पाताल से बैकुंठ लोक को लौटेंगे भक्त वत्सल भगवान
भगवान की लीला अपरंपार है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
काहई सुनई बहु विधि बहु संता।।
इस चौपाई के अनुसार अखिल ब्रह्मांड नायक भगवान श्री हरि विष्णु की और उनके अवतारों की कथा अनंत है। क्योंकि वे स्वयं भी अनंत हैं, जिनका ना कोई आदि है और ना अंत। उनकी कथाओं के बारे में भी यही मान्यताएं हैं कि उन्हें जितनी बार भी पढ़ा अथवा सुना जाए, प्रत्येक बार नवीनता का अहसास बना रहता है। ऐसा लगता है मानो जो इस बार सुना वह पहले तो सुना ही नहीं! ऐसा इसलिए, क्योंकि भगवान् भक्तवत्सल हैं। जहां कहीं भी सच्ची भक्ति अथवा प्रेम पूर्वक आव्हान का एहसास भर होता है, प्रभु वहां प्रेम बंधन में बंधे होकर खिंचे चले जाते हैं। ऐसी ही एक कथा दैत्य राज बलि की भी है। धर्म ग्रंथों के अनुसार राजा बलि असुरों का प्रमुख था और अपने वीरोचित पराक्रम, दान, सत्यवाद के बल पर उसने तीनों लोकों पर अपना राज स्थापित कर लिया था। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है बलि असुरों का अधिपति था।
एक ओर वह श्री हरि हरि विष्णु के प्रबल विरोधी हिरण्यकश्यप का प्रपौत्र है तो भगवान के ही प्रिय भक्त प्रहलाद का पोता है। वह भक्त प्रहलाद के पुत्र विरोचन की संतान है। कालांतर में जब देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ तो इंद्र ने छल से बलि के पिता विरोचन का वध कर दिया था। इस पर कुपित होकर बलि ने देवताओं के विरुद्ध युद्ध छेड़ा और तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। उसकी दृष्टि अपने पिता की हत्या करने वाले इंद्र के सिंहासन पर केंद्रित हो गई। जिसे प्राप्त करने के लिए उसने सौ यज्ञों का संकल्प लिया। उनमें से 99 निर्विघ्न संपन्न भी कर लिए। किंतु जैसे ही सौ वें यज्ञ की बारी आई तो देवताओं में हड़कंप मच गया। वह समझ गए थे कि यदि बलि ने यह यज्ञ पूरा कर लिया तो देव लोक पर राक्षसी सत्ता को स्थापित होने से रोका ना जा सकेगा। तब सभी ने भगवान विष्णु को मनाया और उनसे प्रार्थना की कि वे किसी भी तरह बलि का 100 वां यज्ञ पूर्ण होने से रोकें अन्यथा अनर्थ हो जाएगा। परिस्थितियों को भांपते हुए भगवान विष्णु ने वामन (छोटे) बटुक का वेश धारण किया और बलि की यज्ञशाला में पहुंच गए। यह सारा माजरा यज्ञ संपन्न करा रहे दैत्य गुरु शुक्राचार्य कि समझ में आ गया। उन्होंने अपने महा प्रतापी शिष्य बलि को सावधान किया- बामन भिक्षुक के रूप में तुम्हारे सामने जो बालक खड़ा है। वह और कोई नहीं श्री हरि विष्णु हैं जो कपट पूर्वक तुम्हारे यज्ञ को विध्वंस करने आए हैं।
यह जानकर भी राजा बलि ने भगवान को मुंह मांगा दान देने का संकल्प ले लिया। इस पर वामन भगवान ने राजा बलि से तीन पग स्थान मांग लिया। जैसे की बलि ने पग स्थान दान किया, वैसे ही भगवान ने 2 पग में भूमंडल और वायुमंडल गृहीत कर लिए। तीसरा पग कहां रखूं? यह सवाल राजा बलि से कर दिया। इस पर प्रभु भक्ति में मदमत्त बलि ने तीसरा पग अपने सिर पर रखने के लिए भगवान से प्रार्थना की। प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने तीसरा पग बलि के शीश पर रखा और उसे पाताल भेज दिया तथा वहां का शासक घोषित कर दिया। राजा बलि की भक्ति और उसके समर्पण से प्रसन्न होकर प्रभु ने वर मांगने के लिए कहा तो भाव विभोर होकर उसने भगवान से पाताल में बसने का आग्रह कर दिया। भगवान भी भक्तों की बात कहां टालने वाले थे! सो वे पाताल में ही बस गए। देवता गण एक परेशानी से छूटे तो अब दूसरी में फंस गए। उनका देवलोक तो बच गया किंतु भगवान राजा बलि के हिस्से में चले गए। तब सबने जगत जननी माता लक्ष्मी की स्तुति की और विष्णु जी को पाताल से देवलोक लाने के लिए उनसे प्रार्थना की। मां लक्ष्मी ने ब्राह्मणी का वेश बनाया और राजा बलि के दरबार में जा पहुंचीं। जैसे ही बलि ने उनसे इच्छित वस्तू मांगने का आग्रह किया, वैसे ही उन्होंने राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधकर वचनबद्ध कर लिया तथा भेंट के रूप में श्री हरि हरि विष्णु मांग लिए। वचन में बंध चुके राजा बलि ने भगवान विष्णु को पाताल लोक में रहने के वचन से मुक्त किया।
फल स्वरूप श्री हरि विष्णु बैकुंठ को लौट आए। इसके पहले उन्होंने राजा बलि को आश्वस्त किया कि वे वैशाख माह की देवशयनी एकादशी से लेकर कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी तक प्रतिवर्ष उसके यहां पाताल में ही निवास किया करेंगे। तब से भगवान वर्षा रितु के दौरान पाताल में विराजते हैं इस कालखंड को देव शयन सत्र कहा जाता है। अब जब देवोत्थान एकादशी आ रही है तो भक्तवत्सल भगवान की पाताल में बसने की अवधि पूर्ण होने को है और वे बैकुंठ लोक की ओर गमन करने को तत्पर हैं। उनके बैकुंठ पहुंचते ही सभी मांगलिक कार्य शुरू होने जा रहे हैं । सभी हिंदू धर्मावलंबियों को देवोत्थान एकादशी की ढेर सारी बधाइयां
( लेखक स्वतंत्र स्तंभकार हैं)