143वाँ गिरमिट स्मृति दिवस : अतीत से सीख और अतीत पर गर्व
फीजीवासियों ने अभी हाल ही में 14 मई, 2022 को फीजी सहित विश्वभर में गिरमिट स्मृति दिवस को बड़े ही श्रद्धाभाव से मनाया और गिरमिटिया भारतवंशियों के योगदान को याद करते हुए उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। भारत गणराज्य की राजधानी नई दिल्ली में भी फीजी गणराज्य के महामहिम उच्चायुक्त श्री कमलेश प्रकाश जी के नेतृत्व में गिरमिट स्मृति दिवस के अवसर पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन दिनांक 15 मई, 2022 को किया गया जिसमें मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनिडाड व टुबैको आदि देशों के राजनयिकों सहित भारत के विदेश राज्यमंत्री, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् के महानिदेशक तथा अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया ।
यह तथ्य आज सर्वविदित है कि गिरमिट युग हमारे इतिहास का सबसे अंधकारमय और उपेक्षित युग रहा है, इसलिए उन सभी गिरमिटिया भारतवंशियों को आज याद करने और उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने की आवश्यकता है जिन्होंने वर्तमान फीजी को सभी मायनों में उत्कृष्ट आकार देने में अपने खून-पसीने को बहाकर, अनेक दुःख-दर्द सहकर भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
14 मई, 2022 को फीजी में भारतीयों के आगमन के 143 वर्ष पूरे हुए हैं क्योंकि 14 मई 1879 को कलकत्ता बंदरगाह से चलकर लेवनिदास जहाज़ द्वारा शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत गिरमिटिया भारतवंशियों ने सुदूर और अंजान फीजी की धरती पर पहली बार अपने कदम रखे । अगले चार दशकों में लगभग 61000 भारतीयों को शर्तबंदी प्रथा के निलंबित किए जाने तक वर्ष 1916 तक, फिजी में गन्ने के खेतों में कार्य करने के लिए ले जाया गया और अंततः 1920 में शर्तबंदी प्रथा को उसकी खामियों के चलते समाप्त कर दिया गया। यह भी सर्वविदित है कि ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि हेतु सस्ते श्रम की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए दासता के एक नए रूप में गिरमिटिया दासता शुरू हुई थी ।
भोले-भाले, गरीब और अशिक्षित भारतीय श्रमिकों ने ब्रिटिश सरकार के एजेंटों के बहकावे में आकर बिना सोचे-समझे उस 'एग्रीमेंट' पर अपने अंगूठे के निशान लगा दिए जिसे वे 'गिरमिट' कहने लगे और इसी 'गिरमिट दस्तावेज़' ने उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया। ब्रिटिश एजेंटों द्वारा भारत के भोले-भाले, गरीब और अशिक्षित श्रमिकों को झूठा सपना दिखाया गया कि कलकत्ता से मात्र कुछ घंटे की दूरी पर ही फीजी स्थित है जहाँ पहुँचकर उन्हें अधिक लाभ होगा, सुख-सुविधाएँ मिलेगीं और उनका भविष्य स्वर्णिम हो जाएगा । पर सच्चाई यह है कि फीजी, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनिडाड व टुबैको जैसे गिरमिटिया देशों में भारतीय बंधुआ मजदूरों के सभी अधिकारों का हनन हुआ और उन्हें कुली लाइन्स में नारकीय जीवन जीना पड़ा ।
फीजी के गिरमिटिया भारतवंशियों की कहानी भी अन्य गिरमिटिया देशों की भांति ही झूठ, धोखाधड़ी, मानव तस्करी और भर्ती करने वाले एजेंटों द्वारा धोखे की त्रासदी थी और साथ ही यह कहानी पानी के जहाज़ों पर लंबी यात्रा के दौरान बीमारी, भूख, भेदभाव और अत्याचार की त्रासदी भी थी ।
गिरमिटिया देशों में भारतीय बंधुआ मजदूरों के पहुँचने पर ये स्थितियाँ और बदतर तो गईं क्योंकि गिरमिटियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया, उन्हें सुविधाहीन परिवेश में रहने को मजबूर किया गया, उनसे कमरतोड़ मेहनत करवाई गई, उन्हें समस्त अधिकारों और स्वतंत्रता से वंचित किया गया जिसके परिणामस्वरूप कई बंधुआ मजदूरों ने अपनी जान गवां दी । 80 प्रतिशत से अधिक गिरमिटिया निर्दिष्ट समय में अपने कार्यों को पूरा नहीं कर सके जिसके कारण उनकी अधिकांश मजदूरी काट ली गई और उनकी एग्रीमेंट अवधि भी बढ़ा दी गई ताकि उनसे लंबे समय तक बंधुआ मजदूर के रूप में गन्ने के खेतों में काम करवाया जा सके ।
यही नहीं उन देशों में उस समय गर्भवती गिरमिटिया महिलाओं से प्रसव तक काम करने की उम्मीद की जाती थी और प्रसव के कुछ दिनों के भीतर ही उन्हें खेतों में काम करने के लिए लौटना होता था तथा जब वे ऐसा करने से मना करती थीं तो उन्हें जान से मार भी दिया जाता था। गिरमिटिया मजदूरों के लिए कोई चिकित्सा सुविधा और स्कूल की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। अगर गिरमिटिया मजदूरों के बच्चे अंग्रेजों के विद्यालयों में चले भी जाते थे तो उन्हें मारपीट कर भगा दिया जाता था । गिरमिटियों के साथ किया गया दुर्व्यवहार आज किसी भी मानक से अस्वीकार्य है और इसे कभी भी नहीं भुलाया जा सकता।
औपनिवेशिक प्रशासकों और उनके सरदारों द्वारा लंबी यात्रा के दौरान तथाकथित गिरमिटियों के या बंधुआ मजदूरों, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के साथ किए गए धोखे एवं दुर्व्यवहार आदि को लेकर प्रचुर इतिहास लेखन हुआ है और साहित्य भी लिखा गया है । विगत दशकों में ब्रिटिश शिक्षा पाए हुए लोगों और पश्चिमी लेखकों के साथ-साथ फीजी के लेखकों द्वारा बहुत कुछ लिखा गया है। "पंडित तोताराम सनाढ्य" की अग्रणी रचनाओं को छोड़कर इनमें से अधिकांश लेखकों ने अंग्रेजी भाषा में लिखा है तथा पंडित तोताराम सनाढ्य 1914 में फीजी से भारत लौटने पर अपने अनुभवों और फीजी में 'गिरमिया मजदूरों' की दयनीय स्थिति के बारे में 'फीजी में मेरे इक्कीस वर्ष' नामक किताब हिंदी में लिखने वाले पहले व्यक्ति थे जिसे बाद में भारत की कई क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित किया गया। इस पुस्तक के प्रकाशन ने भारत में पाठकों और नेताओं को झकझोर दिया तथा फीजी सहित गुयाना, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, कैरेबियाई द्वीपों के ब्रिटिश उपनिवेशों में गिरमिटिया मजदूरों के संघर्षों को सबके समक्ष उजागर करने में सहायता की। संयोग से तोताराम सनाढ्य की पुस्तक फीजी में अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित पहली पुस्तक भी थी और बाद में शर्तबंदी प्रथा को समाप्त करने के अभियान में इस पुस्तक ने महत्वपूर्ण कार्य किया ।
हालाँकि हिंदी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं परंतु समय के साथ धीरे-धीरे पाठकों की संख्या घटती गई और हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी में लेखन ज्यादा होने लगा । यह औपनिवेशिक देश की ताकत और प्रभाव का असर था। कई वर्षों तक, फीजी की औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली में हिंदी का कोई स्थान नहीं था, तथा गिरमिटिया भारतवंशियों के प्रयास और संघर्ष के बाद प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक स्तरों में हिंदी का शिक्षण शुरू हुआ ।
अंततः आज हिंदी को आईतौकी और अंग्रेजी के साथ फीजी की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिली हुई है। फीजी के नए संविधान-2013 का हिंदी में भी अनुवाद किया गया है। आज फीजी के गाँवों और शहरी क्षेत्रों में हिंदी व्यापक रूप से बोली जाती है । फीजी के पहले हिंदी समाचार पत्र, 'शांति दूत' के प्रकाशन ने आम जनता को हिंदी में पढ़ने - लिखने में एक बड़ी भूमिका अदा की परंतु खेद का विषय है कि 85 साल से प्रकाशित हो रहे इस समाचार पत्र का प्रकाशन अब बंद हो गया है । भारतीय पत्रकारों, स्कूल शिक्षकों, पंडितों, हिंदी और संस्कृत के छात्रों (विशेषकर भारत सरकार की छात्रवृत्ति पर भारत से लौटने वाले छात्र) ने फीजी में हिंदी प्रकाशन को बहाल करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
छह पीढ़ियों के उपरांत जैसा कि आज फीजी में परिलक्षित होता है, गिरमिटियों द्वारा अपनी भावी संतति के लिए खून-पसीना बहाकर, जुल्म-अन्याय सहकर भी बहुत ही सुंदर ढंग से सहेजी गई एक विशाल विरासत देखने को मिलती है। गिरमिटिया मजदूर भारतीय महाकाव्य रामायण के पुरुषोत्तम राम से प्रेरणा पाकर हर विषम परिस्थिति में भी डटे रहे, अन्याय का विरोध करते रहे और शिक्षा को प्राथमिकता देते रहे क्योंकि वे जानते थे कि शिक्षा ही गरीबी और दासता से मुक्ति का एकमात्र तरीका है।
गिरमिटिया भारतवंशियों ने अपने कम संसाधनों में भी फीजी के कोने-कोने में कई स्कूलों और चिकित्सालयों का निर्माण किया और सभी जाति-समुदायों के लिए विद्यालयों के प्रवेश द्वार को खुला रखा जिसका सुपरिणाम आज सबको मुग्ध कर रहा है। यही नहीं गिरमिटिया भारतवंशियों ने अपनी भावी संतति के लिए न केवल फीजी की सड़कों, पुलों, घाटों, रेलवे लाइनों और हवाई पट्टियों आदि का निर्माण किया अपितु कस्बों एवं शहरों को बसाने से लेकर उत्तर-औपनिवेशिक अर्थव्यवस्थाओं की नींव भी रखी। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने फीजी में मंदिरों, गुरुद्वारों और मस्जिदों का निर्माण किया तथा अपनी सभ्यता-संस्कृति, भाषा-बोली, तीज-त्यौहार, रीत-रिवाज और परंपराओं को जीवित रखा।
यह गर्व की बात है कि फीजी सरकार ने सभी गिरमिटियों को फीजी के नागरिक के रूप में मान्यता प्रदान की है तथा फीजी के नए संविधान -2013 के अंतर्गत फीजी के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार प्रदान किए गए हैं । फीजी के सभी नागरिकों की शिक्षा और आवश्यक सेवाओं तक एक समान पहुँच है, सभी को मौलिक स्वतंत्रता प्राप्त है और जातीयता, रंग, लैंगिकता, सामाजिक-आर्थिक स्थिति अथवा किसी अन्य चीज़ के आधार किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है जैसा कि उनके साथ पहले किया जाता था। गिरमिटिया बंधुआ मजदूरों के वंशज आज राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीवन के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान कर रहे हैं जिसकी बदौलत विश्व पटल पर फीजी की प्रतिष्ठा बढ़ी है ।
गिरमिटिया भारतवंशियों ने फीजी में भारतीय सभ्यता-संस्कृति, भाषा-बोली, तीज-त्यौहार, रीत-रिवाज और परंपराओं को किस प्रकार संरक्षित रखा है इस बात का प्रमाण आप फ़ीजी में जाकर अथवा उसके बारे में पढ़कर खुद देख सकते हैं।