आपातकाल का काला कालखंड : जब लाखों निर्दाेषों को जेल में डाला गया
इमरजेंसी, आज हम जिस लोकतांत्रित शासन व्यवस्था में रह रहें हैं, उसे हासिल करने के लिए हमारे देश ने सैकड़ों सालों तक कड़ा संघर्ष किया था, उस लोकतंत्र के बारे में निसंदेह रूप से कहा जा सकता हैं कि वह सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ है। आम आदमी को अभिव्यक्ति की आजादी, रहने जीने और अपना भविष्य स्वयं तय करने का अधिकार जितना लोकतंत्र में सहज रीति से मिल सकता हैं अन्य किसी भी प्रकार शासन प्रणाली में संभव नहीं है।
लोकतंत्र मात्र शासन प्रणाली ही नहीं है बल्कि जीवन जीने की पद्धति भी हैं। एक ऐसी पद्धति जो सम्यक लोकतंत्रिक सोच से विकसित होती हैं। जागरूकता परस्पर सह-अस्तित्व, लोकतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा का भाव और लोकमत का सम्मान लोकतंत्र के आवश्यक लक्षण हैं। उसके बिना लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं है। भारतीय जनता में यह गुण स्वाभाविक रूप से मौजूद है, यदि यह गुण न होता तो अपना यह देश भी पडौसी देशों की तरह तानाशाही के कड़े शिकंजे में जकड़ा होता।
25 जून 1975 के उस काली रात को भारत की जनता भला कैसे भूल सकती हैं जिस दिन श्रीमती इंदिरा गांधी की मदांध सरकार ने बिना सोचे-समझे देश पर आपातकाल लगा दिया था। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को समाप्त करके लाखों निर्दाेष लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल में डाल दिया गया। न अपील, न वकील और न दलील - एक तरह से सबके मुह बंद करने की कोशिश की गई। अखबारों पर सेंसरशिप बैठा दी गई। यहां तक कि लोग मौसम के बारे में चर्चा करते हुए भी डरने लगे।
उस समय का हाल बताते हुए किसी कवि ने कहा था-
”मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना हैं।“
देश पर आपातकाल थोपने से पूर्व ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश का वातावरण ऐसे बना दिया था कि कोई भी उसका प्रतिकार करने की हिम्मत न जुटा सके। सरकारी प्रचारतंत्र का सहारा लेकर उन्होंने स्वयं को देवदूत और उनके अपने विराधियों को देश और गरीबों को दुश्मन साबित करने की कोई कसर छोड़कर नहीं रखी थी। आकाशवाणी और दूरदर्शन के सिवाय तब आज जैसे दूसरे न्यूज चैनल नहीं थे और उनका अधिकांश समय श्रीमती गाँधी को महिमामांडित करने में व्यतीत होता था। 15 मिनट के बुलेटिन में 14 मिनट उन्हीं को समर्पित होते थे। विपक्ष तो एक तरह से ब्लेकआउट ही रहता था। कांग्रेस, पार्टी में भी कोई उनके खिलाफ मुँह खोलने को तैयार नहीं था। दिल्ली सहित देश के तमाम शहरों में उनके समर्थन में फर्जी रैलियाँ निकलती थीं और उस समय की मीडिया उन्हीं खबरों को प्रसारित करने के लिए मजबूर थी।
चुनौती रहित कांग्रेस के शासनकाल में भ्रष्टाचार चरम-सीमा पर था। कांग्रेस के एकाधिकार में प्रतिपक्ष को दबाने के लिए कोई भी हथकण्डा ऐसा नहीं था, जिसे अपनाया न जा रहा हो। जब स्थिति सर से ऊपर हो गई तो लोकनायक जय प्रकाश नारायण उठ खड़े हुए। गुजरात में छात्र आंदोलन शुरू हुआ और वहाँ की चिमन भाई की कांग्रेसी सरकार को अपदस्थ होना पड़ा। उसी समय इलाहाबाद हाईकोर्ट ने श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया। तत्कालीन केन्द्रीय सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से उसे फैसले का प्रभाव तो समाप्त कर दिया मगर सत्तारूढ़ पार्टी में श्रीमती गांधी के खिलाफ असंतोष उभरने लगा।
25 जून 1975 को दिल्ली में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सर्वदलीय सभा हुई और उन्होंने भारत बंद का ऐलान कर दिया। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री श्री मुरारजी देसाई सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं ने भी भारत बंद का समर्थन कर दिया। इस सबका जवाब श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल लगाकर दिया।
25 जून 1995 की रात मैं अपने गृह नगर भिंड में ही था। एक माह पूर्व भिंड में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सर्वदलीय सभा काफी सफल रही थी । प्रशासन के तमाम अड़गों के बाद भी एम.जे.एस. महाविद्यालय के प्रांगण में आयोजित सभा उस समय की बहुत बड़ी सभा थी। उत्तरी मध्यप्रदेश में वैसे भी स्व. राजमाता विजयाराजे सिंधिया और तत्कालीन भारतीय जनसंघ का अच्छा खासा प्रभाव था। मैंने उस सभा में बढ़चढ़कर भाग लिया। मैं उस समय स्वदेश का संवाददाता था। स्वागत और सभा की तैयारियों के लिए सर्व दलीय समिति गठित की गई थी। दो प्रमुख दलों जनसंघ और समाजवादी पार्टी के कार्यकत्र्ताओं में समिति और सभा का अध्यक्ष बनने की जोड़-तोड़ चल रही थी। मेरे ही पहल पर एक सर्वाेदयी युवक सत्यनारायण शर्मा को आयोजन समिति और सभा का अध्यक्ष बनाया गया। लोक नायक जयप्रकाश नारायण की इस ऐतिहासिक सभा के कारण मैं जिला प्रशासन की आँख का किरकिरी बन गया।
25 जून 1975 की रात को मैं निश्चिंत होकर सोया, सुबह के बुलेटिन में देश पर आपातकाल लगाये जाने की जानकारी दी गई। कुछ नेताओं की गिरफ्तारी की भी खबर मिली। पत्रकार होने के नाते मैं आपातकाल की खबर लेने सुबह घर से निकला और कोतवाली की ओर ही रहा था कि एक शुभ चिंतक पुलिसकर्मी ने मुझे कोतवाली जाने से रोक दिया और कहा कि वहाँ मत जाइये, आपको गिरफ्तार करने के लिए पुलिस आपके घर गई है। मैने तुरंत अपना मार्ग बदला और अपने पत्रकार मित्र श्री रमेश जौहरी के घर पहुँच गया। एक दिन वहाँ रुकने के बाद में भूमिगत होकर आपातकाल के खिलाफ जन जागरण की तैयारी करने लगा। जून में ग्वालियर क्षेत्र में भयंकर गर्मी पड़ती है। इसलिए अपना मुँह और सिर एक कपड़े से ढककर बस सेरौन, लहार होता हुआ गोहद पहुँचा। गोहद बस स्टैंड पर जनसंघ के एक कार्यकर्ता का मकान था। मैं छुपकर उनके घर पहुँचा। कार्यकर्ता वकील सा. थे। वे तो मुझे देखकर घबड़ा गये। हाथ जोड़कर बोले ”आपका वारंट निकल गया है। आपको तो गिरफ्तार होना ही हैं। मुझे क्यों आप गिरफ्तार कराना चाहते हैं। मैं गिरफ्तार हो गया तो बर्बाद हो जाऊंगा।“
इस तरह कोई बारह दिन छुपता छुपाता जिले भर में घूमता रहा। आठ जुलाई को मैं फिर भिंड पहुँचा। पत्नी और बच्चों से मिलने जब शाम को अपने घर पेच नम्बर एक में पहुँचा तो घर में घुसते मुझे किसी कांग्रेसी ने देख लिया और तुरंत पुलिस को खबर कर दी। सुबह ही पुलिस ने मेरा घर घेर लिया और मैं गिरफ्तार कर लिया गया। जिस समय मैं गिरफ्तार हुआ मैरे बच्चे अत्यंत छोटे थे, पत्नी गर्भवती थीं। मेने सावित्री को सलाह दी कि वे बच्चों को लेकर घर बाराकलां चली जाये। वे स्वाभिमानी और साहसी शुरू से थीं, उन्हें मेरी सलाह पसंद नहीं आई। वे गांव मेरे भाई के पास नहीं गई और न मायके पिता के घर नहीं जाना चाहती थीं। उन्हें लगता था कि कुछ दिन बाद रिहा हो जाऊंगा पर जब अधिक दिन तक नहीं लौटा तो आखिरकार वे मेरे भाई के पास गांव चली गई। कभी भिंड तो कभी बाराकलां वे आती-जाती रहीं। बच्चों को साथ में लेकर उनकी यह आना जाना कितना कष्टदायी था, यह समझा जा सकता है।
गिरफ्तार होने के बाद जब मुझे कोतवाली ले जाया गया। तब कोतवाली गिरफ्तार शुदा से भरी थी। तमाम कार्यकर्ता गिरफ्तार होकर लाये गये थे। अधिकांश कार्यकर्ताओं को अपराधिक मामलों में गिरफ्तार किया गया था और बाद में उन्हें अदालत ने रिहा भी कर दिया किन्तु मुझे ‘मीसा’ में गिरफ्तार किया गया था, इसलिये मुझे पुलिस वाहन से केन्द्रीय जेल, ग्वालियर ले जाया गया।
मैं जब ग्वालियर केन्द्रीय जेल पहुँचा तो वहाँ कोई चार पाँच सौ लोग मीसा में बंद थे। उन्हें देखकर मैं अपनी गिरफ्तारी का गम और परिवार छोड़ने का दुःख भूल सा गया। केन्द्रीय जेल में मीसाबंदियों की अलग बैरिकें थीं। भारतीय जनसंघ के ग्वालियर संभाग के सभी बड़े नेता यथा सर्वश्री नारायण कृष्ण शेजवलकर, शीतला सहाय, नरेश जौहरी, गांगाराम बादिल, भाऊ साहब पोतनीस, इन्द्रापुरकर, डा एमएम बत्रा, स्वरूप किशोर सिंहल, पी. डी. गुप्ता, रसाल सिंह, शिव कुमार शुक्ला नाथूलाल गोयल, श्मंत्री जीश् जाहर सिंह शर्मा, जगन्नाथ सिंह, दादा दहीफले, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी, बाबा खानवलकर, दादा बेलापुरकर, चिंतामणि केलकर, मोघे जी, अन्ना जी, महीपत चिकटे डाॅ. मराठे, सुघर सिंह कुशवाह, बाबूलाल गुप्ता और उनके युवा पुत्र राधेश्याम गुप्ता, सीताराम गुप्ता, शिवपुरी के बाबूलाल शर्मा एडवोकेट, हरिहर शर्मा, अशोक पांडे गोपाल दंडोतिया, विमलेश गोयल, गोपाल सिंहल, ओम प्रकाश गुरू, संयुक्त समाजवादी पार्टी के रघुवीर सिंह कुशवाह, धर्मस्वरूप सक्सेना, दांतरे, दंडोतिया, बाबू जबर सिंह, रक्षपाल सिंह, विजय सिंह, साहित्य क्षेत्र के सर्व श्री जगदीश तोमर, डॉ. शिव बरुआ, सीपीएम के शैलेन्द्र शैली और कई अन्य।
आपातकाल में प्रथमतः तो सभी राष्ट्रवादी और स्वतंत्रचेता समाचार बंद कर दिये गये। बाद में उन पर सेंशरशिप बैठा दी गई। सेंशर अधिकारी अखबार की प्रत्येक पंक्ति को सूंघकर छपने की इजाजत देते थे।कुछ दिन इंतजार करने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ तथा सर्वोदय सहित तमाम राजनीतिक दलों ने आपातकाल के विरोध करने का निर्णय लिया। करीब सवा लाख से अधिक आंदोलनकारियों ने जेल जाना वरण किया। इतना बड़ा संघर्ष तो कभी स्वतंत्रता सम्मेलन में भी नहीं किया गया।
आज स्थिति बदली अवश्य है, परन्तु सत्ता में यदि कांग्रेस लौटती है तो आपातकाल के खतरे से इंकार भी नहीं किया जा सकता, इसका प्रमाण यह है कि जहाँ भी जिस राज्य में कांग्रेस की सरकारें हैं, वे लोकतंत्र रक्षकों को अपमानित कर रहे हैं। कांग्रेस के उच्च पदों पर बैठे लोग उन्हें गुण्डे बदमाशों की संज्ञा देते हैं।आपातकाल में निरूद्ध मीसा या डीआई में बंद लोगों को स्वतंत्रता संग्राम सैनानी जैसे दर्जा नहीं दिय जाता। केवल भाजपा शासित राज्यों में 26 जनवरी को एक औपचारिक सम्मेलन कर वत्र्तकों की इतिश्री मान ली जाती है, पर उन्हें या किसी को 615 दिन की अहोरात को कम्मतर आंकने की की भूल नहीं करनी चाहिए।