मोदी-योगी युग्म: ऐतिहासिक विजय की भी समीक्षा हो..
वेबडेस्क। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के जीत निसंदेह ऐतिहासिक है।अभिनंदनीय है।असंदिग्ध रूप से इसका श्रेय भाजपा के तीन नेताओं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गृहमंत्री अमित शाह एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ही दिया जाएगा। तमाम चुनाव पूर्व विश्लेषकों, दावों और लेफ्ट लिबरल के सशक्त इकोसिस्टम द्वारा गढ़े गए नैरेटिव को चुनाव परिणामों ने ध्वस्त कर दिया है।आमतौर पर जो दल पराजित होता है उसके लिए नतीजों की समीक्षा अनिवार्य होती है,लेकिन यहां इस जनादेश के साथ भाजपा को अपनी जीत की समीक्षा भी अवश्य करनी चाहिए। तथ्य तो यह है कि भाजपा को अपनी जीत की एक निर्मम समीक्षा की आवश्यकता है।
देश की संसदीय राजनीति में मोदी- योगी का नया युग्म भरोसे का राजनीतिक ब्रांड बन गया है और पार्टी के लिए यह एक दीर्धकालीन राजनीतिक परियोजना जैसा है, जो उसके वैचारिक अधिष्ठान की सतत साधना और ध्येयनिष्ठा से भी सीधा जुड़ा है।पार्टी को उप्र के आलोक में एक नई राष्ट्रव्यापी राजनीतिक कार्य संस्कृति को खड़ा करने की आवश्यकता है।क्या कारण है कि योगी आदित्यनाथ जैसे निष्कलँकित नेता को उप्र में अपने ही दल में दुश्वारियां झेलनी पड़ी।
जिस मुख्यमंत्री ने परिश्रम की पराकाष्ठा और प्रामणिकता के शीर्ष तक सुशासन और पारदर्शिता का मॉडल गढ़ा,जिसे जनता ने अपनी अभिस्वीकृति प्रदान की उसे अपनी ही पार्टी की स्थानीय इकाई का वैसा साथ नजर नही आया जैसा मोदी और शाह देते नजर आए।वे कौन लोग है जो योगी के विरुद्ध घर से ही वातावरण को दूषित करने और उनकी मठ वापिसी को हवा दे रहे थे।सच्चाई यह भी है कि पार्टी के अंदर से ही पूरे चुनाव अभियान में भितरघात करने की कोशिश हुई ।उसमें सफलता नहीं मिली यह नतीजे बता रहे हैं लेकिन आंशिक सफलता जरूर मिली है। नतीजतन जो चुनाव आसान होना चाहिए था वह थोडा मुश्किल हुआ। जितनी सीटें आनी चाहिए थी उससे कम आई।अब कहने को तो जीत हो गई है दो तिहाई बहुमत मिल गया है। तो कोई भी अन्य पार्टी हो तो संतुष्ट हो सकती हैं। कितनी बड़ी जीत हुई है।
30 साल बाद ऐसा हुआ है कि कोई सरकार उप्र में लौट कर आई है। यह सब बातें सही है लेकिन सवाल यह है कि इस जीत को कम करने के पीछे घर के कौन से लोग थे? उनकी क्या मंशा थी? क्यों ऐसा कर रहे थे और क्यों ऐसा होने दिया गया ?कोरोना की दूसरी लहर के तुरंत बाद अभियान चलाया गया कि मुख्यमंत्री बदले जा रहा है या मुख्यमंत्री को निष्प्रभावी किया जा रहा है। यह सब बातें यह खबरें पार्टी के अंदर से निकलती थी मीडिया को फीड की जाती थी। इस जीत की समीक्षा अगर नहीं हुई तो आगे चलकर इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।क्योंकि यूपी की यह जीत भाजपा के विरुद्ध राजनीतिक गोलबंदी को और अधिक मजबूत करेगी।देश की कीमत पर सत्ता को प्राथमिकता देनें वाली सेक्यूलर गिरोहबंदी शांत होकर नही बैठेगी। 2017 में भारतीय जनता पार्टी के 312 अकेले और कुल मिलाकर 325 विधायक थे।
आज यह संख्या घटी है तब जबकि 80 टिकट पार्टी ने सीधे तौर पर काटे,11 विधायक पार्टी छोड़ गए।पूरा चुनाव बाबा यानी योगी आदित्यनाथ के अंडर करंट और मोदी जी के चेहरे पर हुआ।यानी संसदीय राजनीति को मोदी योगी युग्म ने सामूहिक प्रतिनिधित्व और जबाबदेही के धरातल से ऊपर उठाकर सिंगिल ब्रांड में तब्दील कर दिया है। इसलिए इस जीत का निर्णायक श्रेय विधायकों को नही दिया जा सकता है।यही भाजपा के लिए निर्मम समीक्षा का प्रधान विषय होना चाहिए। सच्चाई यह है कि लड़ाई को कठिन बनाया विधायकों के प्रति जनता की नाराजगी ने।अधिकतर विधायक 5 साल में अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं गए। लोगों की सबसे बड़ी शिकायत यही थी।
इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व आईपीएस असीम अरुण कन्नौज से चुनाव लड़ रहे थे उनके चुनाव प्रचार का एक वीडियो सोशल मीडिया पर मौजूद है जिसमें कन्नौज ग्रामीण के लोग उनसे याचना भाव के साथ जीतने के बाद एक बार आने का अनुरोध कर रहे है।काशी कॉरिडोर से विधायक नीलकंठ तिवारी जीत भले गए लेकिन उनकी भूमिका ऐसी रही है कि उन्हें कभी नही जीतना चाहिये था।प्रधानमंत्री का उनके क्षेत्र में पैदल घूमना इसका प्रमाण है।पार्टी ने 2017 में उन्हें सात बार के अपने विधायक का टिकट काटकर लड़ाया फिर मंत्री बनाया लेकिन ऐसे नीलकंठ उप्र में बहुत बड़ी संख्या में थे।
आगरा जिले में इस प्रतिनिधि से वोटिंग के बाद बीसियों मतदाताओं ने भाजपा को वोट करने के बाद कहा कि हमने केवल मोदी और योगी के नाम पर वोट किया है।ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा के लोकव्यवहार को लेकर भी आम लोगों में ढेर शिकायतें हैं। स्वाभाविक ही है कि दो तिहाई बहुमत मुख्यमंत्री के सख्त और समावेशी प्रशासन का नतीजा है।आम आदमी के मध्य एक छवि मतदान व्यवहार को सीधे प्रभावित कर रही थी तो वह केवल योगी की ही थी।योजनाओं के अंतिम छोर तक सफल क्रियान्वयन और सुरक्षा की भावना ने एक ऐसी छवि मुख्यमंत्री योगी की खड़ी कर दी है जिसकी काट विपक्ष के पास नही है।यह छवि इतनी सशक्त और सर्वस्पर्शी है कि उसमें विधायकों का नकारापन गौण होकर रह गया।सवाल यह कि क्या यह स्थिति पार्टी के दीर्धकालिक हितों के लिए अनुकूल है?तब जब अमित शाह जैसे नेता 50 साल के लिए सत्ता का लक्ष्य निर्धारित करते है और जनता 8 साल से भरोसे के साथ पार्टी के पक्ष में खड़ी है।
बेहतर हो पार्टी हर जनप्रतिनिधि के लिए मॉनिटरिंग का एक सांगठनिक तंत्र विकसित करे ,जो निर्वाचन क्षेत्र में लोगों को कम से कम ऐसी शिकायत को अवसर तो न दे कि लोग जीत के बाद वापिस आने के लिए याचना सी करें।विधायक और सांसदों के लिये जनसम्पर्क से लेकर जनता के कार्यो भी प्रत्यक्ष भागीदारी का खुला प्लेटफार्म खड़ा किया जाए।प्रधानमंत्री और योगी आदित्यनाथ की विश्वसनीयता का अहम कारक है उनका संपत्ति से दूर रहना। आज की राजनीति जनप्रतिनिधियों पर बहुत गहरी नजर रखती है इसलिए पार्टी में यह परिपाटी आरम्भ होना चाहिए कि चुने गए सांसद,विधायकों की संपति सार्वजनिक होनीं चाहिए।कौन ईमानदार है और कौन बेईमान? है कौन पैसा कमा रहा है? कौन नहीं कमा रहा है? जनता ने खुली आंख से इस कसौटी पर योगी-मोदी को खरा पाकर अपना समर्थन पिछले चार चुनावों में दे दिया है।
दूसरी बड़ी समस्या पूरे राजनीतिक परिदृश्य में राजनीतिक दलों के सामने यह है कि जो सत्ता में होगा उसके विधायक कार्यकर्ता समर्थक को खुली छूट मिलेगी सत्ता के दुरूपयोग की।योगी राज में यह सब नही हो पाया।इसलिए रह रह कर योगी के विरुद्ध खबरें प्लांट की गई।कभी ब्राह्मण कभी जाट कभी किसान की नाराजगी को मुद्दा बनाने में पार्टी के भीतर से ही माहौल खड़ा किया गया।समीक्षा इस बात की भी होना चाहिये कि क्या कोई संस्थागत व्यवस्था पार्टी के कैडर को सरकार में भागीदारी के लिए कैसे खड़ी की जा सकती है?जो विधायकों और उनके परकोटे से बाहर हो।क्योंकि सत्ता के जिस मॉडल के हम अभ्यस्त हो गए है वह कैडर के लिए सत्ता के मायने ट्रांसफर,पोस्टिंग और स्थानीय प्रभाव तक सीमित करता आया है।
आमजन इसे दलाली का नाम देता है। और जो भी पार्टी इसकी छूट देती है पूरा दलाली का तंत्र खड़ा हो जाता है।सपा,बसपा को जनता ने इसीलिए खारिज किया क्योंकि जनता ने एमवाय की दलाली और आतंक को भोगा था। पिछले 5 साल में उत्तर प्रदेश में दलाली और जातिवादी सिंडिकेट का तंत्र फल फूल नहीं पाया तो नाराजगी स्वाभाविक थी। अपनी सरकार है फिर भी नहीं चल रही है।इस चलने की परिपाटी को योगी ने खत्म किया और इसी ने "यूपी में बाबा"की छवि खड़ी की।पार्टी को इस बारे में जरूर सोचना होगा कि योगी के पैर पीछे खींचने की कोशिश करने वालों में पार्टी एक बड़ा वर्ग भी था जो चाहता था कि 180-200 सीट आए तो शायद मुख्यमंत्री बदल दिये जायें। लेकिन जन विश्वास कायम रहा और पार्टी का भी विश्वास योगी पर कायम रहा। लखनऊ में जो 2 तस्वीरें आईं।मुख्यमंत्री के कंधे पर हाथ रखकर प्रधानमंत्री जिस तरह से चल रहे थे बात कर रहे थे उसका संदेश साफ तौर पर पार्टी के अंदर के विधंसन्तोषी लोगों को ही था।प्रधानमंत्री को खुद यह नारा लगाना पड़ा कि "आयेंगे तो योगी ही"।
इस क्रम में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पूरी ऊर्जा के साथ2013 मोड़ में मैदान में कूदे।अगर इन दोनों नेताओं ने योगी जी के साथ मिलकर जी जान से चुनाव अभियान को न चलाया होता तो यह जो अपने ही लोग है भारतीय जनता पार्टी में कामयाब भी हो सकते थे।हालांकि पुर्ण सफल तो तब भी नहीं होते ।लेकिन यह भी सच है कि सीटें कम करने में विपक्ष से ज्यादा अपनों का योगदान है।कम से कम 40 से 45 सीटें और आनी चाहिए थी योगी मॉडल पर।