विद्यार्थी परिषद की महामंत्री निधि त्रिपाठी बोलीं, 'लावण्या आत्महत्या' भारत मे एकेडमिक मर्डर की घटना है

विद्यार्थी परिषद की महामंत्री निधि त्रिपाठी बोलीं,  लावण्या आत्महत्या भारत मे एकेडमिक मर्डर की घटना है
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(डॉ अजय खेमरिया/नवीन सविता)
विद्यार्थी परिषद की महामंत्री निधि त्रिपाठी बोलीं

लावण्या आत्महत्या के मामले ने देश के उदारवादी बुद्धिजीवियों एवं वामपंथियों को बेनकाब करके रख दिया है क्योंकि उनकी चुप्पी ने यह साबित कर दिया है कि एक विचारधारा विशेष और राजनीतिक उद्देश्यों तक उनका एक्टिविज्म सीमित है।रोहित वेमुला का मुद्दा इसलिए वैशविक विमर्श का केंद्रीय विषय बनाया गया क्योंकि वह विरोधी विचारों वाली मौजूदा केंद्र सरकार को लांछित करता था।लावण्या की आत्महत्या पर समाज का यह तबका चुप्पी ओढ़कर बैठा है।सुविधा और एजेंडेबेस्ड इस सेक्युलरिज्म के दिन अब लद रहे हैं।यह बात अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय महामंत्री निधि त्रिपाठी ने स्वदेश के साथ विशेष बातचीत में कही।तमिलनाडु में 17 वर्षीय लावण्या आत्महत्या के विरुद्ध मुख्यमंत्री स्टालिन के घर के बाहर धरना देनें के आरोप में 14 दिन की पुलिस रिमांड और जेल में रही निधि त्रिपाठी ने ग्वालियर से आगरा के मध्य केरला एक्सप्रेस में तमाम विषयों पर विस्तार से बात की।

एकेडमिक मर्डर है लावण्या आत्महत्या:

तन्जाबुर के ईसाई मिशनरीज स्कूल में जिस तरह का अनैतिक दबाब लावण्या पर कन्वर्जन के लिए बनाया गया वह अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में आम बात है।यह एक तरह का इंस्टिट्यूशनल या एकेडमिक मर्डर सदृश्य घटना है।इसे जिस हल्के अंदाज में देश के राजनीतिक दल और तथाकथित बौद्धिक वर्ग ले रहा है वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं।यह देश की अकादमिक विद्रूपताओं को भी रेखांकित करने वाला प्रहसन है।

लावण्या मील का पत्थर साबित होगी:

तन्जाबुर की 17 बर्षीय बालिका लावण्या को कन्वर्जन के सुनियोजित षड्यंत्र के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी है। यह एक खतरनाक घटनाक्रम है जो अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की दूषित और भारत विरोधी मानसिकता को प्रमाणित करता है।विद्यार्थी परिषद ने यह संकल्प ले लिया है कि भविष्य में कोई दूसरी लावण्या को इस तरह कन्वर्जन के चलते अपनी जान नही गंवानी पड़ी। देश भर में परिषद के 33 लाख कार्यकर्ता इस बिषय को लेकर मैदानी स्तर तक सक्रिय हो रहे हैं।लावण्या का बलिदान अल्पसंख्यक संस्थानों में व्याप्त जबरिया कन्वर्जन की गंदगी को समाप्त करने के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

स्टालिन तानाशाह और हिन्दू विरोधी:

इस मामले में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन का रवैया एक तानाशाह की तरह रहा है।उनकी सरकार हिन्दू विरोधी है।वे तुष्टीकरण और धुर्वीकरण के आधार पर अपनी निकृष्ट राजनीति कर रहे है।दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि जिस लावण्या को कन्वर्जन के दबाब के कारण आत्महत्या करनी पड़ी है उसके पिता 25 साल से डीएमके के सक्रिय कार्यकर्ता हैं।स्टालिन हिंदुओं के विरुद्ध औरंगजेब की तरह पेश आ रहे है हाल ही में उन्होंने विकास परियोजनाओं के नाम पर तमिलनाडू में सैंकड़ो मंदिर तोड़ दिए है और चर्च एवं मस्जिदों को छुआ तक नही है।

अन्नाद्रुमक व अन्य दल भी चुप:

तमिलनाडू में दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि ईसाई कन्वर्जन के सुनियोजित खेल पर कोई भी दल बोलने से बच रहा है।स्टालिन सरकार ने लावण्या प्रकरण में एक तरह से निर्णय सुनाते हुए प्रकरण को कन्वर्जन मानने से इनकार कर दिया।विपक्षी पार्टियां भी चर्च और मिशनरीज के आगे लाचार दिखती हैं।राष्ट्रीय स्तर पर जो कांग्रेस रोहित वेमुला जैसे मुद्दों पर हायतौबा कर रही थी उसकी चुप्पी भी तुष्टीकरण को प्रमाणित करती है।

पुनर्विचार हो अल्पसंख्यक दर्जे पर:

संविधान के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान के विशेषाधिकार का देश में बुरी तरह से दुरूपयोग हो।रहा है यहां अध्ययनरत बहुसंख्यक विधार्थी कौन है इसका विश्लेषण किया जाना चाहिये।सही अर्थों में इस संवैधानिक प्रावधान का दुरूपयोग देश की संस्कृति और एकता को नष्ट करने के लिए किया जा रहा है।विद्यार्थी परिषद सरकार से मांग करती है कि देशव्यापी विमर्श के बाद इस विषय पर नीतिगत निर्णय की तरफ आगे बढ़ा जाए।यह विशेषाधिकार जिस मन्तव्य से दिया गया है वह राष्ट्र के लिए प्रतिगामी साबित हो रहा है।सच्चाई यह है कि इन संस्थानों में पढ़ने वाले हर विद्यार्थी के सिर पर लावण्या जैसी परिस्थितियां निर्मित है लेकिन कतिपय अंग्रेजियत के लोभ में समाज चुप्पी ओढ़े हुए है।

एनसीपीसीआर की रिपोर्ट पर कारवाई हो:

राष्ट्रीय बाल अधिकार एवं सरंक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो द्वारा हाल ही में जारी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों से जुड़ी अध्ययन रिपोर्ट पर सरकार को नीतिगत निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है।यह समय बिल्कुल सटीक है जब केंद्र और राज्य सरकारों को इस अल्पसंख्यक दर्जे के आवरण में चल रहे कन्वर्जन के खेल को समझ कर देशहित में कदम बढ़ाना चाहिये क्योंकि अगर आज इस मुद्दे को सेक्युलरिज्म के नाम पर अनदेखा किया गया तो लावण्या जैसे घटनाक्रम घटित होते रहेंगे।

जेएनयू के नही टुकड़े टुकड़े गैंग के विरोधी:

हम जेएनयू जैसी संस्थाओं के विरोधी नही है बल्कि वहां समाजविज्ञान के नाम पर खड़ी राष्ट्र विरोधी मानसिकता के विरोधी है।मैं स्वयं जेएनयू की विद्यार्थी हूँ और आज इन संस्थानों से टुकड़े टुकड़े गैंग और अफजल के हमदर्द अप्रासंगिक हो रहे है।उनकी जड़े उखड़ चुकीं हैं।शट डाउन जेएनयू अभियान हमने नही चलाया था और आज भी हम इसके पक्ष में नही हैं।कुछ लोग अपने सशक्त प्रचार तंत्र के माध्यम से इसे हमारे साथ जोड़ते है लेकिन मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि हम इस तरह के नकारात्मक अभियान के पक्ष में नही हैं।हम राष्ट्रीय संस्थानों को राष्ट्रीय हितों के साथ आगे बढ़ाने के समर्थक है।

जेएनयू के स्वरूप में बड़ा बदलाव:

केंद्र सरकार भी जेएनयू की विरोधी नही है आज इसके स्वरूप को समग्र शिक्षा के साथ जोड़ा जा रहा है।कभी सोशल साइंस के केंद्र के रूप में ही यह वामपंथियों का सरकारी ऐशगाह था लेकिन अब यहां संस्कृति और मूल्यपरक भारतीय शिक्षा के केंद्र भी खड़े हो रहे है।संस्कृत विभाग काफी प्रमाणिकता के साथ काम कर रहा है।इंजीनियरिंग ,प्रबंधन,मेडीकल जैसी शाखाओं में जेएनयू को आगे बढ़ाने में सरकार का अहम योगदान है।आने वाले समय में जेएनयू से टुकड़े टुकड़े गैंग पूरी तरह से गायब मिलेंगे।

नवीन शिक्षा नीति में देरी हुई है:

यह बात बिल्कुल सही है कि नई शिक्षा नीति का प्रारूप लाने में केंद्र सरकार ने काफी बिलंब कर दिया है।लेकिन देर से आये दुरुस्त आये यह भी कहा जा सकता है क्योंकि यह सर्वसमावेशी है जो भारत के हर बच्चे को केंद्र में रखकर बनाई गई है।यह नैसर्गिक प्रतिभा और कौशल को समुन्नत करने के लिए एक युग परिवर्तन का माध्यम साबित होगी।नई नीति के अनुरूप केंद्र और राज्यों की सरकारों की जबाबदेही भी बढ़ी है क्योंकि इसे अमल में लाने के लिए एक व्यापक इच्छाशक्ति और कुशल प्रशासकों की आवश्यकता भी है।उत्तरप्रदेश ,मध्यप्रदेश,हिमाचल जैसे राज्य तेजी से इस नई नीति पर बढ़ रहे है।

नए संस्थान और मानक खड़े करने में पिछड़े है:

हम राष्ट्रीय पुननिर्माण के पक्षधर और यह बात शिक्षण संस्थानों पर भी लागू होती है।यह स्वीकार किया जाना चाहिये कि जेएनयू,एएमयू,जाधवपुर जैसे नैरेटिव गढ़ने वाले संस्थानों के समानांतर नए सक्षम संस्थान खड़े किए जाने चाहिये।नए मानक खड़े करने के लिए जो सुगठित प्रयास होना चाहिये वे परिणामोन्मुखी नही रहे है।फिर भी देश के शिक्षण और बौद्धिक जगत में बड़ा बदलाब आ रहा है।राष्ट्रीय मानबिन्दुओं के प्रति जो पराजित भाव था वह अब सही दिशा में प्रतिष्ठित हो रहा है।तथाकथित इतिहासकार और उनके द्वारा लिखा गया इतिहास दोनों कूड़ेदान में जा चुकें हैं।

अफजल के हमदर्दों से प्रमाणपत्र की आवश्यकता नही:

देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में एक बड़ा वर्ग उदारवाद और बहुलता के नाम पर राष्ट्र के विरुद्ध खड़ी शक्तियों के समर्थन में रहता आया है और दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि अपने सशक्त इकोसिस्टम के माध्यम से उन्होंने ज्ञान और बौद्धिक जगत की ठेकेदारी हासिल कर रखी है।हम हर जगह हर स्तर पर ऐसे तत्वों से संघर्ष के लिए संकल्पित है।जो लोग जेएनयू में भारत के टुकड़े होने की दुआ करते हैं,अफजल गुरु की बरसी मनाते है ,तिरंगा लहराने पर हमला करते है या नक्सलबाड़ी एक ही रास्ता दीवारों पर लिखते है उनसे किसी एकेडमिक प्रमाणपत्र की आवश्यकता हमें नही है।ज्ञान ,शील,एकता और अखंडता हमारी अभिप्रेरणा है।

दुनियां का सबसे बड़ा छात्र संगठन है परिषद:

आज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद देश का ही नही विश्व का सबसे बड़ा और व्यापक प्रभाव वाला छात्र संगठन है।वर्तमान में देश भर में हमारे 33 लाख सक्रिय कार्यकर्ता हर कैम्पस में मौजूद है।जेएनयू जैसे लेफ्ट के गढ़ में हमारे पैनल का मुकाबला करने के लिए सभी प्रतिद्वंद्वीयों को गठबंधन बनाना पड़ता है।

नए शोध से खड़ा होगा भारतबोध का विमर्श:

इस बात को हमें स्वीकार करना होगा कि आर एंड डी यानी शोध और विकास कार्य/परियोजनाओं पर अकादमिक एकाधिकार लेफ्ट लिबरल वर्ग का रहा है और यह सरकार के सरंक्षण में किया गया।जो छात्र सरस्वती नदी,सांख्य दर्शन या विज्ञान एवं धर्म जैसे विषयों पर शोध करना चाहते थे उन्हें विश्विद्यालयों में जानबूझकर अनुमति नही दी जाती थीं।फेलोशिप के विषय वामपंथी विचारसरणी से निर्धारित होते।अब यह परिदृश्य बदल गया है देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में भारतीय स्वत्व और सांस्कृतिक मानबिंदुओं पर न केवल शोध हो रहा है बल्कि नकली महानता के आवरण का इतिहास भी खारिज किया जाने लगा है।नई शिक्षा नीति से इसी स्वत्व को पुनर्प्रतिष्ठित करने की आधारशिला रखी जाना तय है।

राज्य सरकारें अपने विवि सशक्त करें:

यह सही है कि राज्य कोटे के अधिकतर विश्वविद्यालयों की हालात शैक्षणिक एवं शोध से जुड़ी आधारभूत सुविधाओं के मामले में बिल्कुल भी अच्छी नही हैं।हम यह चाहते हैं कि स्वत्व केंद्रित विमर्श को खड़ा करने वाले स्तरीय विश्विद्यालय राज्यों में भी खड़े किए जाएं जिनकी आज बेहद कमी है।साथ ही मौजूदा विश्विद्यालयों को आर एंड डी के लिए आर्थिक रूप से सशक्त किया जाना चाहिये।वर्तमान में नैरेटिव गढ़ने वाले विषयों पर राज्यों में सक्षम फ़ैलोशिप उपलब्ध नही हैं।शिक्षकों की कमी है नतीजतन अधिकतर विवि परम्परागत ढर्रे पर चल रहे हैं,इन्हें बदलने की आवश्यकता है क्योंकि आने वाला समय वैचारिक और नवाचार दोनों मोर्चों पर बहुत प्रतिस्पर्धी रहने वाला है।हमने प्रधानमंत्री जी एवं शिक्षा मंत्री से इस दिशा में पहल के लिए प्रस्ताव दिया है।

वन नेशन वन सिलेबस आवश्यक:

परिषद की स्पष्ट धारणा है कि शालेय शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम की समरूपता होनीं ही चाहिये।विनय सहस्त्रबुद्धे की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष हमने भी अपना पक्ष रखा था और हम सरकार से मांग करते है कि वन नेशन वन सिलेबस पर आम सहमति के साथ आगे बढ़ा जाए क्योंकि राज्यों के बोर्ड और केंद्रीय शिक्षा बोर्डों से पढने वाले बच्चों में एक अनावश्यक विभेद के साथ श्रेष्ठता -हीनता की भावना घर करती है।यह राष्ट्र की समग्र प्रतिभा प्रकटीकरण में भी अवरोधक है।

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