अखंडता दिवस और भारत विभाजन का कड़वा सच
भाग 1
14 अगस्त 1947 को भारतीय पुण्यभूमि खंडित हुई उस खंडित भूमि का नाम पाकिस्तान पड़ा । दो साल पहले 14 अगस्त को भारत सरकार ने फैसला किया कि वह अब हर साल 14 अगस्त को भारत के विभाजन की त्रासदी को लेकर स्मृति दिवस पर अखंडता दिवस मनायेगी। भारत विभाजन की विभीषिका इतनी गहरी थी जिसकी कल्पना भी उन लोगों के आज भी रोंगटे खड़े कर देती है जिन्होंने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष जिनके परिजनों ने विभाजन की विभीषिका को देखा था, सुना है और झेला था । कहा जाता है बड़े लोग जब गलती करते है या उनसे महत्वपूर्ण निर्णयों के आकलन में गलती होती है तो उसका दुष्परिणाम भी बहुत व्यापक और लंबे कालखंड के लिये होता है। विभाजन की भूमिका का बीज सबसे पहले 1909 में मारले मिंटो सुधार के तहत विधान परिषदों में मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन अधिनियम में पड़ा था।
पहले कांग्रेस ने इसका प्रखर विरोध किया लेकिन 1916 में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौते में स्वीकार कर लिया । यही से कांग्रेस ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेक कर साम्प्रदायिकता की सैद्धांतिक स्वीकृत दे दी और फिर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे भारत के खंडित होने तक लगातार झुकती रही । इतिहास के आईने में जब देखे तो पाते है कि 1920 में असहयोग आंदोलन में तुर्की के अपदस्थ खलीफा के समर्थन में खिलाफत को भी इस आंदोलन में गांधी जी के प्रभाव में जोड़ दिया गया।जिसका भारतीय भूमि से कोई लेना देना नही था । इंदुलाल याज्ञिक ने अपनी किताब 'गांधी एज आई न्यू हिम' के पेज 129 में लिखा कि "हमने गांधी जी यह सौदा कभी नही किया था कि हम उनके साथ किसी धार्मिक या अर्ध धार्मिक राजनैतिक आंदोलन में शामिल होंगे।" आंदोलन की समाप्ति के बाद पूरे देश के छोटे बड़े शहरों में दंगे हुए।
मालाबार में तो मुस्लिम मोपलाओं ने हिंदुओ का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया। कांग्रेस कार्यसमिति में इस कुकृत्य की खुलकर निंदा तक नही हुईं । आंबेडकर ने अपनी किताब 'पाकिस्तान औऱ भारत विभाजन ' के पेज 148 में लिखा कि महात्मा गांधी ने नरसंहार करने वाले मोपलाओं के बारे में कहा कि" मोपला धर्मभीरु वीर लोग है जो उनके विचार से धर्म सम्मत है।" पाकिस्तान के हिंदुओ ने सिंध को तत्कालीन बम्बई प्रान्त से अलग न करने की मांग को लेकर गांधी से कहा ऐसा करने से वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे उनके जीवन पर पहले से अधिक खतरा हो जाएगा। इस पर गांधी जी ने 10 फरबरी 1940 के अपने हरिजन समाचार पत्र के द्वारा कहा कि" हिंदुओ को अपनी जानमाल की हिफाजत करने का तरीका खुद खोजना होगा। " नतीजा सिंध, बंबई प्रान्त से अलग हुआ और सिंध में हिंदू समुदाय अल्पसंख्यक हो गए । उन पर हमलों की संख्या में जबरदस्त बढोत्तरी हुई। इसमें कोई शक नही कि गांधी ने खेड़ा, चंपारण, असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन के द्वारा भारतीय जन समुदाय को स्वतंत्रता की चेतना से जोड़ दिया परन्तु साम्प्रदायिकता के आगे वह लगातार घुटना टेकते रहे । जिससे मुस्लिम लीग को ताकत मिलती गयी और वह लगातार मजबूत होती चली गई। जाने माने इतिहासकार विपिन चंद्रा जिन्हें आमतौर पर गांधीवादी इतिहासकार माना जाता है उन्होंने अपनी किताब 'भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' में गाँधी युग की कांग्रेस पर साम्प्रदायिकता से लड़ने में असफल बताकर कांग्रेस की खुलकर आलोचना की। उन्होंने अपनी किताब भारत का स्वतंत्रता संग्राम में 353, 387,395 पेज पर लिखा कि " कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता से संघर्ष नही किया और उसके मूल कारणों को नही समझा जिससे मुस्लिम लीग और जिन्ना मजबूत होते गए। कांग्रेस स्वतंत्रता की चेतना का प्रसार तो कर सकी परन्तु राष्ट्र से नही जोड़ सकी खासकर मुसलमानों को । यह कांग्रेस की बड़ी कमजोरी थी।
"भारतीय भूभाग को अलग होने और पाकिस्तान बनने की प्रक्रिया कुछ दिनों में पूरी नही हुई यह लंबे कुटिल ,कुत्सित प्रयासों और राष्ट्रवादी विचारों की दीर्घकालीन असफलताओं के चलते हुआ है। अविभाजित भारत लाहौर के रहने वाले प्रोफेसर ए एन बाली जिन्होंने खुद अपनी आंखों से बटवारे को देखा था । उन्होंने बंटवारे के पीछे की कुटिलताओं और राष्ट्रीय असफलताओं को भी अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने बंटवारे पर 'नाउ इट कैन बी टोल्ड' नामक पुस्तक लिखी है। उन्होंने अपनी इस किताब के पेज 34 में लिखा कि " कैसे लाहौर जो कि हिन्दू बाहुल्य 1941 तक था । मुस्लिम लीग ने एक हिन्दू पार्षद के वोट के चलते लाहौर नगर निगम में बहुमत प्राप्त कर नगर निगम द्वारा ग्रामीण मुस्लिम इलाकों को मिलाकर लाहौर को मुस्लिम बाहुल्य बना दिया था । इन सब देशघाती घटनाओं की जानकारी इसलिए आवश्यक है क्योकि फिर कभी भारत माता को 14 अगस्त 1947 जैसा दिन देखना न पड़े।
लेखक - मुनीष त्रिपाठी, पत्रकार, इतिहासकार और साहित्यकार है।