अमृत महोत्सव : क्योंकि स्वयंसेवक है तो हम इनकी चर्चा न करेंगे…

अमृत महोत्सव : क्योंकि स्वयंसेवक है तो हम इनकी चर्चा न करेंगे…
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दादा नाइक, अण्णा साहेब, बसन्त ओक, कस्तूरे और किशन राजपूत

स्वाधीनता आंदोलन के विमर्श को 75 साल तक एक ही चश्में से देखने के लिए हमारी पीढ़ियों को बाध्य करके रखा गया है। एक पार्टी एक परिवार और एक दुराग्रही द्रष्टि ने इस कार्य को सुनियोजित तरीके से राजकीय सुविधाओं की आड़ में स्थापित किया है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वाधीनता में भाग नही लिया।राष्ट्रध्वज को अधिमान्यता नही दी।सावरकर और गोडसे को संघ के साथ संयुक्त कर एक नकली नैरेटिव खड़ा किया गया और सफलतापूर्वक चलाया भी गया।पिछले कुछ बर्षों में इस झूठ के बेनकाब होने का सिलसिला भी प्रमाणिकता के साथ विमर्श नवीसी में स्थान बना रहा है।

इतिहास की दूषित दृष्टि आज परिष्कृत होकर सत्य का भान करा रही है। संघ के स्वयंसेवकों ने देश भर में स्वाधीनता समर में यथाक्षमता योगदान दिया है यह आज स्पष्ट हो रहा है। राष्ट्रीय ध्वज के लिए पहला बलिदान भी संघ के स्वयंसेवक के नाम है।

सिद्धार्थ शंकर गौतम द्वारा लिखित इस आलेख में हम ऐसे ही कुछ संघ पदाधिकारी गणों और स्वयंसेवकों को याद करने की कोशिस कर रहे है

गाँधीजी ने 'अंग्रेजों, भारत छोड़ो' की घोषणा की। चिमूर में आंदोलन का नेतृत्व संघ अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास आदि ने किया। इस आन्दोलन में अंग्रेजों की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर की हुई जो संघ के स्वयंसेवक थे। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया।

भारत भर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वप्रेरणा से अपना योगदान दे रहे थे। राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, जो बाद में विद्या भारती में सक्रिय रहे, आर्वी (विदर्भ) में डॉक्टर अण्णासाहब देशपांडे, जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, जिन्होंने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की, दिल्ली में श्री वसंतराव ओक जो बाद में दिल्ली के प्रान्त प्रचारक रहे, बिहार (पटना) में प्रसिद्ध वकील कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) जो बाद में बिहार के संघचालक रहे, दिल्ली में ही श्री चंद्रकांत भारद्वाज, जिनके पैर में गोली धंसी और जिसे निकाला नहीं जा सका, पूर्वी उत्तर प्रदेश में माधवराव जी जो बाद में प्रान्त प्रचारक बने, उज्जैन (मध्य प्रदेश) में दत्तात्रेय गंगाधर (भैयाजी) कस्तूरे जो बाद में संघ प्रचारक हुए; जैसे असंख्य संघ स्वयंसेवकों में स्वाधीनता संग्राम में अपनी भूमिका का निर्वहन किया जिसे षड्यंत्रपूर्वक व एक ही परिवार के त्याग को सर्वोच्च ठहराने की जिद ने बिसरा दिया।

अब चूँकि उपरोक्त सभी गतिविधियाँ तिरंगे की आन-बान-शान के लिए ही हुई थीं अतः यह कहना कि संघ ने स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं लिया अथवा तिरंगे का सम्मान नहीं किया, ओछी मानसिकता का प्रतीक है। दिल्ली के विज्ञान भवन में सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत ने त्रिदिवसीय व्याख्यानमाला ने तिरंगे पर उठते सवाल का उत्तर देते हुये एक घटना बताई थी। उन्होंने बता था कि फैजपुर के कांग्रेस अधिवेशन में 80 फीट ऊँचे ध्वज स्तम्भ पर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगा झंडा फहराया। जब उन्होंने झंडा फहराया तो वह बीच में अटक गया।

ऊंचे पोल पर चढ़कर उसे सुलझाने का साहस किसी का नहीं था। तभी एक तरुण भीड़ में से दौड़ा और ध्वज स्तम्भ पर चढ़कर उसने रस्सियों की गुत्थी सुलझाई तथा ध्वज को ऊपर पहुंचाकर नीचे आ गया। पूरा प्रांगण तालियों से गूंज उठा।

वहाँ उपस्थित जनसमूह ने तरुण को अपने कंधे पर उठा लिया और नेहरू जी के पास ले गये। नेहरू जी ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि तुम शाम को अधिवेशन में आओ, तुम्हारा अभिनंदन करेंगे। तभी कांग्रेस से कुछ नेता आए और उन्होंने नेहरू जी से कहा कि इसे मत बुलाइये, यह शाखा में जाता है। और नेहरू जी ने तरुण को नहीं बुलाया। यह तरुण जलगांव में फैजपुर में रहने वाले श्री किशन सिंह राजपूत थे।

डॉक्टर हेडगेवार जी को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने उस स्वयंसेवक को एक छोटा-सा चांदी का लोटा पुरस्कार रूप में भेंट देकर उसका अभिनंदन किया। 31 दिसम्बर, 1929 की अर्द्धरात्रि को रावी नदी के तट पर भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया गया। इसके बाद 26 जनवरी, 1930 को पूरे राष्ट्र में जगह-जगह सभाओं का आयोजन किया गया जिनमें सभी ने सामूहिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त करने की शपथ ली। इस अवसर पर डॉक्टर हेडगेवार ने सभी स्वयंसेवकों से अपील की कि कांग्रेस के पूर्ण स्वराज के संकल्प हेतु तन-मन से जुट जाएँ और पूरे देश में लगने वाली शाखाओं में शान से तिरंगा फहरायें। अब इन सबके बाद भी यदि कोई कहे कि संघ तिरंगे का सम्मान नहीं करता तो वह निश्चित रूप से कुंठा का शिकार हो चुका है।

हाल ही में केंद्र सरकार ने तिरंगा यात्रा का आयोजन किया था जिसमें भाग लेने से कांग्रेस ने मना कर दिया था। कांग्रेस का आरोप था कि सरकार की आड़ में एक पार्टी ने इस कार्यक्रम को हाईजैक कर लिया है जबकि वास्तविकता यह है ही नहीं। कांग्रेस यह बर्दाश्त ही नहीं कर सकती कि तिरंगा, स्वाधीनता संग्राम, महात्मा गाँधी जैसे प्रतीकों पर कोई सम्मान दिखाये। दूसरों का यह सम्मान कांग्रेस को नागवार गुजरता है क्योंकि उसकी सामंती सोच इन सभी प्रतीकों पर अपना सर्वाधिकार सुरक्षित रखना चाहती है।

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