देश तोड़ने वालों का कैसा मानवाधिकार
एक बड़ा प्रश्न है कि देश तोड़ने वालों का कैसा मानवाधिकार ? वस्तुतः जिन लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने की साजिश में पकड़ा गया है, उन पर नक्सलियों से साठगांठ रखने के आरोप पहले से लगते रहे हैं, किन्तु राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में जिस तरह से स्वतः संज्ञान लिया है, उसे देखकर कई देशभक्तों के मन में प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि क्या ये आयोग इसी काम के लिए है कि जो देश तोड़ने का काम करें, उनकी सुरक्षा में आगे आये? आयोग का कहना है कि उसके यहां से मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी किया गया है। आयोग का अपना तर्क यह है कि इन पांच लोगों की गिरफ्तारी के लिए स्टैंडर्ड प्रोसीजर का पालन नहीं किया गया। जबकि अब तक के मीडिया रिपोर्ट्स में यही बताया गया है कि पुलिस को जिस तरह अपराधियों के साथ व्यवहार करना चाहिए और उन्हें गिरफ्तार करना चाहिए वैसे ही इन सभी को पकड़ा गया है ।
किसी को ये नहीं भूलना चाहिए कि पीएम मोदी की हत्या की साजिश के सिलसिले में पुणे पुलिस ने देश के छह राज्यों में छापा मारकर इन पांच माओवादी कार्यकर्ताओं को पकड़ा है। इनको ऐसे ही नहीं पकड़ा गया, बल्कि इसी साल जून में गिरफ्तार किए गए अन्य माओवादी नक्सलियों से पूछताछ के आधार पर इन्हें पकड़ा गया है। सभी पर समान रूप से प्रतिबंधित माओवादी संगठन और नक्सलियों से रिश्ते का आरोप है। इनमें से ज्यादातर पर यह आरोप पहले से ही है। आश्चर्य इस बात को लेकर भी है कि मनमोहन सिंह सरकार में भी इस तरह से तमाम लोगों को देशविरोधी गतिविधियों में संलिप्तता होने के अंदेशे और प्रमाणिकता के आधार पर जेलों में डाला गया था, तब किसी ने इस बात का विरोध नहीं किया कि मनमोहन सरकार अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट रही है? यह लोकतंत्र की हत्या है?
पुणे पुलिस ने दावा किया है कि उसके पास डिजिटल कन्वर्सेशन (बातचीत) और अन्य साइबर सबूत हैं, जो भीमा-कोरेगांव दंगे के मामले में गिरफ्तार 10 सिविल राइट एक्टिविस्ट को जोड़ते हैं। इनमें से कुछ लोगों पर यूपीए-द्वितीय के समय से नजर रखी जा रही है। इससे जुड़ा एक पक्ष यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट में इतिहासकार रोमिला थापर और अन्य लोगों के याचिका लगाने के बाद गिरफ्तार सभी कार्यकर्ताओं को 6 सितंबर तक घर में नजरबंद रखने का आदेश दिया है।
इस संबंध में केंद्र की मोदी सरकार पर आरोप लगाने वाली खुद कांग्रेस और उसके मुखिया राहुल गांधी को भी यह समझना चाहिए कि मोदी सरकार और अन्य राज्य सरकारें वही कर रही हैं जो देशहित में है तथा पूर्ववर्ती सरकार ने जिस दिशा में अपनी कार्रवाई बढ़ाई थी वर्तमान सरकार भी उसी कार्रवाई को आगे बढ़ाते हुए चल रही है। कांग्रेस को यह तो याद होगा ही कि दिसंबर 2012 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को लिखा था कि वे 128 संगठनों के साथ जुड़े लोगों पर कार्रवाई करें। सरकार ने तब कहा था कि इन संगठनों का सीपीआई (माओवादी) के साथ संबंध था। भीमा-कोरेगांव दंगे के मामले में हुई देशव्यापी छापेमारी में जिन सात लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनका संबंध लिस्ट में शामिल 128 संगठनों से मिला है। इसलिए राहुल गांधी यदि सरकार को घेरते हुए ट्वीट कर रहे हैं कि 'भारत में सिर्फ एक ही एनजीओ के लिए जगह है और वह है आरएसएस, सभी कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दो और जो शिकायत करे, उसे गोली मार दो,' उसका कोई औचित्य ही नहीं है। वास्तव में इस विषय पर उनके द्वारा की जा रही राजनीति भी समझ के परे है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन को इस मामले में घसीटना तो बिल्कुल भी उचित नहीं है।
जिन्हें पकड़ा गया है उनका इतिहास यही बताता है कि वे कहीं न कहीं नक्सलियों से जुड़े रहे हैं। हर जगह बताया जा रहा है कि वामपंथी विचारक वरवर राव वीरासम (रिवोल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन) के संस्थापक सदस्य हैं और गरीबों के लिए काम करते हैं। किंतु क्या यही पूरा सच है? गरीबों के लिए देश में तमाम देशभक्त काम करते हैं, तो क्या सरकार उन्हें भी जेल में बंद करती है या शक की निगाह से देखती है? निश्चित तौर पर नहीं, लेकिन राव को देखा गया है क्योंकि उनके संबंध नक्सलियों से हैं। इसके लिए उन्हें सबसे पहले 1973 में गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद उन्हें 1975 से लेकर 1986 तक अनेक बार कई मामलों में गिरफ्तार किया जा चुका है।
दिल्ली से गिरफ्तार नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सुधा भारद्वाज 38 साल से छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं। वे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की राष्ट्रीय सचिव हैं। पिछले 30 सालों से एक समर्पित ट्रेड यूनियन की कार्यकर्ता हैं और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की ओर से मजदूर बस्तियों में काम कर रही हैं। उनके द्वारा अब तक तमाम श्रम, भूमि अधिग्रहण, वनाधिकार और पर्यावरणीय अधिकार से जुड़े मुकदमे मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और गरीब लोगों की ओर से लड़े जा चुके हैं और लड़े जा रहे हैं, यहां तक सब ठीक है। किंतु जो संबंध उनके भी नक्सलियों के साथ होने के पुलिस को मिले हैं, वे उन्हें कहीं न कहीं कटघरे में खड़ा करते हैं। मुंबई स्थित सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा के बारे में सभी जानते हैं कि प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओ) की संचार और प्रचार ईकाई के प्रमुख हैं। इसी प्रकार कहने को मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनानेवाले गौतम नवलखा अपनी निजि और सामाजिक जिंदगी में सफल इंसान हो सकते हैं किंतु उन पर भी नक्सलियों से जुड़े होने के आरोप लगते आए हैं। वे पीपल यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स और इंटरनेशनल पीपल ट्रिब्यूनल ऑन ह्यूमन राइट्स एंड जस्टिस इन कश्मीर जैसे संगठनों से जुड़े रहे हैं। इस बार फिर उनकी नक्सलियों के साथ साठगांठ होने के सबूत पुलिस के हाथ लगे हैं।
मुंबई विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडलिस्ट और रूपारेल और एचआर कॉलेज के पूर्व प्रवक्ता रहे वेरनन गोंसाल्विस कहने को अपनी बिरादरी में विद्वानों की श्रेणी में आते हैं, लेकिन उन पर नक्सलियों से जुड़े होने का आरोप कोई नया नहीं है। पूर्व में छह साल जेल में गुजार चुके हैं, यद्यपि तब उन्हें सुबूतों के अभाव में बरी करना पड़ा था किंतु इस बार पुलिस के हाथ उनके नक्सलियों के साथ मिले होने के पुख्ता सबूत लगे हैं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि इस दफे उनका बचकर निकलना मुश्किल होगा। इसी प्रकार से आनंद तेलतुंबड़े, फादर स्टेन स्वामी और सुसान अब्राहम के यहां से भी पुलिस को इनके नक्सलियों से जुड़े होने के पुख्ता प्रमाण मिल चुके हैं। कहने को तो ये सभी समाजिक कार्यकर्ता हैं, किंतु समाज कार्य की आड़ में देश को कमजोर करने का ही काम कर रहे हैं, इसीलिए कहा जा रहा है कि जो देश तोड़ने की बात करे, उसको कमजोर करने की राह पर चले, उसका कोई मानवाधिकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि देश से बढ़कर कुछ भी नहीं। क्योंकि देश का अस्तित्व तभी है जब हमारी सार्वभौमिकता है और स्वतंत्र पूर्ण अस्तित्व भी। विचार करें, क्या मानवाधिकार के नाम पर जो तमाशा हो रहा है वह सही है?
(लेखक पत्रकार एवं फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य हैं)