डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रकार्य का बोध कराया
वेबडेस्क। किसी राष्ट्र का विकास और संस्कार राष्ट्र विशेष को, नागरिकों को, अपने प्रेरणा पुंज से प्राप्त होता है। यह वह अनमोल सम्पत्ति होती है जिस पर भविष्य का संकल्प गढ़ा जाता है और इसे आकार देने में पूर्वजों का संघर्ष जुड़ा होता है।
भारतीय परिदृश्य में आद्य सरसंघचालक डॉक्टर बलिराम केशव हेडगेवार जी वह नाम है जिन्होंने राष्ट्र के लिए भविष्य का एक साकार स्वरूप खड़ा किया। उन्होंने देश की स्वतंत्रता, राष्ट्र निर्माण और भविष्य को संस्कारित करने के अलावा और कुछ नहीं चाहा। आत्मविश्वासी, लगनशील डॉक्टर साहब राष्ट्रउद्धार के उद्देश्य के साथ जीये इसके लिए सम्पूर्ण जीवन समर्पित किया। राष्ट्र में एकरस राष्ट्रीय भाव पिरोने वाले इस पथ-दृष्टा का जन्म 1889 को वर्ष प्रतिपदा के दिन नागपुर में पं. बलिरामजी के यहां हुआ। अत्यन्त विपन्नता में बचपन बिताने वाले वे डॉक्टर हेडगेवार जी ही थे जिन्होंने परतन्त्र भारत में नील सिटी हाईस्कूल के अपने स्कूल के दिनों में ही वन्देमातरम को लेकर आन्दोलन किया। यह वह समय था जब वंदेमातरम का उच्चारण भर करना अपराध था। स्कूल से निकाले जाने पर यवतमाल की राष्ट्रीय शाला में प्रवेश लिया। सन् 1910 में कोलकाता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुए।
राष्ट्रीय नेताओं को जेल में बन्द
1907-08 के प्रचण्ड स्वदेशी आन्दोलन के बाद, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय आदि राष्ट्रीय नेताओं को जेल में बन्द कर दिया गया था, तब डॉ. हेडगेवार जी राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा को प्रज्जवलित करते हुए राजनीति के गरम दल में शामिल हो गये। उनका छह वर्ष तक का कोलकाता वास वह काल था, जब बंगाल में क्रांति धधक रही थी। श्यामसुन्दर चक्रवर्ती, बाबू मोतीलाल घोष, अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक गण व अन्य क्रांतिकारियों के मध्य वे कई आन्दोलनों में शामिल हुए। साथ ही देश बांधवों के प्रति सेवा भाव से जुड गये।
सहयोग आन्दोलन के प्रखर वक्ता
वर्ष 1915 से 1924 तक स्वतंत्रता संघर्ष के साथ आन्दोलनों और संस्थाओं के निरीक्षण, अध्ययन विश्लेषण के साथ राष्ट्र के विकास का पथ खोज रहे थे। हिन्दुस्तान का क्षेत्रफल, जनसंख्या, प्राकृतिक संपदा, तत्वज्ञान संस्कृति, इतिहास, पराक्रम विद्वत्ता, कला-कौशल के बावजूद वह कौन सी कमी है जिससे राष्ट्र का पतन हुआ ? इस प्रश्न ने उन्हें विचलित कर दिया। उन्होंने संकल्प लिया कि इस राष्ट्रीय कमी को संस्थागत रूप से दूर किया जाना जरूरी है। अन्यथा परतन्त्रता की पुनरावृत्ति संभव है। देश की पराधीनता की खिन्नता डॉ. साहब द्वारा सन् 1902 के बाद से ही उनके प्रखर भाषणों में मुखरित होने लगी थी। उनकी निर्भीकता, बेबाकपन का उत्कर्ष ही था कि 1912 में उन पर चलाये जाने वाले मुकदमें पर न्यायालय में अपने कार्य का समर्थन करके मुंहतोड़ जवाब दिया और असहयोग आन्दोलन में प्रखर वक्ता बने।
स्वराज के लिए राष्ट्रीय एकता आवश्यक -
वे स्वराज के लिए राष्ट्रीय एकता को आवश्यक समझते थे। उन्होंने हिन्दुत्व की व्यापक अर्थों में विवेचना की। वे हिन्दू धर्म को केन्द्रीय शक्ति के रूप में शक्तिशाली राष्ट्र निर्माण के घटक के रूप में अनिवार्य समझते थे। अंततः मंथन कर डॉ. साहब इस नतीजे पर पहुंचे कि हिन्दुस्तान ही भारत का राष्ट्रीयत्व है। हर हिन्दुस्तानी के मन में यह भाव जागे कि वो इस महान राष्ट्र के घटक हैं। उन्होंने इस दुर्लभ अनुष्ठान को आकार देने का संकल्प लिया। जिसमें एक तरफ जन-जागरण किया, तो दूसरी तरफ संघठन सूत्र में एकत्रित करना आरम्भ किया। राष्ट्रउद्धार के इस दुर्गम कार्य के लिए सारा जीवन देकर संकल्पित हो गये। वर्ष 1925 में विजया दशमी के दिन उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की। और राष्ट्र के युवाओं में निहित शक्ति को जागृत कर दिखाया। उन पर आरोप-प्रत्यारोप लगे, आलोचना के अनेक प्रसंग आये पर डॉ. साहब रत्ती भर विचलित हुए बगैर संगठन को विस्तारित करने में जुटे रहे।
संघ-शाखा में जाने पर रोक -
मध्य प्रांतीय सरकार ने 1932 में सरकारी कर्मचारियो को संघ में भाग लेने पर पाबंदी लगा दी जिसे देखा-देखी, संस्कृति व समाज हित से पल्ला झाड़ते हुए अपनी ही जिला परिषदों, नगरपालिकाओं और अन्य शिक्षा संस्थानों ने भी अपने कर्मचारियों, विद्यार्थियों के रिश्तेदारों, विद्यार्थियों को संघ-शाखा में जाने पर रोक लगा दी।
प्रांतीय विधानसभा में बहसबाजी के बाद तत्कालीन मंत्रीमंडल का पतन हुआ तथा संघ कार्य का परिप्रेक्ष्य मध्यप्रांत से बाहर तक फैल गया और फिर इस तपोनिष्ठ कर्णधार का मार्ग विस्तृत होता गया। उन्होंने समाज को संगठित कर प्राण फूंके तथा संघ कार्य को अपना जीवन कार्य बना लिया। डॉ. साहब की हर एक सांस संघ कार्य की धरोहर थी। उन्होंने दलगत राजनीति से मुंह मोड़ लिया और अपनी दिनचर्या संघमय कर ली। अपने संगठन में परस्पर सहयोग का वातावरण बनाया। अपनत्व का भाव जगाया तथा हरेक को घटक में शामिल किया। डॉ. साहब के लिए श्री गुरु गोलवलकर जी ने कहा है - उनमें माता का वात्सल्य, पिता का उत्तरदायित्व तथा गुरु की शिक्षा का समन्वय था, यदि मैं ऐसा कहूँ कि वे ही मेरे ईष्ट देव थे इसमें किंचित भी अतिशयोक्ति न होगी, उनके सहवास से मुझे अनुभव हुआ कि इस सर्वसाधारण मनुष्य की तरह रहने वाले व्यक्ति में सचमुच ही कुछ असाधारण है। बगैर किसी सहारे के इतना प्रचण्ड कार्य करने वाला व्यक्ति एक महान विभूति ही हो सकता है। इस समाज के पत्थरों में से एक लाख चैतन्य युक्त मूर्तियों का निर्माण होना ही उनकी महत्ता का प्रमाण है। एक-एक स्वयं सेवक के विषय में चिंता करने वाले हजारों हृदय का निर्माण कर डॉक्टर साहब ने असम्भव को सम्भव कर दिया था।
मानवता जगाने का असहज कार्य -
उनकी राष्ट्र विषयक आत्मीयता पोर-पोर में बसी थी, स्व-भाव से सेवा के लिए मानवता जगाने का असहज कार्य करना सिर्फ डॉ. हेडगेवार की ही आत्मशक्ति का परिणाम था। उनके लिए वयोवृद्ध आबाजी हेडगेवार ने कहा "डॉक्टर जी ने सब प्रकार के विरोध तथा उपहास की परवाह न करते हुए यह दुर्गम कार्य किया संघ के लिए अत्यंत कष्ट उठाये हैं, अपनी शक्ति ध्येयपूर्ति के लिए खर्च हो इस उद्देश्य से उन्होंने सर्वस्व का बलिदान कर संसार के सुखों को त्याग दिया। डॉ. हेडगेवार अपने व्यक्तिगत सर्वस्व को त्यागकर एक संस्था बन गये और संघठन का किला खड़ा किया जिसका प्रत्येक प्रहरी मात्र शारीरिक प्रहरी न होकर आंतरिक भाव से जुड़ा था।
एक दूसरे के प्रति निष्ठा ही संघ की विचार धार -
उन्होंने संगठन का जो स्वप्न देखा था उसे अपनी कार्यकुशलता से सार्थक कर दिखाया। डॉ. साहब की यह सार्थकता मात्र आख्यान भर से न थी। अनेक सजीव अंतःकरणों को एक सांचे में ढालने का यह दुर्गम कार्य उनकी अपनी निष्ठा का परिणाम था। उनकी यह निष्ठा अंतिम समय तक रही उन्होंने अपने अंतिम संदेश में कहा था - हमारे संघ की विचार धारा ही एक दूसरे के प्रति निष्ठा व स्नेह से बंधी है। हमें आपस में पहचान की जरूरत नहीं हम मानवी मित्र हैं। तन-मन-धन से संघ का कार्य करने लिए अपने दृढ़ निश्चय को अखंडित रूप में जागृत रखिए। संघ केवल स्वयं सेवकों के लिए नहीं संघ के बाहर जो लोग हैं, उनके लिए भी है। हमारा यह कर्तव्य हो जाता कि उन लोगों को हम राष्ट्रउद्धार का सच्चा मार्ग बताएं।
अपने अंतिम क्षणों तक राष्ट्रउद्धार की कामना करने वाले डॉक्टर साहब का संघ कार्य ही उनके जीवन का कार्य रहा। प्रभावी व्यक्तित्व, अपूर्व संघठन कौशल, तीव्र विवेचन बुद्धि, अथाह नीति, प्रखर राष्ट्रभक्ति के साथ वे जन्मभूमि के लिए जीये और राष्ट्र को एक विचार एक संघठन देकर गये। 21 जून 1940 को संसार से विदा लेने तक वे स्वप्रेरणा से राष्ट्र कार्य के लिए प्रेरित करते रहे। स्वतंत्रता के बाद आज राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में सामाजिक मूल्यों की आती गिरावट को डॉ. हेडगेवार जी ने वर्षों पहले भांप लिया था। निःसंदेह उनकी सोच का यर्थाथ दिखता है। आज वास्तव में समाज में संस्कार, सिद्धांत और संगठनात्मक उच्चता की आवश्यकता है। इनके बिना राजनैतिक, सामाजिक और सार्वजनिक श्रेष्ठता संभव ही नहीं है।