस्तृत चर्चा की जरूरत भी नहीं समझी गई। भारत का तो अल्लाह ही मालिक है!

फिलहाल मोहम्मद बिन सलमान ने सुधारों की अगली कड़ी में रमजान की रौनक घटाने के फैसले लिए हैं। मस्जिदों में लाउड स्पीकरों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। केवल मक्का-मदीना में वे लाउड स्पीकर का उतना ही इस्तेमाल कर पाएँगे, जितने में उनकी आवाज दीवार के बाहर सुनाई न दे। यह इस्लाम जैसे मीठे मजहब को अपने बेहद निजी दायरे तक सीमित रखने के लिए किया जा रहा है। जिसे जरूरत होगी, इस्लाम की ओर खुद खिंचा चला आएगा, आप इस्लाम के नाम पर ये शोरशराबा फौरन बंद कीजिए। यही नहीं नमाजों को भी संक्षिप्त करने के लिए कहा गया है ताकि वह केवल एक औपचारिकता भर रहे। गोया जिंदगी में करने के लिए और भी जरूरी काम हैं।

रमजान के दौरान आखिरी दस दिन बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं, जब दुआएँ पढ़ी जाती हैं। मन्नतें माँगी जाती हैं। अब इन दस दिनों की दीवानगी को काबू में रखने के लिए एमबीएस का फैसला है कि मस्जिदों में दुआओं के तलबगार ऐसे हरेक नमाजी का डिटेल परिचय रजिस्टर किया जाएगा। टयूनीशिया में ऐसा पहले किया जा चुका है। रोजा टूटने पर जुर्माने लगते थे, अब इसकी कोई जरूरत नहीं होगी। टूट गया, टूट गया, मजे करिए। इस्लाम के नाम पर चंदेबाजी पर बंदिश लगाई गई है। अब अरब की खैरात पर पलने वालों के लिए मुसीबत होगी। लेकिन सुधारों की इस खेप में सबसे अहम तो यह है कि बच्चों को मस्जिद में ले जाने पर रोक लगेगी। विश्लेषकों का कहना है कि इस्लाम के नाम पर बच्चों की ब्रेन वॉशिंग सबसे आसान रही है। इसलिए मदरसा शिक्षा प्रणाली में भी हर कहीं सुधार किए जा रहे हैं। सऊदी अरब के ये फैसले देर-सबेर बाकी इस्लामी दुनिया के लिए भी एक नई नजीर बनेंगे।

भारतीय उपमहाद्वीप में फैले इस्लाम के झंडाबरदारों के चेहरे सबसे ज्यादा देखने लायक होंगे। इधर क्या चल रहा है? वे भारत के शहरों में हिजाब की हिमायत कर रहे हैं। उन्हें तीन तलाक को लेकर हुए फैसले फूटी आँख नहीं सुहा रहे। उनका बस चले तो वे गली-गली में लाउड स्पीकरों पर पूरे वॉल्यूम में पचास बार अजानें दें। जालीदार टोपी, छोटे पाजामे, बड़े कुरते और बिना मूंछ की सुदर्शन दाढ़ी को वे राष्ट्रीय स्वरूप घोषित कराकर सब पर लदवा दें। पाकिस्तान में तौहीन की उनकी अपनी परिभाषा है और उनके अपने कानून हैं। किसका सिर तन से जुदा करना है, वे लाहौर से लेकर उदयपुर तक उधार बैठे हैं।

इन कट्टरवादियों के बचाव में भारत की निर्लज्ज सेक्युलर ताकतें सौ साल पहले के मोहनदास करमचंद गाँधी के खिलाफत आंदोलन से अब तक तैयार बैठी हैं। अब वह अकेली कांग्रेस ही नहीं है, जो दरअसल किसी लीग या जमात का ही एक हरा संस्करण बनकर हास्यास्पद हो गई है। बंगाल से केरल तक बापू की गंगा-जमनी विरासत खूब फैली, फली और फूली है। इस्लाम के ऐसे रूप को शिरोधार्य करके बैठे और दूसरों के सिर दर्द बने रहनुमाओं के नीचे से मोहम्मद बिन सलमान ने जाजम दस्तरख्वान खींच लिए हैं। काश आरफा खानम नाम की सुलगी हुई शेरवानी, सबा नकवी या राना अयूब मोहम्मद बिन सलमान के इन कदमों पर कुछ फरमातीं। अब राहत इंदौरी और मुनव्वर राणा तो रहे नहीं, वर्ना दो एक शेर उनसे भी फरमाने को कहते।

मोहम्मद बिन सलमान इस्लाम की प्रचलित छवि बदल रहे हैं। नाइन इलेवन के बाद दुनिया में इस्लाम को लेकर एक अलग बहसें छिड़ी रही हैं। इंटरनेट ने इतिहास में ताकाझांकी सबके लिए सुगम बना दी है। अब हर कोई बीती सदियों में झांक रहा है। भारत जैसे देश में अयोध्या, मथुरा, काशी के बहाने हजारों खंडित मंदिर अपनी रक्तरंजित आपबीती सुना रहे हैं, जो इस्लाम के नाम पर ही तबाह किए गए। भारत के शहर अनगिनत नाइन इलेवनों से भरे हुए हैं। अमेरिका ने जिस आतंक का स्वाद न्यूयार्क के दो ऊँचे टावरों पर अब चखा, भारत 13 सौ साल पुराना भुक्तभोगी है। इस्लाम के विस्तारवादी स्वरूप ने बीते एक हजार सालों में कई संस्कृतियों पर घातक प्रभाव डाला है और इस्लाम के नाम पर ही टूटफूटकर बचा रह गया भारत जीवित बची संस्कृति का एक चमत्कार से कम नहीं है।

जिस समय अयोध्या में भारत पाँच सौ साल के संघर्ष के बाद अपनी जड़ों में झांक रहा है, ठीक उसी समय अरब की जमीन पर अबू धाबी में अब से डेढ़ महीने बाद एक विशाल मंदिर बनकर तैयार होने वाला है, जहाँ से घंटियों की आवाजें मक्का-मदीना को भी सुनाई देने वाली हैं। अरब अपना रूप बदल रहा है। बदलती दुनिया में इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन नए मुल्ले जोर से बांग देते हैं। भारतीय मूल के मुस्लिम बहुत बाद तक बदली गई पहचानों वाले धर्मांतरित मुस्लिम हैं, जिन्हें अरब मूल के लोग दो कौड़ी में नहीं पूछते। कुछ हिंदी फिल्मों ने भी महिमामंडित किया और हमने देखा कि कुछ सालों पहले तक भारत के नौजवानों में अरबी लिबास का बड़ा फैशनेबुल आकर्षण देखा गया। अगर कोई जोकरी पर ही उतर आए तो उसका कोई इलाज नहीं है और तारेक फतह जैसे मनीषी ही सही टीका-टिप्पणी करने के हकदार थे, जिन्होंने इनके बारे में ठहाके लगाकर यह मशहूर किया कि कपड़े तो ढँग के पहनना सीख लो मेरे भाई, बड़े भाई का कुरता और छोटे भाई का पाजामा!

काशी विश्वनाथ का प्राचीन परिसर एएसआई के सर्वे में सामने आए 32 चिन्हों और खुली आँखों से दिखाई देने वाले मंदिर के रूप में एक अवसर है कि भारतीय मुस्लिम सही दिशा में खुद को खड़ा करें। बेशक वे अतीत के गुनाहों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। बल्कि वे उसके असल पीड़ित पक्ष हैं, जिन्हें अपने धर्म तक छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। वे इन स्मारकों की पैरवी मस्जिद के रूप में करेंगे तो अपने और अपनी कौम के साथ ही अन्याय करेंगे क्योंकि अदालतें भी वही काशी और मथुरा में वही देखेंगी, जो सब आँख और दिमाग वालों को दिख रहा है लेकिन मुस्लिम पक्ष अब भी आँखों पर पट्टी बांधे हुए है। उन्हें काशी विश्वनाथ के कब्जाए और तोड़े हुए मंदिर के अवशेषों पर बैठकर तसल्ली से बदलती हुई दुनिया को देखने की जरूरत है। क्या उन्हें सुनाई नहीं दे रहा है कि सऊदी अरब में उनके आका श्रीमान मोहम्मद बिन सलमान क्या फरमा रहे हैं? वे किस दिशा में ले जा रहे हैं? वे इसलाम के नाखूनों को घिसकर और चमकाकर नेल पॉलिश लगा रहे हैं।

(लेखक मप्र के पूर्व सूचना आयुक्त हैंं)

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