रमेश पतंगे : राष्ट्रीय विचारों की 'अमृत' प्रेरणा
लेखक श्री मुक्तिबोध ओजस्वी वक्ता के साथ साथ उत्कृष्ट लेखक भी हैं।आपका श्री पतंगे जी से सतत सानिध्य रहा है।स्वदेश के विशेष आग्रह पर आज श्री मुक्तिबोध ने एक आलेख लिखा है जो श्री पतंगे जी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व का सुंदर शब्द चित्र है।
श्री रमेश पतंगे ने अपनी आयु के 75 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं| पतंगे याने मुंबई के साप्ताहिक विवेक के पूर्व संपादक, हिंदुस्तान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार , अनेक पुस्तकों के लेखक , मौलिक विचारक और संघ के एक आदर्श स्वयंसेवक | आज 15 फरवरी को मुंबई में उनका अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है जिसमें परमपूज्य सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी विशेष रूप से उपस्थित रहेंगे| हिंदी भाषी पाठकों के लिए रमेश पतंगे का नाम बहुत परिचित नहीं है तो बहुत अपरिचित भी नहीं है| मराठी भाषी लेखक और पत्रकार होने के बावजूद उनकी पुस्तकों व लेखों के हिंदी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं । मध्यप्रदेश शासन ने उन्हे माणिक चंद्र वाजपेई राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान से भी अलंकृत किया है । समय-समय पर मध्य प्रदेश के प्रमुख शहरों में उनके व्याख्यान भी होते रहे हैं|
वैसे तो किसी व्यक्ति का अपनी आयु के 75 वर्ष पूर्ण कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है| लेकिन कुछ लोग होते हैं जो अपने व्यक्तित्व , कृतित्व और विचारों के कारण समय की शिला पर अपनी गहरी छाप छोड़ देते हैं| उनका जीवन और आचरण एक उदाहरण बन जाता है, उनकी कृति और उक्ति एक मशाल बन जाती है । रमेश पतंगे एक ऐसे ही शख्स का नाम है| वे संघ के स्वयंसेवक हैं और एक पत्रकार भी हैं । लगभग तीन दशकों से भी अधिक समय से वे साप्ताहिक विवेक से जुड़े रहे और उसके संपादक रहे । उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इतने लंबे समय तक पत्रकारिता में रहने के बावजूद वे हमेशा स्वयंसेवक पहले और पत्रकार बाद में रहे| के "प्रतिबद्ध" पत्रकार तो रहे परंतु कभी भी "बद्ध" पत्रकार नहीं रहे । इसीलिए उनके अध्ययन और लेखन का फलक बहुत विस्तृत है| उनके भीतर के स्वयंसेवक ने उनके पत्रकार या लेखक को एक व्यापक दृष्टि दी, सत्य को साफगोई से कहने का हौसला दिया, झूठ को पूरी निर्ममता से बेनकाब करने की हिम्मत दी| समय-समय पर लिखे उनके लेख इस बात को पुष्ट करते हैं| वह असहमति भी साहस के साथ रखते हैं।
संघ विचार के प्रति उनकी यह जो प्रतिबद्धता और स्पष्टता है वह उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति को पहली ही भेंट में ज्ञात हो जाती है| लगभग दो दशक पूर्व श्री पतंगें ने डॉ अंबेडकर पर एक पुस्तक लिखी थी संघर्ष महामानव का । समाज में दुराग्रह पूर्वक प्रचलित की हुई दृष्टि से सर्वथा अलग डॉक्टर अम्बेडकर को एक राष्ट्रनिष्ठ और सकारात्मक नजरिए से देखने का प्रयत्न था| यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई| इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद का काम जब मुझे सौंपा गया तब पहली बार पतंगे जी से फोन पर चर्चा का अवसर मुझे मिला था| वह दूरभाष पर चर्चा के लिए हमेशा उपलब्ध रहते| अनुवाद का कोई पूर्व अनुभव ना होने से कई बार में बहुत छोटी छोटी बातों के लिए भी उन्हें फोन कर देता पर भी पूरे धैर्य से मुझे सुनते और अपने सुझाव देते| यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि वे इतने बड़े व्यक्ति हैं और तब मुझे अपनी बेवकूफी पर हंसी भी आई और शर्म भी| तभी मुझे यह भी समझ में आया कि "बड़ा" होने के कारण व्यक्ति में "बड़प्पन" नहीं आता बल्कि "बड़प्पन" के कारण व्यक्ति बड़ा बनता है| वे यदि बड़े हैं तो अपने इसी बड़प्पन के कारण हैं । पतंगे जी बहुत बड़े लेखक हैं , मूर्धन्य पत्रकार हैं और इस नाते उनकी अभिव्यक्ति बहुत असरदार है। लेकिन मेरा यह अनुभव-सिद्ध मत है कि उससे भी कहीं अधिक आल्हादकारी वह अनुभूति है जो उनसे बात करने या मिलने पर किसी को होती है| उन्होंने अपनी सारी प्रतिभा, मेधा कौशल और अध्ययनशीलता संघ को समर्पित कर दी है । उनकी यह जो संपूर्ण संघशरणता है वह पतंगे जी को एक संज्ञा नहीं बल्कि एक " विशेषण " बना देती है । मुझे याद है लगभग 5 वर्ष पहले डॉ बाबासाहेब आंबेडकर और सामाजिक समरसता विषय पर हम कुछ लोग पूजनीय सरसंघचालक श्री भागवत जी से अनौपचारिक चर्चा कर रहे थे| किसी खास संदर्भ का उल्लेख होने पर मैंने कहा कि इस विषय पर तो पतंगे जी का मत इस प्रकार का है| तब पूजनीय सरसंघचालक जी ने कहा था कि "समरसता पर जो भी पतंगे जी का मत है वहीं संघ का मत है"। मैं आज भी सोचता हूं कि कितने समर्पण और तपस्या के कारण किसी स्वयंसेवक को अपने सरसंघचालक का यह विश्वास मिल पाया होगा ?
केवल महाराष्ट्र ही नहीं सारे भारतवर्ष में संघ की सामाजिक समरसता गतिविधि के वैचारिक अधिष्ठान को स्थापित करने में रमेश पतंगे जी की भूमिका बहुत बड़ी रही है । इस दिशा में उनके प्रयासों और प्रवासों ने एक बड़े सामाजिक परिवर्तन को गति दी है । वे जितने बड़े पत्रकार हैं उससे भी बड़े एक लोककर्मी है। वर्ष 1985 में महाराष्ट्र में सामाजिक समरसता मंच के गठन के समय वह उसके सचिव बनाए गए थे । उनकी पहल पर निकाली गई प्रदेशव्यापी समरसता यात्रा ने इतिहास रचा है । उसका आकलन होना अभी बाकी है। हिंदू समाज में जाति भेद दूर कर सामाजिक समरसता लाने के लिए उन्होंने साप्ताहिक विवेक में भरपूर लेखन तो किया ही अनेक ऐसी पुस्तकें भी लिखी है जो भविष्य के दस्तावेज बनेंगी| "मैं मनु और संघ", " डॉक्टर हेडगेवार व डॉक्टर अंबेडकर", " संघर्ष महा मानव का", "समाज चिंतन", "सबको जोड़ने का काम", " हम और हमारा संविधान", बुक वाशिंगटन के जीवन पर आधारित किताब "जेव्हां गुलाम माणुस होतो", "मार्टिन लूथर किंग" और "डॉक्टर अंबेडकर का राष्ट्र निर्माण में योगदान " ऐसी ही कुछ किताबें हैं जिन्होंने अपनी दृष्टि , संदेश और स्तर के लिहाज से नए मानक गढ़े हैं| पतंगे जी केवल कलम के बुद्धिशील योद्धा ही नहीं है वह एक सतत कृतिशील कर्मयोद्धा भी हैं । इसीलिए महाराष्ट्र के यमगरबाड़ी में भटके विमुक्त समाज के लिए संचालित पुनर्वास प्रकल्प से वे गहराई से जुड़े रहे हैं । साप्ताहिक विवेक के माध्यम से एक अभियान चलाकर पतंगे जी ने अपने पाठकों के जरिए यमगरवाड़ी प्रकल्प के लिए संसाधन जुटाने का काम भी किया है । साप्ताहिक विवेक से अपने जुड़ाव के पहले दिन से लेकर तो उसके संपादक के दायित्व से मुक्त होने के बावजूद आज तक श्री रमेश पतंगे और साप्ताहिक विवेक एक दूसरे के पर्याय ही बन चुके हैं| उनके अंदर बैठे एक लोककर्मी स्वयंसेवक ने जहां अखबार के जरिए सामाजिक सेवा प्रकल्प के लिए धन जुटाया तो ऐसे अनेक विषयों पर शोध परक ग्रंथ भी प्रकाशित किए हैं जो आने वाले समय में दिशा सूचक दस्तावेजों का काम करेंगे । राष्ट्र साधना, वन जन गाथा, समर्थ भारत , समग्र वंदे मातरम जैसे अनेक ग्रंथ पतंगे जी के संपादन और मार्गदर्शन में प्रकाशित हुए हैं । देश के अनेक अखबार विशेषांक प्रकाशित करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य विज्ञापनों के जरिए धन कमाना ही होता है। शायद साप्ताहिक विवेक ऐसा निराला अखबार है जिसके विशेषांक धन कमाने के लिए नहीं बल्कि विचारधन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए छापे गए हैं । यही पतंगे जी की विशेषता है । लोकविमुख, विचारहीन और बाजार उन्मुख पत्रकारिता के दौर में वे मूल्य आधारित राष्ट्रीय पत्रकारिता के जरिए दुर्भावनाओं , दुर्बलताओंऔर दुष्प्रयोजनों से दो-दो हाथ करने वाले योद्धा हैं| उनके नेतृत्व में साप्ताहिक विवेक ने जबरदस्त जिजीविषा और जीवट का प्रदर्शन किया है । उनके नेतृत्व में साप्ताहिक विवेक केवल सूचनाओं या फ्रेम में बंधे विचारों के संप्रेषण का माध्यम नहीं बना बल्कि वह लोकजीवन का अभिन्न अंग बनकर जन सरोकारों का ध्वजवाहक बना। सदैव सजग और सचेष्ट रहकर पतंगे जी ने महाराष्ट्रीयन स्थानीयता व आंचलिकता पर ध्यान देते हुए भी विवेक को राष्ट्रीय संदर्भ , सामाजिक कार्यों और वैश्विक परिप्रेक्ष्य से जोड़े रखा । कुछ माह पूर्व विवेक में हिंदू हिताय शीर्षक से उनके जो 8 लेख प्रकाशित हुए थे वह हिंदू समाज और हिंदुओं के सामाजिक स्वरूप से लेकर उनके राजनीतिक पहलुओं तक पतंगेजी की गहरी विश्लेषण क्षमता के परिचायक हैं । पतंगे जी लोक उन्मुख, प्रतिबद्ध और निर्भीक पत्रकारिता के उदाहरण है । वे मन के भावों को कलम के जरिए और कलम से लिखे शब्दों को अपने आचरण के जरिए जीवन में उतारने वाले कर्मशील लेखक हैं । इसीलिए वे एक मिसाल भी है और मशाल भी। । उनकी कलम असरदार है और व्यक्तित्व मिलनसार। वे मृदुभाषी भी हैं, मिष्ट भाषी भी और शिष्ट भाषी भी । रमेश पतंगे श्रद्धा आस्था समर्पण विवेक और उच्चतम कोटि के शील के बीच सांस लेते एक ऐसे व्यक्ति का नाम है जिसके गुणों ने उसकी वाग्मिता को एक विशिष्ट पहचान दे दी है । मीडिया में आजकल दुर्भाग्यवश प्रभावी हो रहे बिकाऊ बौनों की भीड़ में वे एक ऐसी आदमकद उपस्थिति हैं जिसने अपने माथे पर मानो लिख रखा है "तुम मुझे क्या खरीदोगे मैं तो मुफ्त हूं" । किसी भी तरह की दीनता और दैन्य से , लोभ -लालच से मुक्त यह "मुफ्त" आदमी शायद कबीरदास जी से सीख कर आया है कि फकीरी में दिल लगा लोगे तो चारों खूँट जागीरी में रहोगे । ऐसे "जागीरदार" श्री रमेश पतंगे जी का आज मुंबई में अमृत महोत्सव मन रहा है. वह शतायु हों, आरोग्य और आयु का वरदान उन्हें प्राप्त हो और वे अपने विचारों के अमृत से राष्ट्र जीवन के देवासुर संग्राम में देवों को अमृतपान कराते रहें यही शुभकामनाएं ।