छींका अब तक टूटा नहीं, आस बंदरबांट की
भोपाल/विनोद दुबे। मप्र में विधानसभा के चुनावों के माध्यम से अपने जनप्रतिनिधि और सरकार चुनने के लिए प्रदेश के मतदाता आज अपना निर्णय देंगे। 11 दिसम्बर को ईवीएम मशीनें तय करेंगी कि प्रदेश में फिर से भाजपा की सरकार बनेगी या फिर सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथ में होगी। भाजपा को विश्वास है कि मप्र को बीमारू से विकसित बनाने और अगले पांच साल में समृद्धि के शिखर पर पहुंचाने के उसके वादे पर विश्वास कर जनता उसे पुन: सत्ता की चाबी सौंपेगी। वहीं कांग्रेसी दावा कर रहे हैं कि 15 साल बाद मध्यप्रदेश से कांग्रेस का वनवास खत्म होगा और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनेगी। प्रदेश में पुन: भाजपा की सरकार बनी तो तय है कि मुख्यमंत्री का ताज शिवराज सिंह चौहान के सिर पर ही होगा। लेकिन कांगे्रस अब तक यह तय नहीं कर सकी कि बहुमत मिला तो वह किसे मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपेगी। हालांकि जिस तरह से गांधी परिवार के विश्वासपात्र रहे कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ और मप्र कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरों को मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदारों के रूप में कार्यकर्ताओं के माध्यम से चुनाव में प्रचारित कराया गया।
उससे तय माना जा रहा था कि इन दोनों में से ही कांग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री के चेहरे का चयन किया जाएगा। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के चेहरे को क्यों पर्दे के पीछे रखा तथा क्यों कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रचारित कराया। इस बात को प्रदेश की जनता ने भी भली-भांति महसूस किया। सिंधिया को ग्वालियर-चम्बल और मालवा तक अर्थात उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रचारित कराया गया, जबकि कमलनाथ को छिंदवाड़ा सहित उनके प्रभाव क्षेत्र में। इसके पीछे कारण यह रहा कि यदि इन दोनों में से किसी एक को अथवा दोनों को एक दूसरे के प्रभाव वाले क्षेत्र में मुख्यमंत्री पद के रूप में प्रचारित किया जाता तो दोनों ही कांग्रेसी नेताओं के समर्थक शायद कांग्रेस के प्रचार में ही रुचि नहीं लेते। मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रचारित किए गए दोनों ही कांग्रेसी नेता सिंधिया और कमलनाथ केन्द्र में मप्र के दो प्रमुख क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा कांग्रेस की सरकार में केन्द्रीय मंत्री के रूप में उपकृत होते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस ने क्यों पूर्व मुख्यमंत्री के सुपुत्र व विगत दो वर्षों से भाजपा को विधानसभा में घेरते रहे वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से उनके क्षेत्र में कड़ी टक्कर लेने वाले अरुण यादव को पर्दे के पीछे रखा। क्या यह दोनों मुख्यमंत्री पद के दावेदार की योग्यता और क्षमता नहीं रखते।
एक समय खासमखाश रहे सुरेश पचौरी से नेहरू-गांधी परिवार की बेरुखी और उपेक्षा किसी से छुपी नहीं है। खैर चुनाव परिणाम आने तक मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने वाले कांग्रेस के करीब आधा दर्जन कद्दावर नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गढ़ाए बैठे हैं। कमलनाथ और सिंधिया अपनी-अपनी दावेदारी को पक्का मानकर आश्वस्त बैठे हैं। लेकिन शेष नेताओं के बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्हें आश है कि बिल्ली के भाग्य से छींका टूट भी गया तो 'बंदर-बांट में बिल्ली का फायदाÓ वाली कहावत उनके हित में चरितार्थ हो सकती है। अगर सत्ता की चाबी कांग्रेस को मिल भी गई तो सिंधिया और कमलनाथ के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए टकराव होगा तो हाईकमान विकल्प के रूप में उन्हें भी मुख्यमंत्री की कुर्सी थमा सकता है। प्रदेश में सरकार किस दल की बनेगी यह तो 11 दिसम्बर के बाद ही तय होगा, लेकिन कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद का दावेदार वह अज्ञात चेहरा उजागर हो भी पाएगा या नहीं, होगा तो कब तक, यह अभी भविष्य के गर्त में है।