आपातकाल : लोकतांत्रिक मूल्यों पर तानाशाही का प्रहार

आपातकाल : लोकतांत्रिक मूल्यों पर तानाशाही का प्रहार
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-अमित त्यागी

वेबडेस्क। आपातकाल देश में एक बार लगा किन्तु उसकी जैसी स्थितियाँ कई बार बनाई गईं। कभी असहिष्णुता के नाम पर तो कभी पुरुस्कार वापसी के नाम पर। कभी मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग के नाम पर तो कभी दलित आंदोलन के नाम पर। ऐसी ही विडंबनाओं के बीच आपातकाल के परिदृश्य को रेखांकित करता एक लेख

आपातकाल सिर्फ एक संवैधानिक घटनाक्रम नहीं था बल्कि वह तानाशाही की राजनीति एवं लोकतान्त्रिक परंपरा के बीच एक युद्ध था। वह संवैधानिक संस्थानों के प्रति अविश्वास का भाव प्रदर्शित करने वाली विचारधारा थी। एक ओर उसमे न्यायालय के निर्णय का अपमान था तो दूसरी तरफ न्यायाधीशों को अपने समक्ष झुकाने का अप्रत्यक्ष संदेश भी था। आपातकाल की घटना कोई एक दिन में घटित नहीं हुयी थी बल्कि यह तानाशाह बनने की तरफ बढ़ रही इन्दिरा गांधी के घटनाक्रम की परिणीती थी। बांग्लादेश पर विजय के बाद इन्दिरा गांधी इतनी ज़्यादा अति आत्मविश्वास की शिकार हो गयीं थीं कि लोकतान्त्रिक विरोध भी उन्हे स्वयं का विरोध लगने लगा था।

बैंको का राष्ट्रीयकरण -

इन्दिरा गांधी ने बैंको का राष्ट्रीयकरण किया था। जब इस मामले पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हुयी तो 1970 में अपने फैसले में न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के उस फैसले (जिसमे पचास करोड़ या उससे ज़्यादा कारोबार वाले चौदह बैंको का राष्ट्रियकरण रद्द करने का फैसला था ) को इस आधार पर रद्द कर दिया कि इसमे बैंक को मुआवजा देने का प्रावधान नहीं था । कुल ग्यारह न्यायाधीश वाली इस पीठ में सिर्फ एक न्यायाधीश जस्टिस ए एन रे ने इस फैसले का विरोध किया था। इसके बाद कुछ स्वतंत्र एवं साम्य विचारधारा वाले दलों से मिल रही चुनौतियों के चलते इन्दिरा गांधी ने एक अध्याधेश पारित किया कि प्रिवी पर्स को समाप्त कर दिया जाये। उच्चतम न्यायालय ने दिसम्बर 1970 के अपने फैसले में उसे भी खारिज कर दिया।

फैसलों से तिलमिलाना शुरू -

इस तरह इन्दिरा गांधी संवैधानिक संस्था न्यायालय के द्वारा दिये गये फैसलों से तिलमिलाना शुरू हो गईं। उनके अंदर तानाशाही का भाव इस कदर घर कर रहा था कि उन्होने जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर जैसे वरिष्ठों को दरकिनार करते हुये अपने चहेते जस्टिस ए एन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। इसी क्रम में 1973 के शुरुआत दिनों में महंगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा गरमाने लगा। गुजरात में इंजीनियरिंग कालेज में मेस के बिल मे वृद्धि एवं बिहार मे शैक्षणिक सुधार के लिये आंदोलन तेज़ हो गये। यह जेपी नारायण का समय था और जनता उनके साथ थीं। सरकार का विरोध काफी तेज़ था। इन सबके बीच में इन्दिरा गांधी के लोकसभा क्षेत्र में उनके विरोधी प्रत्याशी रहे राजनारायन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इन्दिरा गांधी की जीत को चुनौती देती हुयी एक याचिका डाल रखी थी जिसमे इन्दिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होने चुनावी मशीनरी का दुरुपयोग और सीमा से अधिक पैसा खर्च करते हुये चुनाव जीता है। इसके साथ ही एक आरोप यह भी था कि उन्होने मतदाताओं को पैसा देकर खरीदा है। इस याचिका पर 12 जून 1975 को फैसला आया। इन्दिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म कर दी गयी। छह साल तक उनके किसी भी पद पर रहने पर रोक लगा दी गयी। इन्दिरा गांधी ने इस फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय मे अपील की किन्तु जेपी नारायण का आंदोलन अपने चरम पर था और 25 जून 1975 को पूरे देश मे आंदोलन का आवाहन कर दिया गया।

ये घटना क्रम -

जनता के लोकतान्त्रिक अधिकार को इन्दिरा गांधी भूल गयीं और उस दिन वह संसद भी नहीं गयीं। सत्ता जाने के खतरे को भाँपते हुये उन्होने अपने कानूनी सलाहकार एवं पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे एवं अन्य को बुलाया। इसके बाद राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद से पहले रात के नौ बजे एक मुलाकात की एवं इसके बाद रात मे सवा ग्यारह बजे इन्दिरा गांधी के सचिव आर के धवन राष्ट्रपति भवन पहुंचे। राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये। ऐसा कहा जाता रहा है कि राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अहमद ने इन्दिरा गांधी के उकसावे में हस्ताक्षर तो कर दिये थे किन्तु रात भर इसके बाद वह सो नहीं पाये। उनको एहसास हुआ कि शायद उन्होने एक बड़ी एतेहासिक भूल कर दी है। इसके बाद देश के उच्च न्यायालयों एवं प्रेस पर ताला लगा दिया गया। बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये। मौलिक अधिकार खत्म हो गये और उन्नीस महीने तक एक लाख दस हज़ार आठ सौं लोग गिरफ्तार हुये। आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) के तहत जेपी, जार्ज फर्नांडीस एवं अटल बिहारी जैसे नेता गिरफ्तार हुये।

संविधान की व्याख्या -

नब्बे के दशक के पहले ज़्यादातर समय कांग्रेसी शासन रहा। 1993 के पहले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार के द्वारा होती थी। वह जिसे चाहती थी, नियुक्त कर देती थी। उस समय कुछ सरकारों ने संविधान की व्याख्या कुछ इस तरह से कर रखी थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश से विचार-विमर्श करना तो आवश्यक है, लेकिन उसकी सलाह से पूरी तरह सहमत होना सरकार के लिए अनिवार्य नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने सरकार का समर्थन 1982 में 'फर्स्ट जजेज़' वाले मामले में कर दिया था। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संदर्भ में उस समय परंपरा यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही देश का मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता था। लेकिन इंदिरा सरकार ने संवैधानिक अधिकारों का दुरुपयोग करते हुये इस परंपरा को अपनी मर्जी से परिवर्तित कर दिया।

सर्वोच्च शिखर पर बरकरार रहने की कवायद -

1973 में तीन न्यायाधीशों जेएम शेलत, केएस हेगड़े और एएन ग्रोवर की वरिष्ठता को लांघकर जस्टिस एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। इसके पीछे की वजह थी कि इन न्यायाधीशों ने केशवानंद भारती के मामले में सरकार के खिलाफ फैसला दिया था। इसके बाद जैसे ही जस्टिस रे की नियुक्ति हुई वैसे ही तीनों न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय से अपना इस्तीफा दे दिया। 1977 में एक बार फिर से वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस एचआर खन्ना को नियुक्त करने के बजाय इंदिरा सरकार ने एमएच बेग को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। जस्टिस खन्ना ने भी आपातकाल के दौरान एक ऐसा फैसला दिया था जो इन्दिरा सरकार के विरोध में था। जस्टिस खन्ना ने इसके बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद 1993 से न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली नयी व्यवस्था "कॉलेजियम सिस्टम" का जन्म हुआ।इस तरह आपातकाल सिर्फ एक घटना नहीं थी। वह सत्ता का सर्वोच्च शिखर पर बरकरार रहने की कवायद थी। आज भी हमारी व्यवस्था उस मानसिकता से उभर नहीं पा रही है।

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