कमलदल की पंखुड़ियां हमारी "मातृभाषाएं"
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष - मातृभाषा और संस्कृति के अंतर्संबंध
भाषा का इतिहास मनुष्य के सभ्यता के इतिहास से जुड़ा है। जैसे- जैसे सभ्यताओं का विकास हुआ, भाषाओं ने भी अपना आकार लेना शुरू किया। 'भाषा' दरअसल मनुष्य के स्वभाव में ही है। मनुष्य का सारा जीवन- व्यापार ही भाषा से जुड़ा है। सिर्फ विचार- विनिमय तक की बात नहीं है। एक अर्थ में मनुष्य भाषाजीवी है, क्योंकि जीवन का सारा कार्य- व्यापार भाषा से ही चलता है। जन्म के बाद मनुष्य का भाषा से पहला परिचय उसकी मातृभाषा से होता है। इस अर्थ में भाषा का पहला पाठ मातृभाषा है।
मातृभाषा के अनुरूप ही उसका आचार- व्यवहार भी बनता है। यानि परिवेश और परिवार के साथ-साथ मनुष्य अपनी मातृभाषा में भी पलता-बढ़ता है। यही कारण है कि मातृभाषा का महत्व अन्य भाषाओं की तुलना में दुनिया के लगभग सभी देशों में पहले पायदान पर है। भाषा का महत्व इस संदर्भ में भी समझा जा सकता है कि पूरी दुनिया के देशों को एक-दूसरे से जोड़ने का माध्यम भाषा ही है। भाषा ही वह सूत्र है, जिससे एक- दूसरे देश की सभ्यताओं और संस्कृतियों से परिचित हुआ जा सकता है। बिना भाषा के न तो दुनिया के देश बन सकते थे और न ही कोई समाज अस्तित्व में आता। व्यक्ति होता भी तो एकाकी होता। सभ्यता की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
दरअसल मातृभाषा का व्यक्ति या समाज या किसी भी देश के अस्तित्व में उतना ही महत्व है जितना किसी व्यक्ति के शरीर में रक्त का। यानि मातृभाषा समाज का ऑक्सीज़न है, जिसके द्वारा किसी भी संस्कृति का श्वाश्न-तंत्र चलता है। किसी भी देश की मातृभाषा ही वह भाषायी शक्ति है, जिसके द्वारा उसकी सांस्कृतिक और बौद्धिक- आंतरिक शक्ति का विकास होता है। जब- जब किसी देश की मातृभाषाएँ विलुप्तता के कगार पर आयी हैं, उसके साथ संबंधित संस्कृति भी विलुप्त हो गयी है। क्योंकि संस्कृति को जीवित रखने का मुख्य कारक उसकी मातृभाषा ही है।
मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक और भाषाई पहचान होती है। व्यक्ति के सभी संस्कार और व्यवहार मातृभाषा के अनुरूप ही बनते हैं। अर्थात व्यक्ति, उसके बाद समाज की संरचना में मातृभाषा का बड़ा योगदान होता है। भारत जैसे बहुभाषिक देश के लिए गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतीय संस्कृति और भाषा के संदर्भ में कहा था, 'भारतीय संस्कृति एक शत विकसित कमल दल की तरह है जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी हमारी विकसित भाषाएँ हैं। किसी भी पंखुड़ी के नष्ट होने से कमाल की शोभा नष्ट हो जाएगी'। स्पष्ट है कि उन्होंने हर भाषा के महत्व पर बल दिया। क्योंकि बहुभाषिकता किसी भी देश की शक्ति होती है जो संस्कृति को सबल देती है।
आज दुनिया भर में मातृभाषा को सम्मान दिलाने और उसके गौरव को स्मरण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। इसी बहाने दुनिया के तमाम देशों की मातृभाषाओं की स्थिति- परिस्थिति पर कुछ सार्थक विमर्श भी हो जाता है। साथ ही उन मातृभाषाओं को बचाने की भी बात होती जो छोटे समुदाय में प्रयुक्त होती हैं। भाषा संबंधी वैश्विक आंकड़ों के बारे में दुनिया की भाषाओं को लेकर 'एथनोलॉग' वेबसाइट की रिपोर्ट की माने तो दुनिया भर में भाषाएँ घट रही हैं। कुछ छोटे समुदायों की मातृभाषाएँ समुदायों के खत्म होने के साथ भाषा के साथ संस्कृति भी विलुप्तप्राय हो गयी हैं। जैसे 2020 की खबरों की माने तो अंडमान की जनजाति की भाषा 'सारे' की एकमात्र बची सदस्य 'लीचो' के मर जाने के साथ ही उसकी भाषा भी समाप्त हो गयी।
यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में लगभग 7,000 भाषाएँ बोली जाती हैं। अकेले भारत में 19,500 से अधिक उपभाषाएं या बोलियां हैं जो मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं। (जनगणना 2011) भारत में 121 ऐसी भाषाएँ हैं जो 10,000 या उससे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हैं। भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण 2013 के अनुसार पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाएँ लुप्त हो गयी हैं। जबकि 197 विलुप्त होने के कगार पर हैं। वैश्विक स्तर पर देखें तो 7,000 विश्व भाषाओं में से 90% का उपयोग 1 लाख से कम लोगों द्वारा किया जाता है। एशिया में दुनिया की 2,200 भाषाएँ हैं, जबकि यूरोप में 260 हैं। पूरी दुनिया में भाषाओं की स्थिति पर यूनेस्को ने यह बताया है कि वर्तमान में 2,500 भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा है। एथनोलॉग के अनुसार, दुनिया की आधी आबादी महज 24 भाषाएं बोलती है। इनमें मुख्य रूप से चीनी मंदारिन, स्पेनिश, अंग्रेजी, हिंदी, पुर्तगाली, बंगाली, रूसी, जापानी, जावानी और जर्मनी शामिल हैं।
विश्व की केवल एक प्रतिशत आबादी लगभग 5,000 भाषाएं बोलती हैं। इनकी वजह से 3,500 भाषाएं जिंदा हैं। जिन भाषाओं को खरता है वे छोटे समुदायों की मातृभाषाएँ हैं। कई विद्वान इन भाषाओं में अलग लिपि का न होना भी भाषा के खत्म होने का कारण मानते हैं तो कई ये मानते हैं कि भाषा का प्रयोग न होने से भाषाएँ मर जाती हैं। एथनोलॉग की रिपोर्ट के अनुसार न्यूजीलैंड की 100 प्रतिशत, संयुक्त राज्य की 98 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया की 89 प्रतिशत, कनाडा की 88 प्रतिशत, चिली की 86 प्रतिशत, मलेशिया की 83 प्रतिशत, जापान की 81 प्रतिशत, ब्राजील-इंडोनिशया की 62 प्रतिशत, नेपाल की 61 प्रतिशत देसज भाषाओं तथा भारत की 30 प्रतिशत देसज भाषाएं विलुप्तिकरण के खतरे की श्रेणी में आती हैं। इन डराने वाले आंकड़ों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि निश्चित रूप से भारत में नई शिक्षा नीति 20202 में जो मातृभाषा में शिक्षण की बात कही गयी है, भाषाओं को बचाने में मिल का पत्थर साबित होगी। क्योंकि जिस भाषा में मनुष्य जन्म लेता है, जिस भाषा में सोचता है, वह सर्जनात्मकता के लिए अधिक बेहतर होती है, सीखी गयी अन्य भाषाओं की तुलना में। क्योंकि अपनी भाषा से ही मौलिक चिंतन संभव है, दूसरी भाषाओं के द्वारा मनुष्य सिर्फ परचिंतन का अनुगामी ही बन सकता है। अतः दुनिया की विलुप्त हो रही समस्त भाषाओं के प्रयोग पर बल देने तथा उस भाषा के द्वारा शिक्षण होना जरूरी है ताकि भाषा बची रहे, जिससे संस्कृति बची रहे और मौलिक चिंतन आगे बढ़े।