अवसाद बढ़ाते आत्महत्याओं के कारक

अवसाद बढ़ाते आत्महत्याओं के कारक
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मुनीष भाटिया

वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक युग में युवा वर्ग में बढ़ रहीं आत्महत्याओं की प्रवृत्ति समाज के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। कहीं पाठ्यक्रम का मानसिक दबाव तो कहीं प्रतियोगी परीक्षा में बार-बार मेहनत करने के बावजूद मनवांछित सफलता ना प्राप्त करना और लंबे समय तक बेरोजगार रहने से आत्महत्याओं के मामलों में वृद्धि कर रहा है। समाज व राष्ट्र के जिस युवा को समाज का भविष्य बनना है वह मानसिक दबाव के दौर से गुजर रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक विश्व में हर चालीस सेंकेंड में एक आत्महत्या का मामला उजागर हो रहा हैं। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल की रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या करने वाले कुल मामलों में लगभग 32 प्रतिशत लोगों की उम्र 18 साल से 30 साल के बीच थी।

युवाओं में आत्महत्या के कारण क्या हैं और इससे बचने का क्या समाधान किया जाना चाहिए जानते हैं। वैसे भी खुदकुशी करना कोई सरल कार्य नहीं है किंतु फिर भी शिक्षण में जुड़े युवा वर्ग में इसकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। एक स्वस्थ मन वाले व्यक्ति के लिए आत्महत्या जैसा कुकृत्य करने हेतु कदम उठाना, अवसाद की पराकाष्ठा के फलस्वरुप ही होता है। कई बार शिक्षण संस्थान द्वारा मानसिक दबाव अथवा परीक्षा या क्लास रूम में पिछड़ना भी इसका कारण हो सकता है। युवा अवस्था में पनपते प्रेम प्रसंग में धोखा भी इसका कारण होता है। किंतु आत्महत्याओं के वर्तमान मामलों पर नजर दौडायें तो खुदकुशी के बढ़ते मामले प्रेम प्रसंग से इतर अन्य पंजीकृत मामले हैं। इन मामलों के लिए जितने शिक्षण संस्थान जिम्मेदार हैं उस से कहीं अधिक दोषी अवसादग्रस्त उसके अभिभावक भी होते हैं। नि:संदेह इस कायरतापूर्ण कृत्य के लिए दोषी स्वयं तो होता ही है। यदि एक पल के लिए अपने हृदय को अपनी क्रियाओं का दर्पण मानने हुए विवेचन करने का अभ्यास करें तथा एक क्षण के लिए ये मनन करें कि आत्महत्याओं जैसा कुकृत्य करने के पश्चात् परिवार पर क्या बीतेगी तो निश्चित ही प्रायश्चित का भाव उत्पन्न हो सकता है। यह अफसोस का विषय है कि भारत जैसे देश में खुदकुशी के मामलों की जांच तो होती है किंतु सामाजिक परिवेश और बदनामी के डर से अधिकतर मामले दबा लिए जाते हैं । यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि आत्म निरीक्षण व आत्म विश्लेषण कर अपनी गलतियों को सुधारने की बजाय हम अपने विवेक दर्पण में वही सब कुछ देखना चाहते हैं जो हमारा मन चाहता है । अभिभावक वर्ग जो अनावश्यक अपेक्षाएं अपने बच्चों से करने लगते हैं वह किशोर मन पर मानसिक दबाव डालने का काम करता है जब वो युवा खुद को इन अपेक्षाओं के समक्ष खुद को कमतर पाता है तो वह अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगता है । ये बात तो सर्वदा सत्य है कि बालक में जितनी क्षमता होगी वह उतना ही श्रेष्ठ दे पाता है। किंतु फिर भी अभिभावक वर्ग अनावश्यक अपेक्षाओं के कारण अपनी संतान के मन को कुंठित कर रहे हैं। आत्महत्या से पूर्व अपने संतान के मनोभाव को ना पढ़ पाना भी अभिभावक वर्ग की कमजोरी होता है। क्योंकि खुदकुशी करने वाला प्राणी स्वस्थ मानसिक अवस्था में ग़र हो तो इस तरह का कदम उठाने के बारे नहीं सोच सकता।

आत्महत्या करने वाले के बिगड़ते मनोभाव को ना पढ़ पाने के कारण ही आत्महत्या के मामलों में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हो रहीं है जिसके लिए अभिभावक वर्ग भी कम दोषी नहीं है। अत: ये परिवार की जिम्मेदार हो जाती है कि अनावश्यक अपेक्षाएं अपनी संतान के प्रति ना रखें और उसे पढ़ने के लिए उसकी रुचि के अनुसार ही विषय चयन करने में सहयोग दें। अभिभावक वर्ग को अपनी संतान के बर्ताव पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि उनकी संतान के खान पान अथवा सोने की आदत में बदलाव आ रहा हैं तो ये भी चिंता का विषय हो सकता है । इसके अलावा यदि संतान की सामान्य गतिविधियों में अरुचि पैदा होने लगे अथवा मौत का भय समाप्त हो जाए और जान जोखिम में डालने जैसी हरकतें शुरू कर दी जाएं तो अभिभावक को सतर्क हो जाना चाहिए। कई बार अवसादग्रस्त होकर संतान नशीले पदार्थों का सेवन अचानक से आरंभ कर दे तो इस ओर भी परिवार जन के लिए उस बालक का खुदकुशी का संकेत हो सकता है। अत: परिवार की ये जिम्मेदार बनती है कि वह अपने बच्चों की रुचि और मानसिक व्यवहार को पहचाने और अपनी संतान की मनोदशा के प्रति सतर्क रहें तभी आत्महत्याओं जैसे मामलों में कुछ रोक लगनी संभव हो सकती हैं। (लेखक स्तंभकार हैं)

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