शठ को माकूल सबक !
वेबडेस्क। सोशलिस्ट स्वीडन गणराज्य की राजधानी स्टाकहोम में रुसी दूतावास से सटी सड़क का नाम कल (29 अप्रैल 2022) से ''मुक्त यूक्रेन राजमार्ग'' रख दिया गया है। रुसी तानाशाह व्लादीमीर पुतिन द्वारा स्वाधीन गणराज्य यूक्रेन में नृशंस नरसंहार की मुखालिफत में तथा वहां की जनता के साथ एकजुटता दर्शाने के लिए ऐसा किया गया है। स्टाकहोम की माडरेट (मध्यममार्गीय) पार्टी की महापौर श्रीमती एन्ना कोनिज जेर्लमीर ने शिलापट्ट लगाते वक्त ऐलान किया कि ''विश्व को यह एक संकेत मात्र नहीं, एक संदेश भी है कि मानवता के शत्रु के विरुद्ध सभी एक साथ हैं।''
ठीक ऐसा ही कदम उठाया उत्तर यूरोप के स्वीडन से दो हजार किलोमीटर दूर पूर्वी यूरोप के राष्ट्र हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट के महापौर, गोर्जली सिल्वेस्टर कारास्कोनी की समन्वयवादी ''राष्ट्रीय संवाद पार्टी'' ने। उनका मिलता—जुलता प्रतिरोध चन्द माह पूर्व किया गया था। कम्युनिस्ट चीन ने हंगरी में बन्दरगाह, गांव, पार्क आदि खरीद लिये। ठीक जैसा श्रीलंका में उसने किया। दिवालिया बना दिया। आक्रोश व्यक्त करने के लिये महापौर कारास्कोनी ने चीन दूतावास से लगी सड़क का नाम ''दलाई लामा मार्ग'' रख दिया। इस वक्त चीनी अधिनायकवाद के क्रूरतम व्यवहार से पीड़ित है यह बौद्ध संत। गौतम बुद्ध के अवतार दलाई लामा को माओवादी चीन अपना घोरतम शत्रु मानता है।
गत सदी में ''हिन्दी—चीनी, भाई—भाई'' के एतबार को चकनाचूर कर माओवादी चीन ने जब अरुणाचल, लद्दाख तथा भूटान पर हमला किया था तो समाचारपत्रों में कई राष्ट्रवादियों ने सुझाया था कि नयी दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित शांतिपथ का नाम बदलकर ''मुक्त तिब्बत मार्ग'' रख दिया जाये। सांकेतिक विरोध तो कम से कम हो पाता। मगर भारतीय सरकारी नेताओं की उदासीनता शर्मनाक रही। चीनी हमले के बाद शांतिपथ मार्ग भारत—चीन सीमा—अशांति का पर्याय बन चुका है। चीन की अतिवादिता का प्रतिकार करने में नेहरु से अटल बिहारी वाजपेयी तक कोई भी साहस नहीं जुटा पाये। उन पर चीन का इतना खौफ रहा।
इस भांति की नाम परिवर्तन की मांग सार्वजनिक और जनवादी थी क्योंकि चीन कई बार बीजिंग— स्थित दूतावास और भारतीय राजनयिकों पर हमला करता रहा। बड़ा घृणित तथा लोमहर्षक वाकया था 4 जून 1967 का, जब बीजिंग में भारतीय दूतावास में राजनयिक कृष्णन रघुनाथन तथा पी. विजयन को अवांछित करार दिया। उस दौर में माओ की छोटी (लाल) पुस्तिका पढ़कर रेड गार्ड्स युवजन ने भारतीय दूतावास पर अंतर्राष्ट्रीय आचरण की अवहेलना का आक्रमण किया। रघुनाथन का कालर पकड़ कर कमीज फाड़ दी। विजयन को घायल कर दिया। उनके सर झुकाकर जमीन पर रगड़े गये। उन पर जासूसी का आरोप मढ़कर देश से भगा दिया।
इस हेय घटना का विस्तृत विवरण भारतीय सैन्य अधिकारी प्रबल दासगुप्त ने अपनी पुस्तक ''वाटरशेड—1967'' तथा जेरोम ए. कोहेन ने ''चीन और अंतर्राष्ट्रीय कानून'' में लिखा है। इन राजनयिकों का केवल अपराध था कि वे लोग ''स्लीपिंग बुद्ध'' के मंदिर दर्शनार्थ गये थे।
बीजिंग हवाई अड्डे पर इन राजनयिकों को 13 जून 1967 में दिल्ली जाते वक्त पीटकर घायल कर दिया। नंगे पैर वे भारत पहुंचे। यह पूरी रपट वामपंथी, चीन समर्थक ''दि हिन्दु'' (चैन्नई दैनिक में) 15 जून 1967 को छपी थी। उसी बीच भारतीय राजदूत राम साठे के आवास पर विध्वंस हुआ। भारत ने भी माकूल जवाबी कार्रवाही की। दिल्ली में चीन दूतावास के राजनयिकों को निष्कासित किया गया। विदेश मंत्री तथा मुम्बई के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश मोहम्मदअली करीम छागला थे। उनके न्यायसम्मत, निर्णय का यह नतीजा था कि ''जैसे को तैसा हो।'' चीन समझ गया कि 1967 की भारत सरकार 1962 वाली नरमवादी लचर नेहरु सरकार जैसी नहीं थी।
याद कीजिये कश्मीर पर जब फौजी शासक मार्शल मोहम्मद अयूब खा ने सितम्बर 1965 में हमला बोला था वामनाकार प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्र को बताया कि ''भारतीय सेना भी लाहौर में टहलने चली गयी।'' भयभीत अयूब तुरंत कश्मीर से भागे लाहौर बचाने। बेहतर जवाब दिया था नरेन्द्र मोदी ने बालाकोट (27 फरवरी 2019) आतंकी प्रशिक्षण शिविर पर बम बरसा कर । तब पुलवामा में भारतीय सैनिकों की आतंकवादियों ने निर्मम हत्या कर दी थी।
जनता ने भी अपना अनुमोदन दिया मोदी को दूसरी बार प्रधानमंत्री निर्वाचित कर। नरेन्द्र मोदी का शौर्य बहुत याद दिलाता है पीवी नरसिम्हा राव की। प्रधानमंत्री के नाते उन्होंने पंजाब मुख्यमंत्री सरदार बेअन्त सिंह को आदेश दिया था कि खालिस्तानी आतंकी से ''भली भांति'' निपटो। अन्तर्राष्ट्रीय सीमा अमृतसर से खिसकर अंबाला नहीं आयेगी।'' यही हुआ। नरसिम्हा राव ने भारतीय गुप्तचर संस्था (रॉ) से कहा था यदि दिल्ली—मुम्बई में एक ट्रेन गिरती है तो लाहौर और कराची में दो—दो रेलें गिरेंगी।'' चरारे शरीफ तथा बाबरी ढांचे का भी ऐसा ही हस्र किया गया था।
अर्थात सोनिया—कांग्रेस को ऐसा ही देखना, सुनना, जानना तथा करना होगा, यदि वे भारत की हैं तो। अब सैन्य नीति पर लोग लस्टम पस्टम नीति कतई पसंद नहीं करेंगे। पुलवामा—बालाकोट इसका साक्ष्य है।