40 हजार एनजीओ और 1.26 लाख करोड़ का सीएसआर!

40 हजार एनजीओ और 1.26 लाख करोड़ का सीएसआर!
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  • कारपोरेट मंत्रालय के मुताबिक कुल सीएसआर फंड का 60 फीसदी हिस्सा कार्यकरण एजेंसियों यानी एनजीओ के माध्यम से खर्च किया गया
  • डॉ अजय खेमरिया

वेबडेस्क। भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसविलिटी को कानूनन अनिवार्य बनाया गया है। यह कानून व्यापारिक गतिविधियों से अर्जित धनलाभ में से कुछ भाग को सामाजिक रूप से व्यय करने के प्रावधान करता है। 01 अप्रैल 2014 से यह कानून लागू है। आज लगभग एक दशक बाद इस कानून और इसके क्रियान्वयन के अनुभवों पर विचार करने की आवश्यकता है। यह कानून हमारे हजारों साल पुराने जीवन दर्शन की बुनियाद पर खड़ा है जहां दान और परोपकार का उद्देश्य समाज के वास्तविक जरूरतमन्दों के लिए विकास औऱ उत्कर्ष के लिए अवसरों को सुनिश्चित किया जाता रहा है।

सीएसआर कानून सिर्फ भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होता है बल्कि वह सभी विदेशी कंपनियों पर लागू होता है जो भारत में कार्य करती हैं। कानून के अनुसार, एक कंपनी को जिसका सालाना नेटवर्थ पांच सौ करोड़ रुपए या उसका सालाना इनकम एक हजार करोड़ रुपए या उनका वार्षिक प्रॉफिट 5 करोड़ का हो तो उनको सीएसआर पर खर्च करना जरूरी होता है। यह जो खर्च होता है उनके 3 साल के औसत लाभ का कम से कम दो प्रतिशत तो होना ही चाहिए। 2014 से 2021 की काल अवधि में इस कानून के तहत 126938 करोड़ रुपये धन एकत्रित हुआ जो निजी औद्योगिक घरानों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से जारी किया गया।जाहिर है सवा लाख करोड़ से ज्यादा की यह रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्क्रति, आधारभूत विकास, पोषण, ग्रामीण विकास सामाजिक न्याय जैसे विहित क्षेत्रों में खर्च हुई है। इस धन खर्ची के विश्लेषण और नीतिगत बदलाव की आवश्यकता इस समय इसलिए महसूस की जा रही है योंकि देश में इस राशि का वितरण असमान है। तुलनात्मक रूप में ज्यादा वास्तविक जरूरतमंद क्षेत्रों के लिए इससे कोई खास फायदा नहीं मिल पा रहा है। बेशक कानून इस राशि के व्यय हेतु औद्योगिक इकाइयों के स्थानीय क्षेत्रों को प्राथमिकता देता है लेकिन यह भी तथ्य है कि भारत में समग्र विकास की गति भौगोलिक रूप से बहुत असमान है।

महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, हरियाणा जैसे राज्य विकास के लगभग सभी संकेतकों पर उत्तर भारत के अन्य राज्यों से अभी भी अग्रणी बने हुए हैं।सीएसआर की धन खर्ची के आंकड़े इस असमान विकास को कम करने के स्थान पर बढाते हुए नजर आ रहे हैं। अब तक व्यय की गई कुल सीएसआर राशि में 40 फीसदी तो केवल सात राज्यों में ही खर्च हुई है। इसमें पैन इंडिया यानी एक साथ हुए देश व्यापी आबंटन को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 60 तक जाता है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में 4023 करोड़, महाराष्ट्र 18605, गुजरात 6221, कर्नाटक 7160, तमिलनाडु 5437, आंध्र प्रदेश 5100 एवं तेलंगाना में 2500 करोड़ की राशि सीएसआर से 2014 से अब तक व्यय की जा चुकी है। ये ऐसे राज्य हैं जहां औद्योगिक विकास के साथ मानवीय दृष्टि से भी जीवन स्तर समेत अन्य संकेतक देश के अन्य राज्यों से बेहतर हैं। इन राज्यों की कुल आबादी भी खर्च के अनुपात में समान नहीं है। बिहार, मप्र, छतीसगढ़, उड़ीसा या पूर्वोत्तर के राज्यों में आधारभूत विकास से लेकर सामाजिक रूप से निवेश की आवश्यकता आज भी अत्यधिक है लेकिन तथ्य यह कि 22 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में गुजरात की तुलना में आधा यानी 3288 करोड़ का फंड ही मिल सका। इसी तरह बिहार में तो यह आंकड़ा मात्र 691 करोड़ ही हो पाया है। कमोबेश मप्र 1149, छत्तीसगढ़ में 1385, बंगाल में 2487, झारखंड में यह आंकड़ा 873 करोड़ ही है। जाहिर है बड़े औद्योगिक घराने या सेवा क्षेत्र की कपनियां पहले से विकसित राज्यों में पहले तो अपनी इकाइयों की स्थापना के साथ स्थानीय रोजगार की उपलधता बढ़ाती हैं फिर सीएसआर की बड़ी राशि भी स्थानीय स्तर पर खर्च करती हैं।

दूसरी तरफ यूपी, बिहार, मप्र जैसे राज्य लाख प्रयासों के बाद राज्य के लिए औद्योगिक निवेश नही ला पाते है ऐसे में सीएसआर के लिए इन राज्यों को इस कोटे के अखिल भारतीय आबंटन पर निर्भर रहना पड़ता है जो बहुत ही कम होता है। सरकार ने कुछ संशोधन कर सीएसआर मद से रिसर्च और डेवलपमेंट को भी जोड़ा है लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस काम दिखाई नही दे रहा है। एक और विसंगति यह है कि बड़े औद्योगिक घरानों ने अपने प्रभाव वाले एनजीओ एवं ट्रस्ट खड़े कर लिए है जिनमें यूनिवर्सिटीज अस्पताल और कौशल विकास केंद्र भी संचालित किए जा रहे हैं। यह एक तरह से केवल धन का डायवर्जन भर है। बेहतर होगा सरकार सीएसआर के लिए कुछ बड़े बुनियादी बदलाब सुनिश्चित करे।

मसलन कुल धन का 75 फीसदी तो अभी तक शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी पर खर्च हुआ है इन तीनों क्षेत्रों में सभी सरकारें भी पिछले 75 साल से पानी की तरह पैसा खर्च कर रही है। सीएसआर की राशि का इन क्षेत्रों में व्यय किया जाना असल में दोहराव भर लगता है। अच्छा होगा कि एक नियामक निकाय सीएसआर के लिए खड़ा किया जाए देश भर की सीएसआर राशि एक स्थान पर संकलित हो। इस राशि के खर्च हेतु एक विशेषज्ञ पैनल जनप्रतिनिधियों, सिविल सोसायटी, अफसरों को मिलाकर बनाया जाए। यह नियामक तंत्र धन के समान वितरण के अलावा सीएसआर से ऐसी आधारभूत संरचनाओं का निर्माण सुनिश्चित करे जो वैशिष्ट्य प्रमाणित करते हों। यानी हर जिले में एक कौशल विकास केंद्र बनाया जाए जिसमें रिलांयस जिओ अपनी सेवाएं दे, लार्सन एंड टुब्रो भवन एवं अन्य सिविल निर्माण, इंफोसिस साटवेयर और यूनीलीवर जैसी कंपनियां मार्केटिंग की ट्रेनिग दें। यानी एक अंब्रेला बनाकर स्थायी प्रकृति की परिणामोन्मुखी गतिविधि सीएसआर से खड़ी की जा सकती हैं बनिस्बत शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी पर पहले से चली आ रही योजनाओं में शामिल होकर सरकारी ढर्रे का हिस्सा बना जाए। इसी तर्ज पर फूड प्रोसेसिंग,ऑटोमोबाइल जैसे प्रयोग अमल में लाये जा सकते हैं।

यह प्रयोग जनभागीदारी से भी चलाये जा सकते है और नीतिगत स्तर पर देश के हर जिले को इस कानून के दायरे में लाकर विकास और सामाजिक कल्याण दोनों के लक्ष्यों को चरणबद्ध तरीके से साधा जा सकता है। शोध और विकास के लिए मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों के अलावा विश्विद्यालय स्तर पर इकाई बनाकर काम किया जा सकता है। केंद्रीय स्तर पर बनाये गए नियामक तंत्र को ही इस फंड के वितरण एवं इसके प्रभाव, मूल्यांकन तथा निगरानी का जिमा दिया जाना चाहिए। अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है तो नि:संदेह जिस उद्देश्य से सीएसआर कानून बनाया गया है उसके ठोस नतीजे देश के लिए हितकारी साबित होंगे। वरन मौजूदा अनुभव बड़ी मात्रा में इस फंड के दुरूपयोग,चालक विनियोजन एवं बदनाम एनजीओज के हितपूर्ति को प्रमाणित कर रहे हैं।

कारपोरेट मंत्रालय के एक डेटा के मुताबिक कुल सीएसआर फंड का 60 फीसदी हिस्सा कार्यकरण एजेंसियों यानी एनजीओज के माध्यम से खर्च किया गया है। सीएसआर रजिस्ट्री के पास फिलहाल 38199 कार्यकरण एजेंसियों के रजिस्ट्रेशन हैं। गौर करने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार के पास कार्यकरण एजेंसियों के राज्य/संघ स्तर पर कोई डेटा संधारित्र नहीं किया जाता है यानी इस भारी भरकम राशि को किन एनजीओज द्वारा खर्च किया जा रहा है इसका भी प्रमाणिक लेखा जोखा का

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