दलाई लामा को भारत रत्न देने की मांग का निहितार्थ
वेबडेस्क। आज अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस है और तिब्बत के लोग दमित मानवाधिकार के सबसे बड़े उदाहरण हैं। दुनिया में अधिकांश जगह उनके लिए केवल घड़ियाली आंसू बहाए जा रहे हैं। फिर भी, दुनिया भर में सबसे अधिक धैर्य के साथ जीने वाली यह कौम भारत से सर्वाधिक अपेक्षा रखती है और इस नाते वह मानवाधिकार दिवस के बजाय इस 10 दिसंबर को अपने सर्वस्व व प्रमुख परम पावन दलाई लामा को नोबेल पुरस्कार मिलने की स्मृति को उत्सव के रूप में मनाते हैं। यह एक भाव है, जो मनुष्यता का परिचायक है और जिसे तिब्बती लोगों ने अक्षुण्ण रखा है।
पूरी दुनिया को पता है कि तिब्बत को वर्ष 1959 में चीन ने पहले छल करके और बाद में बलपूर्वक हड़प लिया। हालांकि तिब्बतियों के लिए सब कुछ उनके दलाई लामा ही हैं। तिब्बती बौद्ध मत के अनुसार दलाई लामा को भगवान बुद्ध की बोधिसत्व परंपरा का भाग माना जाता है। इस कारण, दलाई लामा स्वयं में भगवान बुद्ध के अंश माने गए और इस नाते अवतार परंपरा उनके यहां आज भी लागू है। जिसके अकाट्य प्रमाणस्वरूप उनके यहां प्रत्येक दलाई लामा के पुनर्जन्म का साक्ष्य मिलता है। वर्तमान में, यह 14वें दलाई लामा है, जिन का वास्तविक नाम तेनजिन ग्यात्सो है। अब अगला दलाई लामा कौन होगा, वह अपनी मृत्यु के पहले अपने पुनर्जन्म का संकेत देकर जाएंगे। उनकी इस चमत्कारिकता के मध्य वामपंथी चीन बहुत बौना साबित हो जाता है। तिब्बत पर कब्जा करने के बाद भी और सारे अत्याचार करने के बाद भी तिब्बतियों के हृदय से दलाई लामा को बाहर कभी नहीं कर सका। इसलिए तिब्बती लोगों के लिए एक जागृत राष्ट्र के रूप में दलाई लामा ही हैं। अब इस बात को समझने की आवश्यकता है कि तिब्बतियों को केवल और केवल भारत से जो स्वीकार्यता निरंतर चाहिए, उसमें उनकी यह हार्दिक इच्छा भी है कि दलाई लामा को भारत का सर्वोच्च सम्मान यानी भारत रत्न मिल जाए। विश्व के सबसे बड़े यानी नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी तिब्बतियों की यह मांग कुछ लोगों को अजीब लग सकती है लेकिन आप उस भाव को तो समझिए कि तिब्बती समाज भारत को कितने अपनेपन से देखता है और अपने इस दूसरे घर से वह चाहते हैं कि यहां का भी सर्वोच्च सम्मान दलाई लामा को मिले। सवाल यह उठता है कि ऐसे में हम सब को भी इसकी पुरजोर मांग क्यों करनी चाहिए? क्योंकि भारत रत्न दिए जाने से स्वयं भारत रत्न की सार्थकता सिद्ध होगी और प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में यह देखने को भी मिल रहा है।
हालांकि अभी 12 दिन पहले 28 नवंबर को भारत में तिब्बती लोगों के लिए काम करने वाले कोर ग्रुप की दिल्ली में आयोजित बैठक में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच वाले इंद्रेश कुमार इस मांग का विरोध करते हुए बोले कि परम पावन जब तक तिब्बत को भारत का अपना भाग न बताएं, तब तक भारत रत्न देने का कोई आधार नहीं बनता। उनके इस विरोध के तत्काल बाद तिब्बत की निर्वासित सरकार के मुखिया, जिन्हें सिक्योंग नाम की पदवी दी जाती है, वह पेंपा शेरिंग ने उनके इस बात को खारिज करते हुए कहा कि तिब्बत और तिब्बतियों के हित के लिए कुछ हमें भी सोचने दीजिए। सिक्योंग पेंपा शेरिंग ने उन्हें आईना दिखाते हुए कहा कि हम यह तो नहीं कहते कि भारत की सेना तिब्बत को आजाद कराने के लिए चीन से युद्ध करे लेकिन चीन की दानवता की पराकाष्ठा के बीच दलाई लामा की मानवता की पराकाष्ठा के चलते भारत रत्न की मांग नाजायज कतई नहीं है। और, कई बार कुछ बयान कूटनीति के लिए भी दिए जाते हैं इसलिए भी परम पावन के किसी विचार पर टिप्पणी करने के पूर्व सोचना चाहिए।
इस पूरे वाकए से स्पष्ट है कि तिब्बत मुक्ति साधना में खलल डालने या भ्रमित करने का कार्य कुछ कथित तिब्बत हित चिंतकों ने कर रखा है। वर्ष 1962 के समय जब देश के तत्कालीन रक्षा मंत्री के रवैए को लेकर आलोचना हो रही थी, उस समय आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख गुरु गोलवलकर ने चेतावनी दे दी थी कि चीन आगे अभी और खतरा बनेगा। बाद में, आरएसएस के चौथे प्रमुख युगदृष्टा व वैज्ञानिक प्रो. राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया को अपनी दृष्टि से लगा कि चीन पूरे विश्व के लिए खतरा बनेगा और भारत को वह सबसे अधिक नुकसान पहुंचाएगा। उनकी दृष्टि व निर्देश पर आरएसएस के तत्कालीन वरिष्ठ प्रचारक अधीश कुमार, जिन्हें बाद में पांचवें मुखिया के सी सुदर्शन के साथ बनाई योजना में हिमाचल के शिक्षाविद प्रो कुलदीप अग्निहोत्री को एक्शन प्लान के लिए लगाया गया। उस समय देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से पत्रकार हेमेंद्र तोमर को भी लगाया गया। वर्ष 1998 की उस योजना के बाद, राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग तिब्बती आंदोलन की मुख्य धारा में शामिल हुए तो अबाध गति मिली लेकिन अधीश कुमार के निजी सचिव रहे संघ के तत्कालीन प्रचारक विजय मान इस बात को भी स्वीकारते हैं कि के सी सुदर्शन व अधीश कुमार की अचानक रहस्यमयी मौत ने यहां दक्षिणपंथी विचार को थोड़ा ठहराव दे दिया। फिर भी, अब उसी विचारधारा के चलते तिब्बत मुक्ति साधना में गति आई है और देश में कई प्रखर मुखर संगठन सामने आ गए हैं। उधर, चीन जितना निरंकुश और होता जा रहा है, उतना ही भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग तिब्बत की स्वतंत्रता को धार देने में जुट गए हैं। यह स्पष्ट करना प्रासंगिक होगा कि प्रो कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री, प्रो कप्तान सिंह सोलंकी, हेमेंद्र तोमर इसी लाइन पर हैं लेकिन इंद्रेश कुमार भटके हुए नजर आने लगे हैं। इसलिए यहां अब इस बात को लेकर कोई प्रश्न नहीं होना चाहिए क्योंकि मानवाधिकार के अभाव का सबसे बड़ा दंश झेल रहे तिब्बती समुदाय में यह पुरस्कार जिजीविषा पैदा करने में सहायक है इसलिए भी दलाई लामा को भारत रत्न मिलना ही चाहिए।
(लेखक:- तिब्बती मुक्ति साधक व भारत-तिब्बत समन्वय संघ के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)