डॉ अर्चना आत्महत्या : समाज और तंत्र के चेहरे पर अमिट कालिख
वेबडेस्क। राजस्थान के लालसौट कस्बे में डॉ अर्चना शर्मा की आत्महत्या समाज में भीड़ तंत्र और सत्ता की हनक से उपजा एक शर्मसार कर देनें वाला धब्बा है।यह भारत में प्रतिभा पलायन के बुनियादी कारकों में से भी एक है।सभ्य समाज में इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार तत्वों को न केवल चिन्हित बल्कि सांगोपांग बहिष्कृत किये जाने की आवश्यकता है।देश मे कुल 12 लाख चिकित्सकों में से मात्र 20 प्रतिशत ही सरकारी सेवा में आते है और लाखों गांव कस्बे आज भी एलोपैथी चिकित्सकों के अभाव से जूझ रहे है।डॉ अर्चना एक प्रतिभाशाली स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ थी,पति डॉ सुनीत उपाध्याय के साथ वे चार साल पहले तक गुजरात के गांधीनगर में आराम की जिंदगी में थी।डॉ उपाध्याय के पिता के कहने पर दोनों ने लालसौट आकर आनन्द अस्पताल आरम्भ किया था।साल भर पहले डॉ उपाध्याय ने किसी जोशी गैंग की गुंडई और हफ्ता वसूली से जुड़ी पोस्ट फेसबुक पर साझा की थी। सरकार और समाज के कतिपय प्रभावशाली लोगों ने ऐसे हालात निर्मित कर दिए कि डॉ अर्चना को अपने दो बच्चों को छोड़कर फांसी लगानी पड़ गई।एक महिला के प्रसव में लापरवाही के आरोप पर स्थानीय पुलिस ने डॉक्टर दम्पति के विरुद्ध हत्या जैसी संगीन धाराओं में मुकदमा दर्ज किया।
डॉ अर्चना की आत्महत्या संभवतः दौसा में जारी गुंडई के लंबे दौर का नतीजा भी है जिसे उनके पति पहले ही सार्वजनिक कर चुके है।बेशक आज के दौर में चिकित्सक भी व्यावसायिकता से परे नही रह गए है लेकिन यह भी सौ प्रतिशत सच है कि कोई भी डॉक्टर जानकर मरीज की मौत की परिस्थिति शल्य क्रिया या उपचर्या में निर्मित नही करता है।मरीज का स्वस्थ्य होना चिकित्सक के कौशल पर निर्भर हो सकता है लेकिन यह कहना कि किसी चिकित्सक ने जानबूझकर मरीज को मार दिया असंभव ही है।लालसौट पुलिस ने इस मामले में कतिपय गुंडई और हुड़दंगियों से अपनी बला छुड़ाने के लिए डॉक्टर दम्पति पर हत्या जैसी संगीन धाराओं में मुकदमा दर्ज किया। यह तो अब राजस्थान सरकार की कारवाई से स्पष्ट ही हो गया है। लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि क्या इस तरह की घटनाओं से समाज और सरकार कोई सीख लेने के लिए तैयार है?एलोपैथी चिकित्सा तंत्र एक इंडस्ट्री में तब्दील हुआ है।
यह भी सच्चाई है और कोरोना में हमने इसका विद्रूप चेहरा भी बीसियों मामलों में देखा है,बाबजूद इसके जनआरोग्य की एकमात्र पैथी आज भी यही है।लाख प्रयासों के बाबजूद देश में काबिल चिकित्सक मैदानी स्तर पर सेवायोजन के लिए उपलब्ध नही है ऐसी घटनाएं इस स्थिति को और विकराल करने का काम करेंगी।लालसौट मामले में प्रसव के दौरान जिस महिला की मौत हुई उसे लेकर चिकित्सकीय जानकारों का कहना है कि यह 'पोस्ट मार्टम हेमराज'जटिलता का सामान्य केस है जो सिजेरियन प्रसव के तीस प्रतिशत मामलों में आम माना जाता है।
सरकार के मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को जीरो करने के लक्ष्य इन घटनाओं के बाद कैसे पूरे होंगे इस मामले पर नीतिगत स्तर से सोचने और निर्णयन की आवश्यकता है। लापरवाही औऱ एलोपैथी की उपचर्यात्मक जटिलताओं के बीच सुस्पष्ट अंतर है लेकिन यह भीड़ तंत्र या अफसरशाही और नेताओं के बड़े वर्ग की सामान्य समझ मे नही आ सकता है। न्यायालयों ने डॉक्टरों के सरंक्षण के लिए बीसियों आदेश जारी किए है। केंद्र और राज्य के स्तर पर कानून भी बनाये गए है लेकिन लालसौट जैसी स्थिति आये दिन देश भर में खड़ी होती रहती है। बड़ा सवाल यह है कि क्या इस घटना के बाद हमारा तंत्र और समाज कुछ सबक सीखने के लिए तैयार है या महज जांच की खानापूर्ति और पुलिस वालों को लाइन अटैच कर व्यवस्था को उसी ढर्रे पर छोड़ दिया जाएगा।निसंदेह डॉक्टरों में भी कमियां है एक बड़ा वर्ग भगवान के स्वरूप को केवल लक्ष्मी स्वरूपा करने पर उतारू है लेकिन यह कमियां तो समाज के समग्र चारित्रिक पतन का हिस्सा भी है। डॉक्टर जानबूझकर मरीज की मौत का कारण बने इसे फि़लहाल स्वीकार नही किया जा सकता है। एक चिकित्सक की सेवा में न्यूनता उसके निजी कौशल पर भी निर्भर करती है जो समाज के हर वर्ग और पेशे पर लागू होती है।
गुंडों के आगे समर्पण का विकल्प चुना -
इस विशिष्ट जटिलता को सुप्रीम कोर्ट ने भी अधिमान्यता देते हुए मेडिकल बोर्ड के निष्कर्षों के आधार पर लापरवाही को अंतिम मानने का निर्देश दे रखा है। डॉ अर्चना के मामले में स्थानीय पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के स्थान पर जोशी गैंग के गुंडों के आगे समर्पण का विकल्प चुना जो सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है। एलोपैथी उपचर्या में जटिलताओं का अंबार है और आम आदमी इनमें से किसी के बारे में भी वाकिफ नही है। कुछ समय पहले शिवपुरी जिले की एक पूर्व विधायक शकुंतला खटीक ने अपनी पुत्रवधु की डिलीवरी के समय आरोप लगाया था कि महिला चिकित्सक ने गर्भ से बाहर आ चुके शिशु के सिर को धक्का देकर अंदर कर दिया और जानबूझकर सिजेरियन डिलीवरी करा दी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे नेताओं की समझ का स्तर या है? एक एमडी डॉक्टर के निर्माण पर सरकार का करोड़ों रुपया व्यय होता है और करीब 12 साल की मेहनत के बाद एक चिकित्सक इस विशेषज्ञता को अर्जित कर पाता है।एक तरफ सुरक्षित प्रसव को लेकर सरकार चिंतित है दूसरी तरफ एक नई विसंगति निर्मित हो रही है। पीजी नीट के बाद महिलाएं प्रसूति विभाग को चुनने में लगातार पीछे हट रही है।प्रथम दस प्राथमिकताओं में स्त्री एवं प्रसूति विभाग का विकल्पअब शामिल नही है। ऐसी घटनाएं इस न्यूनता को और भी गंभीरतम बनाने का काम करेगी।
क्या कहता है मोदी सरकार का नया कानून -
मोदी सरकार केंद्र ने एपिडेमिक डिजीज एक्ट, 1897 में बदलाव भी पिछले साल कोरोनॉ के मध्य कर दिया है. लेकिन जमीनी हालात डॉक्टरों के मामले में बदले नही हैं। इस कानून के तहत मेडिकल स्टाफ पर हमला करने वाले लोगों को 3 माह से 5 साल तक की सजा हो सकती है. इसके अलावा उनपर 50000 रुपये से 2 लाख रुपये तक जुर्माना भी लगाया ज सकता है. नए कानून के मुताबिक, इस तरह के अपराध को गैर-जमानती बनाया गया है।
इस नए कानून के मुताबिक अगर डॉक्टर या दूसरे स्टाफ की गाड़ी या क्लिनिक को नुकसान पहुंचाया जाता है तो नुकसान की दोगुनी रकम की वसूली अपराध करने वाले से की जाएगी. ऐसे मामलों की जांच का काम 30 दिन में पूरा कर लिया जाएगा. सीनियर इंस्पेक्टर ऐसे मामले की जांच कर सकता है. मामले का फैसला एक साल में आ जाएगा. ज्यादा गंभीर मामलों में अपराधी को 6 महीने से लेकर 7 साल की सजा हो सकती है।
दस हजार पर सिर्फ एक -
भारत में स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधन शीर्षक एक अध्ययन में कहा गया है कि देश में महिला डॉक्टरों की भारी कमी है. उनकी तादाद महज 17 फीसदी है. उसमें भी ग्रामीण इलाकों में यह तादाद महज छह फीसदी है. ग्रामीण इलाकों में दस हजार की आबादी पर महज एक महिला डॉक्टर है. उनके मुकाबले हर 10 हजार की आबादी पर पुरुष डॉक्टरों की तादाद 7.5 फीसदी तक है. समाज विज्ञानी डॉ. अमित भद्र ने इंडियन एंथ्रोपोलॉजिस्ट नामक पत्रिका में स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिलाएं शीर्षक एक अध्ययन में कहा है कि पोस्ट ग्रेजुएशन और डॉक्टरेट के स्तर पर पुरुषों व महिलाओं की तादाद में अंतर तेजी से बढ़ता है. इस स्तर पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की तादाद महज एक-तिहाई रह जाती है।
इसके उलट पाकिस्तान व बांग्लादेश में मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाली महिलाओं की तादाद भारत से बेहतर क्रमश: 70 व 60 फीसदी है. पाकिस्तान में मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वालों में 70 फीसदी महिलाएं हैं. लेकिन वहां महज 23 फीसदी महिलाएं ही प्रैक्टिस करती हैं. यानी डॉक्टरी की डिग्री हासिल करने वाली ज्यादातर महिलाएं प्रैक्टिस नहीं करतीं. बांग्लादेश में वर्ष 2013 में 2,383 पुरुषों ने मेडिकल की डिग्री हासिल की थी जबकि ऐसी महिलाओं की तादाद 3,164 थी. इससे साफ है कि वहां भी ज्यादातर महिलाएं मेडिकल की पढ़ाई के लिए आगे आ रही हैं।
इन राज्यों में सबसे बुरा हाल -
यदि आंकड़ों पर गौर करें तो देश में सबसे ज्यादा विशेषज्ञों की कमी उत्तर प्रदेश में है जहां 2,716 विशेषज्ञों की जरुरत है जबकि वहां केवल 484 उपलब्ध हैं। राजस्थान में 1,829 विशेषज्ञों की कमी है। जबकि तमिलनाडु में 1361, गुजरात में 1330, पश्चिम बंगाल में 1321, ओडिशा में 1272 और मध्य प्रदेश में 1,132 विशेषज्ञों की कमी है। जबकि देश के अन्य राज्यों की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। सिर्फ दिल्ली, चंडीगढ़ और दमन एवं दीव में विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं है। आज देश भर में करीब 5335 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हैं। जिनका रखरखाव राज्य सरकार द्वारा किया जाता है।
इसकी उपयोगिता आप इस बात से ही लगा सकते हैं की आईपीएचएस मानकों के अनुसार हर कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) में कम से कम चार चिकित्सा विशेषज्ञों यानी सर्जन, चिकित्सक, स्त्री और बाल रोग विशेषज्ञ का होना अनिवार्य है। साथ ही इसमें ऑपरेशन थिएटर, एक्स-रे, लेबर रूम और प्रयोगशाला और 30-इन-डोर बेड जैसी सुविधाओं का होना भी अनिवार्य हैं। गौरतलब है कि एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर, 4 पब्लिक हेल्थ सेंटर्स के लिए रेफरल सेंटर के रूप में कार्य करता है। जो स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ प्रसूति देखभाल और विशेषज्ञ परामर्श सम्बन्धी सुविधाएं भी प्रदान करता है। नकों के आधार पर एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर आम तौर पर मैदानी क्षेत्रों में करीब 120,000 लोगों जबकि पहाड़ी/ आदिवासी और दुर्गम क्षेत्रों में 80,000 लोगों को अपनी सेवाएं प्रदान करता है। जबकि देश में एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर देश के ग्रामीण इलाकों में करीब 165,702 लोगों को अपनी सेवाएं प्रदान करता है। ऐसे में वहां विशेषज्ञों की कमी एक बड़ी भरी समस्या है। यह हमारी लचर व्यवस्था का ही परिणाम है। जिसके चलते स्वास्थ्य सेवाओं में इतनी बड़ी चूक है। आप स्वयं ही सोचिये बिना विशेषज्ञों के यह स्वास्थ्य केंद्र कैसे अपनी सेवाएं प्रदान कर सकते हैं।
यही वजह है की ग्रामीण इलाकों में मृत्युदर इतनी ज्यादा है। जब हर जिले से बाल स्वास्थ्य के प्रति उदासीन रवैये की खबरे सामने आ रही हैं। इसी के चलते ग्रामीण इलाकों के लोग आसानी से गंभीर बीमारियों का शिकार बन रहे हैं। या फिर उन्हें इलाज के लिए दिल्ली जैसे शहरों की और भागना पड़ रहा है। जिसका दबाव शहरी इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी पड़ रहा है।
ऐसे में यदि कोरोनावायरस जैसी बीमारी फैलती है, तो आप उस स्थिति का खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। जिसके परिणाम सच में कितने भयावह होंगें। हमें इस बात को गंभीरता से लेना होगा। हम स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों से समझौता नहीं कर सकते। राज्य सरकारों को भी इसके प्रति गंभीर होना होगा और अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभानी होगी। जिससे आने वाले वक्त में देश को एक स्वस्थ भविष्य दिया जा सके।