कमलनाथ के लश्कर में दिग्विजय से बिगड़ा कांग्रेस का खेल….
इस जनादेश को मोदी-शिवराज और लाडली बहना का सम्मिलित परिणाम बताया जा रहा है लेकिन यह जनादेश का समग्र विश्लेषण नही है क्योंकि इस प्रचंड जीत में एक बड़ा कारक "सनातन"पर कांग्रेस का दोहरा स्टैंड भी है जिसे एक बड़े मतदाता वर्ग के मतदान व्यवहार में चुनावी पंडित पकड़ नही पा रहे हैं।मप्र में इसका ज्यादा असर इसलिए भी रहा क्योंकि श्री दिग्विजय सिंह जैसे नेता जनता के सामने थे।कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के आपसी मतभेद एक तरफ और दिग्विजय सिंह की हिन्दू विरोधी छवि ने भी इस जनादेश की इबारत से कांग्रेस को बाहर करने में अहम भूमिका का निर्वहन किया है।अंदाजा लगाया जा सकता है कि दिग्विजय सिंह के भाई,भतीजे दोनो तो हारे ही है साथ उनके पुत्र जयवर्धन भी हारते हारते बचे है।यही नही राजगढ़ जिले में उनकी पार्टी का सफाया भी हो गया है।जिस तरह फ्रंटफुट पर आकर दिग्विजय सिंह कांग्रेस के चुनाव अभियान को मध्यभारत क्षेत्र में लीड कर रहे थे उससे लोगों के मन मे उनकी हिन्दू विरोधी छवि भी मतदान तक घुमड़ती रही।लोगों को उनका दस साल का कार्यकाल ओर सनातन विरोधी चेहरा भी याद आता रहा।
बेशक कमलनाथ इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद के घोषित और निर्विवाद दावेदार थे कांग्रेस की ओर से।लेकिन कांग्रेस के चुनावी लश्कर की कल्पना दिग्विजय सिंह जी के बिना कोई कर नही पा रहा था।ऐसे में बुनियादी सवाल यह है कि क्या इस शिकस्त के पीछे दिग्विजय सिंह भी एक अहम फैक्टर है?
दिग्विजय सिंह की राजनीतिक क्षमताओं और उनके जुझारूपन का कोई सानी नही है लेकिन सच्चाई यह भी है कि कांग्रेस के राजनीतिक उत्थान के समानांतर उसके पराभव में भी राधौगढ़ के इस पूर्व राजा का बराबर का योगदान है।मप्र के ताजा सन्दर्भ की ही बात करें तो दिग्विजय सिंह की कतिपय मामलों में हठधर्मिता और छिपी हुई प्रबल राजनीतिक महत्वकांक्षी मानसिकता ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की।टिकट वितरण में जिस तरह उन्होंने मालवा ,महाकोशल से लेकर ग्वालियर अंचल में अपनी राय थोप कर कमलनाथ के समानांतर खड़ा होने का प्रयास किया उसका दुष्परिणाम नतीजों की शक्ल में कल साफ नजर आया है।
ग्वालियर अंचल में केपी सिंह,डॉ गोविंद सिंह,गोपाल सिंह चौहान डग्गी राजा,घनश्याम सिंह ,प्रियव्रत सिंह, लक्ष्मण सिंह,जयवर्द्धन सिंह,राहुल भदौरिया जैसे उम्मीदवार दिग्विजय सिंह की निजी पसन्द के थे ।इनमें से जयवर्धन को छोड़कर सभी 6 लोग चुनाव हार गए। शिवपुरी में वीरेंद्र रघुवंसी के टिकट पर हुई खींचतान ने यह साबित भी किया कि कमलनाथ जिस सर्वे के आधार पर टिकट बांटने की बात कर रहे थे वह दिग्विजय सिंह के आगे ढेर हो गया।
सार्वजनिक रूप से दिग्विजय सिंह भले ही कमलनाथ को सीएम बनाने की बात कहते रहे लेकिन अंदर खाने दिग्विजय सिंह के दिमाग में सब कुछ इतना सहज नही था इसलिए कांग्रेस आलाकमान को सुरजेवाला के साथ दोनो नेताओं को बीच चुनाव में दिल्ली तलब करना पड़ा था।
सवाल फिर यही कि क्या दिग्विजय सिंह कमलनाथ एक रहने का दिखावा भर कर रहे थे।जिन 22 बागियों ने कांग्रेस को 19 सीट्स का गड्ढा दिया वहां दिग्विजय औऱ कमलनाथ बागियों को मनाते हुए क्यो नजर नही आये?कांग्रेस के पूरे चुनाव अभियान में कमलनाथ -दिग्विजय में कोई साम्य नजर नही आया।राहुल गांधी और प्रियंका की सभाओं तक मे दोनो नेताओं ने एक साथ मंच साझा करने से एक तरह का परहेज किया।जबलपुर ओर चन्देरी की सभा इसके प्रमाण हैं।
बताया जाता है कि दोनों नेताओं के मध्य प्रत्याशी चयन में सार्वजनिक मतभेदों के मद्देनजर हाईकमान ने वित्तीय प्रबंधन भी सीधे दिल्ली से मैनेज किया।आंतरिक सूत्र बताते है कि कमलनाथ ने इस चुनाव में वित्तीय रूप से संसाधन झोंकने में 2018 की तुलना में कंजूसी से काम किया।दिग्विजय समर्थक नेताओं को ऐसी मदद से भी कमलनाथ ने हाथ खींचे थे।
जाहिर है मप्र में कांग्रेस की इस स्थिति के लिए दिग्विजय सिंह की अतिशय सक्रियता को भी अंदरखाने एक अहम फैक्टर माना जा रहा है।लोगों को लगा कमलनाथ के लश्कर के असल खिलाड़ी कहीं दिग्विजय सिंह तो नही है।