भारत में इस्लामी कट्टरता के नए संकेत
देश में एक साथ संयोग से दो घटनाएं घटी हैं और इन घटनाओं में से एक ने बहुत साफ बता दिया है कि भारत में फिर से इस्लाम समय बीतने के साथ संकट के रूप में सामने आ सकता है। वस्तुत: आज जो यह एक नई तरह की शुरूआत हो रही है, उसे यहीं नहीं रोका गया तो भविष्य के भारत को लेकर सिर्फ इतना ही अभी कहा जा सकता है कि उसमें दंगे, दंगे, दंगे और मानवाधिकारों का हनन होता ही सर्वत्र दिखाई देगा। भारत सन् 1946-47 से अधिक खतरनाक स्थिति में पहुंच जाएगा।
धर्मनिरपेक्ष भारत में न्यायालय जाकर यह मांग करना कि बहुसंख्यक मुस्लिम क्षेत्र में मंदिर का जुलूस नहीं निकलना चाहिए, इससे हमारी धार्मिक मान्यताएं एवं भावनाएं आहत होती हैं, अपने आप में किया गया यह प्रयोग बता रहा है कि आज हम कहां आकर खड़े हैं? इस एक मांग से भविष्य के भारत का संकेत अभी से समझा जा सकता है, जिसमें कि इस्लाम अपने फिर उसी रवैए को प्रदर्शित कर रहा है, जिसने कभी भारत विभाजन कराया।
यहां समझनेवाली बात यह है कि भारत एक संप्रभु धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य है । भारतीय संविधान से प्रदत्त मौलिक अधिकार अपने हर नागरिक को यह स्वतंत्रता देते हैं कि समता या समानता में (अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 18) सभी राज्य के लिए समान होंगे, वह किसी के साथ भेद नहीं करेगा। स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22) यह सुनिश्चित करता है कि किसी की भी स्वतंत्रता राज्य के स्तर पर बाधित नहीं की जाएगी। शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24) सभी को समान रूप से दिया गया है। जिसमें यदि किसी के साथ गलत होता है तो वह अपनी आवाज बुलंदी के साथ उठा सकता है, इसमें उसे राज्य का प्रश्रय एवं सहायता मिलेगी।
वस्तुत: इतना ही नहीं देश का प्रत्येक नागरिक अपनी इच्छा से अपने धर्म का पालन करेगा, उसे किसी से भयभीत नहीं होना है, राज्य की नजर में सभी धर्म समान हैं, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) यही कहता है। संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30)में कहा गया है कि सभी राज्य की दृष्टि से समान हैं और मौलिक अधिकारों में संवैधानिक अधिकार (अनुच्छेद 32) जिसे 'संवैधानिक उपचारों का अधिकार' भी कहा जाता है को लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यहां तक कहा है कि यह भारतीय संविधान की आत्मा है। कहना होगा कि एक नागरिक के तौर पर आपके एक देश में क्या अधिकार होने चाहिए वह सभी कुछ भारतीय संविधान में बहुत ही स्पष्ट रूप से मौलिक अधिकारों के वर्णन में बता दिया गया है ।
भारत के एक राज्य तमिलनाडु में लेकिन यह क्या हो रहा है? पेरंबलुर जिले में वी कलाथुर मुस्लिम बहुल इलाका है, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं। यहाँ का बहुसंख्यक समुदाय हिंदू मंदिरों से जुलूस या भ्रमण निकालने का लंबे समय से विरोध कर रहा है। हिन्दुओं के तीन मंदिर दशकों से मिलकर अपना त्यौहार मनाते आए हैं। 2011 तक लगातार यह उत्सव मनाया जाता रहा, 2012 में यहां मुसलमानों ने इसका विरोध तेज कर दिया। इन इस्लामी कट्टरपंथियों ने हिन्दू त्योहारों को 'पाप' करार दे रखा है। इसी को लेकर मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई।
वस्तुत: यहां इस्लाम का साफ संकेत है, जहां हम बहुसंख्यक होंगे, वहां हिन्दू या अन्य पंथ का कोई है तो उसके नियम हम इस्लामपंथी ही तय करेंगे। कहने को यह चैन्नई के एक जिले के एक छोटे से गांव की सामान्य सी दिखनेवाली घटना हो सकती है, किंतु बात इतनी छोटी नहीं, यह एक सोच एवं प्रवृत्ति को दर्शा रहा है। यह आनेवाले दिनों का खतरनाक संकेत भी है। कभी जो बड़े स्तर पर आजाद भारत के कश्मीर में घटता दिखा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, हरियाणा सहित देश के तमाम राज्यों में समय-समय पर जो दिखता है। अभी पश्चिम बंगाल में सीधे तौर पर राजनीतिक हिंसा के नाम पर जो मौत का खेल खुलेआम खिलता दिख रहा है।
सोचने वाली बात यह है कि हमारे न्यायालय यदि सचेत ना रहें तो क्या हो? पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों की तरह हिन्दुओं का सफाया? पश्चिम बंगाल में बहुसंख्यक मुस्लिम क्षेत्रों में सरकार की परस्ती के चलते हिन्दुओं का पलायन, कत्लेआम जैसे आज दृष्य आम बात हो गई है। उत्तर प्रदेश के कैराना जैसे भी देश में कई इलाके हैं जहां मुस्लिमों का बहुमत दूसरों को टिकने नहीं देता। इसे हम इस रूप में भी देखें कि आज यदि यह घटना किन्हीं मुसलमानों के साथ अल्पसंख्यक होने पर घट रही होती तो क्या होता? तब जरूर देश में संविधान की हत्या हो जाती। देश भर में कोहराम मचा दिया जाता। वहीं, बहुसंख्यक हिन्दू के साथ अत्याचार होता है तो जैसे सभी चुप्पी साध लेते हैं ।
वस्तुत: यहां मद्रास हाई कोर्ट के आए निर्णय को बहुत ही गौर से समझना होगा। न्यायालय ने धार्मिक असहिष्णुता को देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए खतरनाक बताया है। कोर्ट ने कहा कि अगर एक पक्ष से संबंधित धार्मिक त्योहारों के आयोजन का विरोध दूसरे धार्मिक समूह द्वारा किया जाता है, तो इससे दंगे और अराजकता फैल सकती है। न्यायालय कहता है कि केवल इसलिए कि एक धार्मिक समूह विशेष इलाके में हावी है, इसलिए दूसरे धार्मिक समुदाय को त्योहारों को मनाने या उस एरिया की सड़कों पर जुलूस निकालने से नहीं रोका जा सकता है। अगर धार्मिक असहिष्णुता की अनुमति दी जाती है, तो यह एक धर्मनिरपेक्ष देश के लिए अच्छा नहीं है।
न्यायालय ने तर्क दिया कि अगर इस तरह के मामलों को स्वीकार किया गया, तो कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय देश के ज्यादातर हिस्सों में अपने त्योहारों को मना ही नहीं पाएगा। देश में इस तरह के विरोध से धार्मिक लड़ाई झगड़े बढ़ेंगे, दंगे भड़केंगे, जिसमें जानें जाएँगी। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और केवल इसलिए कि एक विशेष इलाके में एक धार्मिक समूह बहुसंख्यक है, अन्य धर्म के लोगों को त्योहार मनाने या जुलूस निकालने से नहीं रोका जा सकता।
इसी समय में दूसरी एक खबर अयोध्या से आई है । यहां हिन्दू बहुल गांव राजनपुर ने अपने लिए उसे सरपंच चुना है जो हाफिज अजीमुद्दीन वर्षों तक मदरसे में शिक्षक रहे। अयोध्या के रुदौली विधानसभा क्षेत्र में पड़ने वाले इस गांव में छह उम्मीदवारों के बीच वे इकलौते मुसलमान थे । गांव में कुल 27 मुस्लिम और 600 से अधिक हिन्दू मतदाता हैं, लेकिन लोगों ने मजहब की दीवार गिराकर उन्हें सरपंच चुना। इसके मायने भी सभी को समझ आ जाने चाहिए।
वस्तुत: यही वह सोच का अंतर है। जिसे आज सभी को समझने की जरूरत है। भारत को यदि आगे भी भारत बने रहने देना है तो संविधान के दायरे में रहकर इन तमाम कट्टरपंथियों को समझाना होगा कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर पहले ही हो चुका है, अब और विभाजनकारी विचार स्वीकार्य नहीं। पंथ और सम्प्रदाय भले ही अलग हो सकते हैं, किंतु देश के लिए उसके नागरिक सभी समान हैं। इसलिए सभी के हक और राज्य के प्रति कर्तव्य एक समान हैं। धर्म का विभेदीकरण सिर्फ तोड़ने का काम ही करता है, जिसकी सजा 47 से हम आज भी भुगत रहे हैं। आप अल्लाह को मानो या हम शिव को, क्या फर्क पड़ता है, पहले हम भारतवासी हैं। ये कट्टरता जितनी जल्दी छोड़ें उतना ही अच्छा है, अन्यथा कट्टर लोगों की कमी किसी भी पंथ, संप्रदाय में कमतर नहीं है।
लेखक : डॉ. मयंक चतुर्वेदी, फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं ।