डिलिस्टिंग : संविधान की पवित्र भावना के साथ कन्वर्जन का षड्यंत्र
देश भर के जनजाति लामबंद हो रहे है इस मुद्दे पर
कांग्रेस और इंदिरा गांधी ने जानबूझकर रोकी थी डिलिस्टिंग
मप्र का मालवा औऱ निमाड़ इन दिनों एक अलग ही आंदोलन से गुंजित है।डीलिस्टिंग।इस मुद्दे को लेकर धार,झाबुआ,अलीराजपुर,रतलाम बड़वानी जिलों में बड़ी बड़ी रैलियां हो रही है।40 से 44 डिग्री तक तपती दुपहरी में भी हजारों की संख्या में जनजाति समाज के लोग डिलिस्टिंग की मांग करते हुए जिला मुख्यालय पर दस्तक दे रहे हैं।जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले डिसलिस्टिंग की मांग जबरदस्त तरीके से मप्र के इस जनजाति बाहुल्य क्षेत्र में अपना प्रभाव निर्मित कर रही है।इस ज्वलंत मामले को समझने की कोशिश में प्रस्तुत है कुछ तथ्य और इसका ऐतिहासिक सन्दर्भ।
डिलिस्टिंग मतलब
जनजाति समाज की इन रैलियों में डिलिस्टिंग के पक्ष में जबरदस्त तर्क रखे जाते है।ये संवैधानिक औऱ जनजातीय परम्पराओं के अनुकूल भी है।असल में जनजाति वर्ग को विशेषाधिकार संविधान में उनके पिछड़ेपन औऱ समग्र सशक्तिकरण के लिए सुनिश्चित किये गए है।इसका आधार विशुद्ध रूप से जनजाति पहचान है।धार्मिक आधार पर संविधान किसी तरह के आरक्षण की व्यवस्था को स्पष्टता निषिद्ध करता है।डिलिस्टिंग का मामला इसी संवैधानिक प्रावधान की बुनियाद पर खड़ा है।जिसे अनुच्छेद 341 एवं 342 में परिभाषित किया गया है।
कन्वर्जन ने बिगाड़ दिया संविधान का पवित्र उद्देश्य
देश में मिशनरीज बेस्ड कन्वर्जन अभियान ने जनजाति वर्ग के लाखों लोगों को जनजाति हिन्दू से ईसाई बना दिया है।उनके नाम और उपनाम से ही स्पष्ट है कि वे अपनी जनजाति पहचान को विलोपित कर चुके है।यानी वे मूलतः जनजाति से ईसाई या मुस्लिम धर्म मे स्थानांतरित हो चुके है।भारतीय संविधान धार्मिक आधार पर किसी भी विशेषाधिकार को निषिद्ध करता है इसलिए जो लोग हिन्दू धर्म छोड़ चुके है उन्हें जनजाति का सरंक्षण असंवैधानिक ही है।
80 फीसदी आरक्षण का लाभ कन्वर्जन गैंग के पास
मप्र,झारखंड,उड़ीसा,छतीसगढ़,गुजरात समेत पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजाति वर्ग के हिस्से का 80 फीसदी फायदा कन्वर्जन के जरिये ईसाई या मुस्लिम हो चुके लोग उठा रहे है।झाबुआ के अकलेश रावत बताते है कि हमारे समाज में मिशनरीज का दखल इतना अधिक आ चुका है कि परम्पराओं के सामने भी खतरा महसूस हो रहा है।आलीराजपुर के कमलेश चौहान के गांव में अस्सी फीसद कन्वर्जन हो चुका है और गांव के आंगनवाड़ी से लेकर शिक्षक,नर्स,पटवारी ग्राम सहायक,सेल्समैन,पंचायत सचिव सभी लोग मिशनरी के साये से निकले नामधारी जनजाति है लेकिन असल में वे सभी ईसाई है।
जेवियर बने पर लाभ जनजाति का
मनावर के एक गांव में जेवियर नामक युवा अपने साथियों को यह समझा रहा है कि मिशनरीज के स्कूल,अस्पताल,हॉस्टल में जाने से कैसे उसके जैसे लोगों की जिंदगी में सब बढ़िया ही बढ़िया हो गया है।जेवियर खुद सरकारी अस्पताल में टेक्नीशियन है उसकी माँ नर्स,पिता इंदौर सरकारी बाबू है और छोटे भाई बहन भी मिशन स्कूल में पढ़ रहे हैं। जेवियर औऱ उसके परिवार ने अपने दस्तावेजों में आज भी खुद को जनजाति के रूप में कायम रखा है ताकि जनजाति वर्ग के आरक्षण का फायदा मिलता रहे।सच्चाई यह है कि जेवियर जनजाति न रहकर अब ईसाई हो चुका है और इस आधार पर वह संवैधानिक रूप से किसी भी आरक्षण का पात्र नही है।
दिल्ली में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलेंगे भगत
राष्ट्रीय जनजाति सुरक्षा मंच के संयोजक गणेशराम भगत छत्तीसगढ़ के सक्रिय सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता है उन्होंने ही इस मंच के माध्यम से डिलिस्टिंग की मांग को राष्ट्रव्यापी फलक पर पुनः मुखर किया है।30 अप्रैल को मंच का प्रतिनिधि मंडल दिल्ली में देश के राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री औऱ गृह मंत्री से मिलकर इस मामले में संसदीय हस्तक्षेप की मांग करने वाला है।
अनुच्छेद 341 में हो चुका है संशोधन 342 क्यों अछूता?
संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति और 342 में जनजाति के सरंक्षण एवं आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 1956 में अनुसूचित जाति प्रावधान में डिलिस्टिंग जोड़ दिया गया यानी कोई भी अजा सदस्य अपनी पहचान (हिन्दू) छोड़कर अन्य धर्म मे जाता है तो उसे 341 के सरंक्षण से वंचित होना पड़ता है। बाद में इसमें हिन्दू के साथ सिख औऱ बौद्ध भी जोड़ दिए गए।लेकिन जनजाति मामले में 342 पर अभी तक ऐसा प्रावधान नही जोड़ा गया।इसी का फायदा उठाकर देश भर में मिशनरीज औऱ जिहादी तत्वों ने कन्वर्जन का पूरा तंत्र खड़ा कर लिया है।
बाबा कार्तिक उरांव ने 1967 में पेश किया था डिलिस्टिंग प्रस्ताव
डिलिस्टिंग का मुद्दा आज का नही है।देश के पूर्व नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री रहे कार्तिक उरांव ने 70 के दशक में ही इस पहचान के संकट को समझ लिया था। कार्तिक उरांव अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। 1967 में उन्होने कांग्रेस की टिकट पर लोहरदगा (झारखंड)से चुनाव लड़ा और सांसद बने। 1977 की जनता लहर का अपवाद छोड़ दें, तो अपनी मृत्यु (1981) तक वे लोहरदगा का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करते रहे। 8 दिसंबर 1981 को संसद भवन में ही दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।
1969 में संसदीय समिति डिलिस्टिंग की अनुशंसा कर चुकी है
उरांव वनवासियों के ईसाई कन्वर्जन से क्षुब्ध थे। इसलिए 1967 में संसद में उन्होने अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक प्रस्तुत। इस विधेयक पर संसद की संयुक्त समिति ने बहुत छानबीन की और 17 नवंबर 1969 को अपनी सिफारिशें दीं। उनमें प्रमुख सिफारिश यह थी कि कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।
अर्थात कन्वर्जन करने के पश्चात उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। संयुक्त समिति की सिफारिश के बावजूद, एक वर्ष तक इस विधेयक पर संसद में बहस ही नहीं हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर ईसाई मिशन का जबरदस्त दबाव था कि इस विधेयक का विरोध करें। ईसाई मिशन के प्रभाव वाले 50 संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी को पत्र दिया कि इस विधेयक को खारिज करे।
348 सांसदों की मांग खारिज कर दी थी इंदिरा गांधी ने
कांग्रेस में रहते हुए इस मुहिम के विरोध में अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर कार्तिक उरांव ने 322 लोकसभा सदस्य और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षरों का एक पत्र इंदिरा गांधी को दिया, जिसमें यह जोर देकर कहा गया था की वे विधेयक की सिफारिशों का स्वीकार करें, क्योंकि यह तीन करोड़ वनवासियों के जीवन - मरण का प्रश्न हैं। किंतु ईसाई मिशनरियों का एक प्रभावी अभियान पर्दे के पीछे से चल रहा था।नतीजतन विधेयक ठंडे बस्ते में पटक दिया गया।
ईसाई लॉबी के आगे झुकी रही सरकार
16 नवंबर 1970 को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस शुरू हुई। इसी दिन नागालैंड और मेघालय के ईसाई मुख्यमंत्री दबाव बनाने के लिए दिल्ली पहुंचे। मंत्रिमंडल में दो ईसाई राज्यमंत्री थे। उन्होंने भी दबाव की रणनीति बनाई। इसी के चलते 17 नवंबर को सरकार ने एक संशोधन प्रस्तुत किया की संयुक्त समिति की सिफारिशें विधेयक से हटा ली जाय।
इंदिरा गांधी ने बीच मे रुकवा दी लोकसभा में बहस
बहस के दिन सुबह कांग्रेस ने एक व्हीप अपने सांसदों के नाम जारी किया, जिसमें इस विधेयक में शामिल संयुक्त समिति की सिफारिशों का विरोध करने को कहा गया था। कार्तिक उरांव, संसदीय संयुक्त समिति की सिफारिशों पर 55 मिनट बोले। वातावरण ऐसा बन गया, की कांग्रेस के सदस्य भी व्हीप के विरोध में, संयुक्त समिति की सिफारिशों के समर्थन में वोट देने की मानसिकता में आ गए।अगर यह विधेयक पारित हो जाता, तो वह एक ऐतिहासिक घटना होती..! स्थिति को भांपकर इंदिरा गांधी ने इस विधेयक पर बहस रुकवा दी और कहा की सत्र के अंतिम दिन, इस पर बहस होगी। किंतु ऐसा होना न था। 27 दिसंबर को लोकसभा भंग हुई और कांग्रेस द्वारा वनवासियों के कन्वर्जन को मौन सहमति मिल गई!
कन्वर्जन को लेकर मुखर रहते थे कार्तिक उरांव
कार्तिक उरांव, कन्वर्जन संबंधी सभी बातों को लेकर काफी मुखर रहते थे। वनवासी कल्याण आश्रम के बाला साहब देशपांडे से उनका जीवंत संपर्क था और यही कांग्रेस को खटकता था। कार्तिक उरांव ने विभिन्न कार्यक्रमों में वनवासियों से कहा था कि ईसा से हजारों वर्ष पहले वनवासियों के समुदाय में निषादराज गुह, माता शबरी, कण्णप्पा आदि हो चुके हैं, इसलिए हम सदैव हिंदू थे और हिंदू रहेंगे।
हम हिंदू पैदा हुए और हिंदू ही मरेंगे
जीवन के अंतिम वर्षों में कार्तिक उरांव ने साफ कहा था, हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, विजया दशमी, राम नवमी, रक्षाबंधन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली.... हम सब धूमधाम से मनाते हैं। ओ राम... ओ राम... कहते-कहते हम उरांव नाम से जाने गए। हम हिंदू पैदा हुए, और हिंदू ही मरेंगे।
आज झाबुआ में जुटेंगे 50 हजार वनवासी
30 अप्रैल को जनजाति सुरक्षा मंच के आह्वान पर झाबुआ में डिलिस्टिंग रैली में पचास हजार जनजाति समाज जुटने वाला है।इससे पूर्व आलीराजपुर,धार,मनावर,बड़बानी,सेंधवा,रतलाम,मंडला,डिंडोरी,में भी ऐसे ही समागम हो चुके हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़,झारखंड ,ओडिसा में भी जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले लाखों जनजाति वर्ग के लोग डिलिस्टिंग के लिए लामबंद हो रहे है।
कन्वर्जन औऱ जनजाति आरक्षण का गणित
एक स्वतंत्र शोध जिसे मंच के कार्यकर्ताओं ने किया है उसके निष्कर्ष बताते है कि कार्तिक उरांव जो चिंता सत्तर के दशक में अधोरेखित कर रहे थे वह 70 साल में कितनी विकराल हो चुकी है। स्वास्थ्य क्षेत्र में कुल जनजाति प्रतिनिधित्व का 67 फीसदी ईसाई और अन्य धर्म मे जा चुके लोग कर रहे है। शिक्षा क्षेत्र में करीब 69 प्रतिशत आरक्षण का लाभ जनजाति की आड़ में मिशनरीज के जरिये कन्वर्जन कर चुके लोग उठा रहे है। राजस्व,लोकनिर्माण,लोकस्वास्थ्य यांत्रिकीय,चिकित्सा शिक्षा,तकनीकी शिक्षा,ग्रामीण विकास एवं पंचायत राज जैसे मैदानी महकमों में एक अनुमान के अनुसार 70 प्रतिशत तक ईसाई ,मुस्लिम मत में जा चुके लोग जनजाति कोटे के लाभ ले रहे हैं।
सरकार ला सकती है 342 में संशोधन
ईसाई लॉबी के दबाब में भले ही इंदिरा गांधी ने कार्तिक उरांव औऱ 348 सांसदों की अनसुनी कर दी हो लेकिन अब जिस तरह से डिलिस्टिंग का मामला देश भर में उठ खड़ा हुआ है उसके दृष्टिगत संभावना बलबती है कि मोदी सरकार अनुच्छेद 342 में डिलिस्टिंग के लिए संवैधानिक संशोधन लेकर आये।