प्रकृति के शोषण नहीं दोहन की भावना पर आधारित है वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा
वेबडेस्क। जीव-जगत-जगदीश के प्रति भारत का अपना एक दर्शन है। जिसे समझने के लिए ज्यादा नहीं केवल दो पंक्तियों से समझ जा सकता है -
"ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्" तथा "सर्वे भवन्तु सुखिनः"।
भारतीय ज्ञान चिंतन इस चराचर जगत के विश्व कल्याण और सार्वभौमिक जीवन मूल्यों पर केंद्रित है, जो विकास एवं उपभोग के समीकरणों को साधते हुए तत्कालिक आवश्यकता पूर्ति के साथ भविष्य को भी दृष्टिगत रखता है। वेदों में वर्णित जीवन मूल्य समस्त मानव जाति के लिए अमूल्य धरोहर है। वेद हमें आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी महान शिक्षाएं देते हैं। वेद हमें बतलाते हैं कि शस्य श्यामला पृथ्वी के प्रति कृतज्ञता का भाव रखिए, उसका शोषण न करें। जैसे हम गाय का दूध दुहने से पहले गाय को पर्याप्त पोषण देते हैं और दूध दुहते समय दो थन का दूध बछड़े के लिए छोड़ देते हैं, ठीक उसी तरह पर्यावरण से लाभ लेते समय उसका भी ध्यान रखना जरूरी है। प्रकृति का दोहन होना चाहिए ना कि शोषण।
वास्तव में , भारतीय ज्ञान चिंतन में 'दोहन' शब्द का अभिप्राय, गाय के दो थन से दूध लेना तथा शेष बछड़े के लिए छोड़ देने से है। इस संदर्भ में एक व्यवहारिक संस्मरण यह है कि किसी किसान ने उदार मन दिखाते हुए चारों थन बछड़े के लिए छोड़ दिया, परिणाम यह हुआ कि उस अनुभवहीन बछड़े की मृत्यु हो गई। इसलिए चिंतन यह कहता है कि चारों थानों का उपयोग करना जहां शोषण है तो वहीं चारों थानों को बछड़े को दे देना भी स्वास्थ्य संगत नहीं है। अतः केवल दो थन से दूध लेना ही दोहन है, और शेष थन बछड़े के लिए छोड़ने से संतुलन बना रहेगा।
इस प्रकार समग्रता में यह बात प्रकृति संतुलन में भी लागू होती है कि हमें प्रकृति का शोषण नहीं दोहन ही करना चाहिए। इस बार विश्व पर्यावरण दिवस का ध्येय वाक्य 'एक ही पृथ्वी' में हमारी वैदिक अवधारणा वसुधैव कुटुंबकम का भाव समाहित है। "वसुधैव कुटुंबकम" अथवा "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" एक उदात्त आदर्श वाली प्राचीन वैदिक अवधारणा प्रकृति से अधिकतम लेने के स्थान पर प्रकृति को देने की भावना पर आधारित है।
प्रकृति दोहन से उपजे पर्यावरण संकट तथा घटते जीवन मूल्यों के बीच विकास के साथ पर्यावरण के भौतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आयामों का संरक्षण और संवर्धन करना आवश्यक है।जहाँ 50 साल पहले 1972 में हुई स्टॉकहोम सम्मेलन लगभग विफल हो चुका है, 1992 के संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन, अमीर व गरीब देशों के खाँचे का भेंट चढ़ चुका है। अमीर जहां अपना अस्तित्व बने रहने की आवश्यकता पर उपदेश दे रहे थे,वहीं गरीब विकास की मांग कर रहे थे। यह विश्व का पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी लापरवाही को प्रदर्शित करता है।
जलवायु परिवर्तन की बात की जाए तो इससे तात्पर्य है की समृद्धि देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करें ताकि विकासशील देशों को बिना प्रदूषण विकास का मौका मिले। विकासशील देशों ने कहा कि बिना प्रदूषण फैलाए हुए विकास सुनिश्चित करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए धन एवं प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की जरूरत पड़ेगी।
मनुष्य ने आधुनिक दौर में विकास के जो तौर-तरीके अपनाए उनसे प्रकृति को नुकसान ही पहुंचाया है। और जीवन के लिए आवश्यक संसाधन या तो नष्ट हुए हैं या प्रदूषित। आज हालात यह है कि कई प्रजातियां विलुप्ती के कगार पर हैं, और जलवायु परिवर्तन के रफ्तार लगातार जारी हैं। इसलिए स्टॉकहोम सम्मेलन 2022 व्यक्तिगत और निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर 'एक ही पृथ्वी, के भाव से प्रेरित हो भविष्य की योजनाओं पर संकल्पती होना चाहिए।
अतः मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य और पृथ्वी के संरक्षण के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस पर पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का सन्तुलन न बिगड़े। पृथ्वी से ही नाना प्रकार के फल-फूल, औषधियाँ, अनाज, पेड़-पौधे आदि उत्पन्न होते हैं तथा पृथ्वी-तल के नीचे बहुमूल्य धातुओं एवं जल का अक्षय भण्डार है। अतः इसका संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है ताकि पृथ्वी के ऊपर जीव-जगत सदैव फलता-फूलता रहे। ऋग्वेद में भी बताया गया है कि यह पृथ्वीलोक, अन्तरिक्ष, वनस्पतियाँ, रस तथा जल एक बार ही उत्पन्न होता है, बार-बार नहीं, अतः इसका संरक्षण आवश्यक है।