चीन-पाकिस्तान की कठपुतली न बने नेपाल

चीन-पाकिस्तान की कठपुतली न बने नेपाल
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स्वदेश वेबडेस्क। हाल ही में भारत ने गिलगिट-बाल्टिस्तान में पाकिस्तानी सरकार द्वारा चुनाव करवाने से रोकने और भारतीय मौसम विभाग द्वारा इन स्थानों के मौसम के बुलेटिन जारी करने के फैसले के बाद जिस तरह से चीन और पाक तिलमिलाए हैं उसी का ही परिणाम है कि इन देशों ने अपने बचाव व भारत को उलझाने के लिए नेपाल को आगे कर दिया है। नेपाल के मंत्रिमण्डल ने अपने देश का नया राजनीतिक नक्शा जारी किया है। इसमें लिम्पियाधुरा कालापानी और लिपुलेख को नेपाल की सीमा का हिस्सा दिखाया गया है। नेपाल का है दावा कि महाकाली (शारदा) नदी का स्रोत दरअसल लिम्पियाधुरा ही है जो फिलहाल भारत के उत्तराखंड के पित्थौरागढ़ जिले का हिस्सा है। भारत इससे इनकार करता रहा है। नेपाल का फैसला भारत की ओर से लिपुलेख इलाके में सीमा सड़क के उद्धाटन के दस दिनों बाद आया है। लिपुलेख से होकर ही मानसरोवर जाने का रास्ता है। दरअसल छह महीने पहले भारत ने अपना नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसमें जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के रूप में दिखाया गया है। इसमें लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को स्वभाकि रूप से भारत का हिस्सा बताया गया है। लिपुलेख वो इलाका है जो चीन, नेपाल और भारत की सीमाओं से लगता है। उत्तराखंड के धारचूला के पूरब में महाकाली नदी के किनारे नेपाल का दार्चुला जिला पड़ता है। महाकाली नदी नेपाल-भारत की सीमा के तौर पर भी काम करती है।

नेपाल ने पहले भी साल 2019 के नवंबर में भी भारत के समक्ष अपना विरोध जताया था। साल 2015 में जब चीन और भारत के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के लिए समझौता हुआ, तब भी नेपाल ने दोनों देशों के समक्ष आधिकारिक रूप से विरोध दर्ज कराया था। नेपाल का कहना है कि इस समझौते के लिए न तो भारत ने और न ही चीन ने उसे भरोसे में लिया जबकि प्रस्तावित सड़क उसके इलाक़े से होकर गुजरने वाली थी। इस हफ्ते जब काठमांडू में भारत विरोधी प्रदर्शन अपने चरम पर थे तो नेपाल ने बड़ा फ़ैसला किया। उसने पहली बार महाकाली नदी से लगे सीमावर्ती इलाक़े में आम्र्ड पुलिस फोर्स की एक टीम भेजी है। कालापानी से लगे छांगरू गाँव में एपीएफ ने एक सीमा चौकी स्थापित की है।

साल 1816 में ब्रिटेन व नेपाल के बीच हुई सुगौली की संधि पर हस्ताक्षर के 204 साल बाद नेपाल ने यह मुद्दा उठाया है। दो सालों तक चले ब्रिटेन-नेपाल युद्ध के बाद ये समझौता हुआ था जिसके तहत महाकाली नदी के पश्चिमी इलाके की जीती हुई जमीन पर नेपाल को अपना कब्जा छोडऩा पड़ा था। हाल ही में नेपाल के प्रधानमंत्री निवास 'बालुआटारÓ में आहूत इस सर्वदलीय बैठक में पीएम केपी शर्मा ओली ने बताया कि वे भारत द्वारा सड़क बनाए जाने की कार्यवाहियों से अनभिज्ञ थे। लेकिन सुनने में यह अजीब लगता है कि जो विवादित इलाका नेपाल की राजनीति का केंद्र बना हुआ है, वहां की गतिविधियों से ओली अनभिज्ञ थे। पुराने टेंडर देखें, तो पता चलता है कि शिपकिला-लिपुलेख दर्रे को जोडऩे वाली 80 किलोमीटर दुर्गम सड़क 2002 से निर्माणाधीन थी, इस परियोजना को 2007 में पूरा हो जाना था। मई, 2015 में प्रधानमंत्री मोदी चीन गये, उस समय लिपुलेख में एक व्यापारिक पोस्ट पर सहमति हुई। 9 जून, 2015 को नेपाल की संसद ने चीन और भारत के बीच इस मार्ग को खोले जाने पर आपत्ति की थी। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध से पहले लिपुलेख दर्रे के रास्ते चीन से भारत का व्यापार हो रहा था। 1962 में युद्ध के समय से ही यहां पर इंडो-तिब्बत बार्डर पुलिस की तैनाती भारत ने कर रखी है। नेपाल के दावे का कोई दस्तावेजी आधार नहीं है कि नेपाल की लिखित अनुमति से यहां पर इंडो-तिब्बतन बार्डर पुलिस की तैनाती हुई। 1962 के युद्ध के तीस साल बाद, 1992 में चीन और भारत ने लिपुलेख दर्रे से व्यापारिक मार्ग खोला था। कैलाश मानसरोवर जाने के लिए भी इस मार्ग का इस्तेमाल होता रहा है। प्रो. लोकराज बराल 1996 में नई दिल्ली में नेपाल के राजदूत रह चुके हैं, ने माना था कि नेपाल के पास सुगौली संधि के समय में भी नक्शा तैयार करने के संसाधन नहीं थे। नेपाल उस दौर में भी ब्रिटिश इंडिया के नक्शे पर आश्रित था। नेपाल ने पहली बार 1962 के दौर में इस इलाके में बाउंडरी की दावेदारी की थी। सितंबर, 1961 में जब कालापानी विवाद उठा था, उस समय भारत-नेपाल की तत्कालीन सरकारों ने तय किया था कि द्विपक्षीय बातचीत के आधार पर हम इसे सुलझा लेंगे। 2 दिसंबर, 1815 को सुगौली समझौते पर हस्ताक्षर हुआ था और उसे 4 मार्च, 1816 को कार्यान्वित किया गया था। कितना दिलचस्प है कि नेपाल के पास 205 साल पुराना नक्शा नहीं है। 2015 में चीन-भारत व्यापार समझौते के समय जब वे बवाल काट रहे थे, तब भी नेपाल के पास मानचित्र नहीं था। अब 2020 में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली बोल रहे हैं कि नेपाल नया नक्शा प्रकाशित करेगा। तो क्या इस नये नक्शे को दुनिया मानेगी? भारत के पक्ष में जो बात सबसे मजबूत है, वह है 1950 की संधि। साल 31 जुलाई, 1950 को हुई भारत-नेपाल संधि के अनुच्छेद आठ में स्पष्ट कहा गया है कि इससे पहले ब्रिटिश इंडिया के साथ जितने भी समझौते हुए, उन्हें रद्द माना जाए। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिंदु है, जो कालापानी के नेपाली दावों पर पानी फेर देता है।

सवाल पैदा होता है कि कमजोर एतिहासिक साक्ष्यों व दावों के बावजूद कम्यूनिस्ट शासित नेपाल ऐसे विवाद को क्यों हवा दे रहा है जिसका कोई आधार नहीं। साफ है कि नेपाल की भूमिका केवल शंख की है जिसमें फूंक चीन-पाकिस्तान मार रहे हैं। कोई गलत हरकत करने से पहले नेपाल को सौ बार सोचना चाहिए कि भारत के साथ उसके एतिहासिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक व आध्यात्मिक रिश्ते भी हैं। राजनीतिक रूप से चाहे नेपाल एक अलग देश है परन्तु सांस्कृतिक रूप से वह भारत का ही विस्तृत अंग है। चीन और पाकिस्तान के हाथों खेलने में केवल और केवल नेपाल का ही नुक्सान है।

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