सनातन संस्कृति को नष्ट करने का भयानक षड्यंत्र है ब्राह्मण-क्षत्रिय-संघर्ष

सनातन संस्कृति को नष्ट करने का भयानक षड्यंत्र है ब्राह्मण-क्षत्रिय-संघर्ष
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डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'

वेबडेस्क। सनातन संस्कृति में अनादिकाल से ही ब्राह्मण और क्षत्रिय एक ही मुद्रा के दो पक्ष रहे हैं। दोनों एक-दूसरे के परस्पर पूरक रहे हैं। बिना एक के दूसरे का अस्तित्व सदैव संकटापन्न रहा है। आज हम जिस युग में जी रहे हैं, उसमें सर्वत्र ब्राह्मण-क्षत्रिय-संघर्ष की परिस्थितियाँ प्रायोजित की जा रही हैं। सनातन धर्म के विरोधियों ने सोची-समझी रणनीति अन्तर्गत ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सनातनकाल से चली आ रही मैत्री पर ही कुठारप्रहार कर दिया है। उनका तो एकमात्र हेतु सनातन संस्कृति को नष्ट करना ही है। यदि सनातन संस्कृति का सूर्यास्त आवश्यक है, तो ब्राह्मण-क्षत्रिय-संघर्ष की पृष्ठभूमि निर्मित करनी ही पड़ेगी। जब तक ब्राह्मण और क्षत्रिय एक-दूसरे के अस्तित्व पर प्रहार नहीं करेंगे, तब तक सनातन संस्कृति का सूर्यास्त कैसे होगा!

सनातन-विरोधियों ने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक आज ब्राह्मण और क्षत्रिय को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। दोनों एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे हो गये हैं। यह स्थिति सचमुच बहुत गम्भीर है। सनातन विरोधियों के इस दुर्धर्ष चक्रव्यूह का भंजन करने के लिए ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों को आगे आना पड़ेगा। वस्तुतः ब्राह्मण और क्षत्रिय जब परस्पर एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं, तो देश का विकास अवरुद्ध हो जाता है। ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच परस्पर विरोध होने पर देश और समाज का अहित होता है और प्रजा दुःखी रहती है। महाभारत के शान्तिपर्व में राजर्षि मुचुकुन्द के उपाख्यान के अन्तर्गत ब्राह्मण-क्षत्रिय दोनों की उत्पत्ति का स्थान एक ही माना गया है। दोनों स्वयंभू ब्रह्मा से उत्पन्न हुए हैं। यदि उनका बल और प्रयत्न पृथक् पृथक् हो जाता है अर्थात् परस्पर एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं, तो वे संसार की रक्षा नहीं कर सकते और न प्रजा को सुखी ही बना सकते हैं, क्योंकि ब्राह्मणों में सादा तप और मन्त्र का बल रहता है तथा क्षत्रियों में अस्त्र-शस्त्र और भुजाओं का बल होता है। इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय को एक साथ मिलकर प्रजा का पालन करना चाहिए। यथा-

ब्रह्मक्षत्रमिदं सृष्टमेकयोनि स्वयंभुवा।
पृथग्बलविधानं च तल्लोकं परिपालयेत्।।
तपोमन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्।।
ताभ्यां संभूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालयेत्।
- महाभारत, शान्तिपर्व 74/15-17

शान्तिपर्व में ही राजर्षि पुरुरवा के प्रश्नों का उत्तर देते हुए महर्षि कश्यप कहते हैं कि ब्राह्मण और क्षत्रियों में परस्पर फूट होने से प्रजा को दुःसह दुःख भोगना पड़ता है। इन सब बातों को सोच-समझकर अर्थात् विचार कर राजा अर्थात् क्षत्रिय को चाहिए कि वह सदा शान्ति स्थापित करने के लिए और प्रजा के सुख के लिए सुयोग्य-नैष्ठिक विद्वान् ब्राह्मण को पुरोहित बनायें-

मिथोभेदाद् ब्राह्मणक्षत्रियाणां प्रजा दुःखं दुःसहं चाविशन्ति।
एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह विद्वान् पुरोहितो नैकवियद्यो नृपेण।।
-महाभारत, शान्तिपर्व 73/66

जहाँ ब्राह्मण क्षत्रिय से विरोध करता है, वहाँ क्षत्रिय का राज्य छिन्न-भिन्न हो जाता है और लुटेरे दल-बल के साथ आकर उस पर अधिकार जमा लेते हैं तथा वहाँ निवास करनेवाले सभी वर्ण के लोगों को अपने अधीन कर लेते हैं। जब क्षत्रिय ब्राह्मण को त्याग देते हैं, तब उनका वेदाध्ययन आगे नहीं बढ़ता, उनके पुत्रों की भी वृद्धि नहीं होती, उनके यहाँ दूध-दही का मटका नहीं महा जाता और न वे यज्ञ ही कर पाते हैं। इतना ही नहीं उन ब्राह्मणों के पुत्रों का वेदाध्ययन भी नहीं हो पाता। जो क्षत्रिय ब्राह्मणों को त्याग देते हैं, उनके घर में कभी धन की वृद्धि नहीं होती। उनकी सन्तानें न तो पढ़ती हैं और न यज्ञ ही करती हैं। वे पथभ्रष्ट होकर डाकुओं की भाँति लूट-पाट करने लगते हैं। ब्राह्मण और क्षत्रिय सदा एक दूसरे से मिलकर रहें, तभी वे एक दूसरे की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। ब्राह्मण की उन्नति का आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रिय की उन्नति का आधार ब्राह्मण। ये दोनों जातियाँ जब सदा एक दूसरे के आश्रित होकर रहती हैं, तब बड़ी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं और यदि इनकी प्राचीनकाल से चली आती हुई मैत्री टूट जाती है, तो सारा जगत् मोहग्रस्त एवं कर्तव्यमूढ़ हो जाता है-

द्विधा हि राष्ट्रं भवति क्षत्रियस्य ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुध्यतीह।
अन्वग्बलं दस्यवस्तद् भजन्ते तथा वर्णं तत्र विदन्ति सन्तः।।
नैषां ब्रह्म च वर्धते नोत पुत्रा न गर्गरो मध्यते नो यजन्ते।
नैषां पुत्रा देवमधीयते च यदा ब्रह्म क्षत्रियाः संत्यजन्ति।।
नैषामर्थो वर्धते जातु गेहे नाधीयते तत्प्रजा नो यजन्ते।
अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति ये ब्राह्माणान् क्षत्रियाः संत्यजन्ति।।
एतौ हि नित्यं संयुक्तावितरेतरधारणे।
क्षत्रं वै ब्राह्मणो योनियोनिः क्षत्रस्य वै द्विजाः।।
उभावेतौ नित्यमभिप्रपन्नौ संप्रापतुर्महतीं संप्रतिष्ठाम्।।
- महाभारत, शान्तिपर्व-73/46-50

यह प्रसंग महाभारत में दो बार आया है। पुराणेतिहास में इस तरह के अनेक प्रसंग हैं; किन्तु चर्चा केवल भार्गव-हैहय-संघर्ष की होती है। उस समय यदि इस तरह की परिस्थितियाँ न रही होतीं, तो महर्षि कश्यप से राजर्षि पुरुरवा को एतद्विषयक प्रश्न नहीं पूछना पड़ता। इन प्रश्नों को महाभारत युद्ध के पश्चात् सम्राट् युधिष्ठिर ने भी सर-शैय्या पर लेटे पितामह भीष्म से पूछा है। साम्प्रतिक राजनीतिक षडयन्त्र को आप देख ही रहे हैं। सोशल मीडिया के मंच पर भी जितनी तूतू-मैंमैं ब्राह्मण-क्षत्रियों के बीच में दृग्गत होती है, उतनी किसी और जाति के बीच में नहीं। यह भी सत्य है कि ब्राह्मणों ने अपनी त्याग-तपस्या के बल पर भारत की ज्ञान-परम्परा को अक्षुण्ण रखा है। म्लेच्छों ने अनेक बार पुस्तकालयों को जला दिया था। जब ढूँढ़ ढूँढ़ कर वेदों की पोथियों को जलाया जा रहा था, तब ब्राह्मणों ने अपने कण्ठ में वेद भगवान् को सुरक्षित रखा। इस परम्परा को बचाये रखने के लिए ब्राह्मणों की अनेक पीढ़ियाँ हवन हो गयीं।

इसी तरह क्षत्रियों ने अपने रक्त की एक एक बूँद से भारतभूमि का अभिषेक किया है। अपने प्राणों की आहुति देकर सनातन धर्म को सुरक्षित रखा है। राष्ट्रीय चेतना के बीज को अपने लहू से सींचकर क्षत्रियों ने राष्ट्र का निर्माण किया है। आज़ादी के बाद बिना एक क्षण का विलम्ब किये अपनी रियासतों को भारत गणतन्त्र के हवाले कर दिया। आज यदि किसी ज़मीन सरकार अधिग्रहित करती है, तो बाज़ार भाव की तुलना में उसे चार से पाँच गुणा अधिक मुआवजा देती है; किन्तु ज़मींदारी उन्मूलन के समय क्षत्रियों को क्या मिला? सरकार को ज़मींदारी उन्मूलन से ही तृप्ति नहीं मिली। दो दो बार सीलिंग एक्ट लागू करके क्षत्रियों को लगातार भूमिहीन बनाया गया। इसी तरह ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड को निरन्तर ढोंग बताया गया।

वर्तमान राजनीति में यही दोनों जातियाँ सर्वाधिक उपेक्षित हैं। सिनेमा से लेकर साहित्य तक वामपन्थियों ने इन दोनों को आपस में लड़ाने का भयंकर षडयन्त्र किया है। रही सही कसर जातीय संगठनों ने पूरी कर दी है। आप अखिल क्षत्रिय महासभा के इतिहास पर दृष्टिपात करें। भिनगा-नरेश राजर्षि उदयप्रताप सिंह एवं आवागढ़-नरेश बलवन्त सिंह जी ने क्षत्रिय महासभा की स्थापना शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए की थी। आगरा का बलवन्त सिंह राजपूत कॉलेज एवं बनारस का यू.पी. कॉलेज इसके जीवन्त प्रमाण हैं। अमेठी का रणवीर रणञ्जय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलरामपुर का महारानी लाल कुँवरि महाविद्यालय, सिंगरामऊ का राजा हरपाल सिंह महाविद्यालय, जौनपुर का तिलकधारी महाविद्यालय भी इसी शृंखला का अंग है; किन्तु आज अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा किस दिशा में जा रही है? यह किसी छिपा नहीं है।

यही स्थिति अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा की है। ब्राह्मण महासभा का एकमात्र कार्य अक्षय तृतीया के दिन भगवान् परशुराम की जयन्ती मनाकर उन्हें क्षत्रियदलनकर्ता सिद्ध करना रह गया है। क्या सचमुच भगवान् परशुराम का वही व्यक्तित्व है, जिस रूप में अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा उन्हें प्रस्तुत करती है?

आज से लगभग पाँच-छह दशक पूर्व तक ब्राह्मण-क्षत्रियों के मध्य इस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों का घृणास्पद कुचक्र नहीं था। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर थे। गाँवों में समरसता थी। इन्हीं दोनों जातियों के आश्रय में सम्पूर्ण समाज सम्मानपूर्वक जीवनयापन करता था। वस्तुतः वामपन्थियों ने सर्वप्रथम वर्णाश्रम-व्यवस्था को समाज के लिए घातक बताकर ब्राह्मणों को छुआ-छूत का जनक और क्षत्रियों को शोषणकर्ता सिद्ध किया। फिल्मों में एतद्विषयक अनेक काल्पनिक पात्र गढ़े गये। बहुत दिनों तक फिल्मों का खलनायक ठाकुर ही होता रहा। इन सबको समझने की आवश्यकता है। आख़िर इसके पीछे कौन है? क्या इन प्रश्नों का उत्तर वर्तमान पीढ़ी को पाने का हक़ नहीं है?

आज की स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसी महाभारत के उपर्युक्त आख्यान में दर्शायी गयी है। समय रहते ब्राह्मणों और क्षत्रियों को अनुकूल परिस्थितियों का सृजन करना होगा, अन्यथा ब्राह्मण-क्षत्रिय-संघर्ष की अग्नि में राष्ट्र सूखे तिनके की तरह जलकर नष्ट हो जायेगा-

यदा ब्राह्मण क्षत्रियः परस्परं विद्वेस्यन्ते।
तदा क्रत्स्नं राष्ट्रं शुष्केन्धनमिव प्रज्ज्वलित।।

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