महिला आरक्षण प्राचीन विरासत की पुनर्स्थापना
महिला आरक्षण का विचार अब केंद्रीय संसद द्वारा स्वीकृत हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को इतिहास के अनेक अध्यायों के निर्माण के लिए याद किया जाएगा। पिछले तीन दशक से सभी सरकारों में नए संसद भवन के निर्माण की चर्चा चली पर इसका साहस और संकल्प केवल प्रधानमंत्री मोदी ने दिखाया। राजनीतिक और कानूनी दोनों स्तरों पर चरम विरोध झेलते हुए भी समय सीमा में निर्माण पूरा हुआ। इसी तरह संसद और राज्य विधायिकाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत प्रतिनिधित्व देने पर पिछले ढाई दशक में सिद्धांतत: सभी सरकारों ने सहमति व्यक्त की लेकिन कोई विधेयक पारित नहीं कर पाया। इस कार्य का श्रेय भी अंतत: नरेंद्र मोदी सरकार को ही मिल रहा है। नये संसद भवन के लोकसभा में पहला भाषण देते हुए प्रधानमंत्री ने जैसे ही कहा कि हम नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और सर्वसम्मति से पारित करने की प्रार्थना की तभी साफ हो गया कि महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में आरक्षण का सपना साकार हो जाएगा। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने विधेयक प्रस्तुत किया। यह आरंभ में 15 वर्षों के लिए होगा। संसद चाहे तो इसे आगे बढ़ा सकती है। जैसे ही संकेत मिला कि विशेष सत्र में मोदी सरकार महिला आरक्षण विधेयक पारित करने की कोशिश करेगी विपक्ष ने श्रेय लेने के लिए रणनीति के तहत मांग शुरू कर दी। पुराने संसद भवन के लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी के भाषण के बीच टोकते हुए सोनिया गांधी ने बार-बार वूमेन रिजर्वेशन शब्द प्रयोग किया। इसका उद्देश्य इतना ही था कि लोकसभा के रिकॉर्ड में दर्ज हो जाए कि इसकी मांग कांग्रेस की ओर से हुई और सोनिया गांधी ने अपने नेता को यह विषय रखने के लिए बोला। नई संसद के लोकसभा में बोलते हुए अधीर रंजन चौधरी ने यह गलतबयानी भी कर दी कि राजीव गांधी के कार्यकाल में स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण कानून बना था। सच क्या है?
10 वर्ष की यूपीए सरकार में यूपीए और कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष होते हुए भी सोनिया गांधी इसे पारित कराने में सफल नहीं हो सकी। तब उनके गठबंधन के साथियों ने ही ऐसा नहीं होने दिया। हालांकि 2010 में राज्यसभा में पारित हुआ। राज्यसभा ने लोकसभा को इसकी सूचना दी और पारित विधेयक पहुंचा भी। 15 वीं लोकसभा की समाप्ति के साथ विधेयक मर गया। पहली बार संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान 1996 में यह विधेयक सामने आया और तबसे इसकी नियति लटक जाने की रही। इसलिए राजनीतिक बयान जो दिया जाए नरेंद्र मोदी सरकार ने महिलाओं को देश और राज्यों के नीति निर्माण में उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का संकल्प दिखाया है। संयोग देखिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुणे में आयोजित समन्वय समिति की बैठक में आगामी वर्षों में संघ की शताब्दी योजना के अंतर्गत महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने का निर्णय हुआ, इसका कार्यक्रम भी पहले से चल रहा है और सरकार ने महिला आरक्षण को संवैधानिक रूप देने का निर्णय कर लिया। विरोधियों ने संघ प्रमुख डॉ मोहन भागवत द्वारा देश को भारत कहने की अपील को जी20 में राष्ट्रपति द्वारा आयोजित भोज के निमंत्रण पर प्रेसिडेंट ऑफ भारत लिखने से जोड़ा, किंतु यहां सब खामोश हैं। कारण, वे इसका श्रेय संघ और भाजपा को नहीं देना चाहते क्योंकि दुष्प्रचार यही किया है कि यह विचारधारा ही महिला विरोधी है। अपने आचरण से संघ तथा भाजपा ने इस आरोप को खंडित किया है।
निस्संदेह,आरक्षण न सामान्य, सहज व्यवस्था हो सकती है और न स्थायी। किंतु देश को क्षमताओं के अनुरूप विकसित करना है तथा लोकतंत्र को सर्वप्रतिनिधिमूलक बनाना है तो आधी आबादी की कुछ निश्चित काल के लिए समुचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करनी होगी। तत्काल यह आरक्षण द्वारा ही संभव है। प्रधानमंत्री मोदी ने पुराने संसद भवन के लोकसभा के अपने अंतिम भाषण में बताया कि आजादी के बाद से संसद में 7500 सांसदों का प्रतिनिधित्व हुआ,जिनमें महिलाओं की संख्या लगभग 600 रही। यानी 8 प्रतिशत से भी कम। लोकसभा में अभी सबसे ज्यादा 15.21 प्रतिशत यानी 82 महिला सांसद है। राज्यसभा में 13.23 प्रतिशत यानी 31 महिला सांसद हैं। अगर इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के अध्ययन को स्वीकार करें तो वैश्विक स्तर पर महिला सांसदों की औसत भागीदारी 26 प्रतिशत है। किसी विधानसभा में 15 प्रतिशत महिला विधायक नहीं है। नागालैंड और मिजोरम में एक भी महिला विधायक नहीं है। अधिकतम 14.44 प्रतिशत छत्तीसगढ़ में तथा उसके बाद 13.70 प्रतिशत पश्चिम बंगाल, 12.35प्रतिशत झारखंड, 12 प्रतिशत राजस्थान,11.66 प्रतिशत उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली और उत्तराखंड विधानसभा में 11.4 प्रतिशत हैं। आठ प्रतिशत और उससे ज्यादा महिलाओं की भागीदारी 16 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 15 में इससे कम है। कर्नाटक जैसे बड़े राज्य में महिला विधायक 3.4 प्रतिशत हैं। यह दर्दनाक स्थिति है। इन आंकड़ों से महिला आरक्षण की आवश्यकता और प्रासंगिकता साबित होती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)