मेरे कश्मीर पहुँचने से पहले ही घाटी आतंकियों के कब्जे में जा चुकी थी : जगमोहन
भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के छात्र रहे अमित देश की मुख्यधारा की पत्रकारिता में सक्रिय रहने के बाद आजकल अपने गांव में सरपंच है। ग्राम पंचायत मलकपुरा ने एक मिसाल कायम की है।उनके जज्बे औऱ समर्पण के चलते जालौन जिले की मलकपुरा पंचायत ग्राम्य विकास के क्षेत्र में अनुकरणीय मानक स्थापित कर रही है।
द कश्मीर फाइल्स फ़िल्म को लेकर देश भर में बुद्धिजीवियों औऱ नेताओं का एक विशेष वर्ग तबके राज्यपाल जगमोहन की भूमिका को लांछित करने में जुटा है।चूंकि जगमोहन अब इस दुनियां में नही है इसलिए उन पर उछाले जा रहे कतिपय आरोप का जबाब देनें वह उपस्थित नही हो सकते हैं।
यहां हम 2018 में पत्रकार अमित द्वारा की गई एक बातचीत के अंश प्रकाशित कर रहे हैं जो इस नैरेटिव को समझने औऱ स्व.जगमोहन की भूमिका के साथ शायद न्याय कर सके।जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन जी से ये विस्तृत चर्चा फरवरी 2018 में नई दिल्ली स्थिति इंडिया इंटरनेशलन सेटर में की गई थी।
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प्रश्न;- जनवरी 1990 में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल का कार्यभार ग्रहण करने से पहले, सरकारी तंत्र इतना लाचार और प्रभावहीन क्यों था? क्या आपको लगता है कि कश्मीर में व्यापित भारत विरोधी तत्वों और अलगाववाद के किये, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितने कि अलगाववादी?
19 जनवरी 1990 को अपने दूसरे कार्यकाल के लिए राज्य में पहुँचने से पहले, 6 माह के समय में फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सरकार ने वर्जनाहीनता की सारी हदें पार कर दीं थीं, और अप्रत्यक्ष रूप से आतंकियों को घाटी में एकछत्र राज स्थापित करने के सभी अधिकार दे दिए थे। 19 जून 1989 से जनवरी 1990 के बीच घाटी में 319 हिंसक घटनाएं हुईं, जिनमें 21 सशस्त्र हमले, 114 बम ब्लास्ट, 112 आगजनी की घटनाएं, और भीड़ द्वारा हिंसा के 72 मामले थे। अकेले अक्टूबर महीने में बम बिस्फोट की 50 तथा उग्रवादियों द्वारा गोलोबारी की 15 घटनाएं हुईं थीं।
पूरी दुनिया को यह दिखाने के लिए, कि घाटी पर उनका पूरा अधिकार हो चुका है, उग्रवादियों ने 8 दिसंबर को केंद्रीय गृह मंत्री की बेटी, डॉ. रुबिया सईद का अपहरण कर लिया, और उन्हें तभी आज़ाद किया जब सरकार ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया तथा 5 प्रमुख आतंकवादियों को रिहा करने की उनकी शर्त को मान लिया। इसका परिणाम हुआ, कि घाटी में विध्वंस और आतंकवाद की घटनाएं और ज्यादा बढ़ गईं। इंटेलिजेंस ब्यूरो के दो अधिकारियों की हत्या कर दी गई, क्योंकि स्थानीय पुलिस के अंदरूनी विध्वंसकारी तत्वों द्वारा उन अधिकारियों के क्रियाकलापों की जानकारी आतंकियों को लग गई थी।
आवश्यक क़दमों की अनदेखी की बात छोड़िए, सबसे ज्यादा बढ़ावा तो तुष्टिकरण को दिया गया। मैंने अपनी किताब 'माई फ्रोजेन टर्बुलेंस इन कश्मीर' में उल्लेखित कई केसों में से दो उदाहरण यहाँ दिए जा सकते हैं।
पहला, जब सेवाओं में घुसपैठ गंभीर होती जा रही थी, उस समय 'इंटेलिजेंस' भी प्रभावहीन होता जा रहा था, और जब मीडिया लगातार (पाकिस्तान द्वारा आतंकियों को प्रायोजित) Operation TOPAC जैसी विस्फोटक ख़बरें उजागर कर रहा था, तभी फारुख़ अब्दुल्ला सरकार ने उग्रवादियों के तुष्टिकरण को बढ़ावा देना वाला एक निर्णय लिया। उन्होंने 70 ऐसे ख़तरानाक़ उग्रवादियों को रिहा कर दिया, जिनकी गिरफ़्तारी को जम्मू कश्मीर उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली एक सलाहकार समिति ने जायज ठहराया था। उन उग्रवादियों की ट्रेनिंग पाक अधिकृत कश्मीर में हुयी थी, तथा उनके आईएसआई और उसके एजेंटो से नजदीकी संबंध थे। उन्हें नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार करने के सभी आड़े तिरछे, गूढ़ रास्ते मालूम थे। उनकी यकायक रिहाई ने उन्हें आतंक और दहशत के नेटवर्क में ऊंचा ओहदा दिलवाया, और वे हथियार लाने के लिए पकिस्तान जा सके, जिनसे हत्या, अपहरण, और अन्य तरह की आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया जा सके।
दूसरा, आईएसआई और इसके एजेंटो द्वारा विचारित और प्रायोजित एक योजना के तहत, घाटी में घृणा और हिंसा फ़ैलाने वाली एक बहुत बड़ी मशीनरी को काम पर लगाया गया। अनेकों मस्जिदों में उच्च तीव्रता वाले लाउड स्पीकर लगाए गए, जिनसे लगातार आज़ादी परस्त, पाकिस्तान परस्त, और भारत विरोधी नारे लगाए जाते थे, और रियासत के खिलाफ 'जिहाद' बुलंद करने की पुकारें लगाईं जाती थीं। इसके साथ ही, एक बड़े पैमाने पर धर्मिक उन्माद भड़काने वाली प्रचार सामग्री का निर्माण किया गया और उसे जगह-जगह प्रचारित किया गया। डॉ. फारुख़ अब्दुल्ला की गठबंधन सरकार ने हिंसा भड़कने से रोकने के लिए इन लाउड स्पीकरों को हटवाने के लिए कोई एक्शन नहीं लिया। ना ही उन्होंने इस विध्वंसकारी सामग्री पर प्रतिबंध लागाने के लिए कोई कदम उठाया। इस प्रकार, इन ज़हरीले विचारों को आम कश्मीरी जनमानस के दिमाग में घुसपैठ करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया।
प्रश्न;- आप कह रहे हैं कि 19 जनवरी 1990 से पहले चीजें बिगड़ चुकी थीं. तो क्या साल 1984 में राज्यपाल के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, क्या आपने राज्य में आतंकवाद के निशान देखे थे?
जगमोहन:वास्तव में, एतिहासिक रुप से तमाम दुःखद बुराइयों की आधारशिला बिलकुल शुरुआत में रखी दी गयी थी। उदाहरणस्वरुप अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के प्रावधान इन्हीं गलतियों में से दो हैं। मैंने इसका अंदाजा सन 1984 में ही लगा लिया था, जिसे मैंने अपनी किताब के पहले संस्करण में लिखा: "ये प्रावधान 'दो राष्ट्र सिद्धांत' की दूषित विरासत को जीवित रखते हैं, और 'एक भारत' के विचार को कुंठित करते हैं। ये उस आत्मसेवी कुलतंत्र (वंशवादी शासन) की सहायता करते हैं, जो असहाय लोगों की संवैधानिक अशिक्षा का फायदा उठाते हैं, उनमें कपोल-कल्पनावाद का बीज बोते हैं और समाज में भ्रष्टकारिता के रोगाणुओं का पालन पोषण करते हैं। ये घाटी में एक हिंसक भूकंप का अभिकेंद्र बन सकती हैं। एक भूकंप, जिसकी थरथराहट अप्रत्याशित दुष्परिणामों के साथ पूरे देश में महसूस की जा सकेगी"
ये प्रावधान निष्पक्ष शासन के मूल सिद्धांतों की खिलाफत करते हैं, और परिणामस्वरूप एक ऐसी भूमि का निर्माण करते हैं, जहाँ कोई न्याय नहीं होता; अशिष्टता और विरोधभासों से भरी एक भूमि। पश्चिमी पाकिस्तान के विस्थापितों की मार्मिक कहानी इस प्रक्रिया का मात्र एक उदाहरण है।
दुर्भाग्यवश, वो लोग जिनके हाथों में देश की तक़दीर थी, उन्होंने जरुरी सुधार लागू करने में कोताही बरती। वे अपनी अदूरदर्शी और स्वार्थपरक राजनीति के कैदी बने रहे। मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उदार दिखने की ललक में इन अस्थिरताकारक प्रावधानों के प्रति बिलकुल क्षमयाचकों की तरह व्यव्हार किया। ये और कुछ नहीं बल्कि अलगाववाद, भ्रष्टकारिता और पृथकवादिता के विकास हेतु अनुकूल वातावरण था। खेदजनक है, कि इस परिप्रेक्ष्य में, बहुत से भारतीय ही भारतीय एकता और अखंडता के सबसे बुरे दुश्मन साबित हुए हैं।
प्रश्न;-एक प्रशासक के तौर पर, और एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर, जिसने कश्मीर के आतंकवाद को बड़ी नजदीकी से देखा और समझा है, क्या आप इस बात से सहमत हैं कि कश्मीरी आतंकवाद न केवल 'एंटी-इण्डिया' है, बल्कि 'एंटी-हिन्दू' भी है? यदि हाँ, तो क्यों?
जगमोहन:ये न केवल 'एंटी-इण्डिया' और 'एंटी-हिंदू' है, बल्कि ये 'एंटी-इस्लाम' भी है, जैसा कि ये वर्तमान रुढ़िवादी और कल्पनावादी शक्तियों के आगमन से पहले कश्मीर में प्रचलित था। यदि घाटी में कश्मीरी पंडितों के सितंबर 1989 से अब तक के पलायन की बात करें, तो ये सब पाकिस्तान की आईएसआई और कट्टर स्थानीय उग्रवादियों की एक शैतानी योजना के अंतर्गत हुआ है। कश्मीरी पंडित समुदाय के प्रमुख सदस्यों को एक एक कर पकड़ा गया, और उन्हें मार डाला गया। उदाहरणस्वरुप, भारतीय जनता पार्टी के नेता टिक्का लाल टिप्लू की 14 सितंबर, (आंतकी मक़बूल भट्ट को सजा सुनाने वाले) जज एन. के. गंजू की 4 नवंबर, और पत्रकार पी. एन. भट्ट की 28 दिसंबर को गोली मारकर हत्या कर दी गयी।
प्रश्न;-आरोप लगते हैं कि आपने पंडितों को पलायन के लिए प्रोत्साहित किया था?
जगमोहन:आप देखिए कि मेरे वहां दोबारा राज्यपाल बनने से पहले माहौल कितना डरावना था कि भयाक्रांत पंडित समुदाय ने 16 जनवरी, 1990 को राज्यपाल को दिए एक ज्ञापन में कहा: "उग्रवादी अब घाटी के वास्तविक शासक बन गए हैं। घाटी में होने वाली घटनाएं, अल्पसंख्यकों पर हमले के उनके नियोजित लक्ष्यों के बारे में कट्टरपंथियों के डिज़ाइन का संकेत देती हैं। पलायन की गति अब और ज्यादा बढ़ गयी है। पुलिस द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय का एक भी आक्रमणकारी नहीं पकड़ा गया"
और रही बात इन आरोपों की कि मैंने पंडितों को पलायन के लिए प्रोत्साहित किया, तो सबसे पहले ध्यान रखिए कि मैंने 19 जनवरी को ही जम्मू में चार्ज संभाला था, राज्य की उससे पहले 6 महीने की स्थिति क्या थी, वह भी बता चुका हूं। जम्मू में चार्ज संभालने के बाद उसी दिन मैं कश्मीर नहीं जा पाया क्योंकि खराब मौसम के कारण हेलीकॉप्टर नहीं उड़ सका। उसी रात में पंडितों का पलायन शुरू हुआ, जम्मू में पूरी रात मेरे पास रोते-बिलखते, चीखते कश्मीरी पंडितों के फोन आते रहे। क्या ये स्थिति एक दिन में बनी थी? इससे ज्यादा कुछ न कहते हुए यहां श्रीनगर टाइम्स के मुख्य संपादक गुलाम मोहम्मद सोफ़ी की बात रख रहा हूं जो उन्होंने इन आरोपों पर कही थी... "यह बिलकुल सफ़ेद झूठ है। ये सब एक चरणबद्ध दुष्प्रचार का हिस्सा था। पंडितों का पलायन एक पूर्व क्रियान्वित योजना का परिणाम था। जगमोहन का इससे कोई लेना देना नहीं है। जब उन्होंने 19 जनवरी, 1990 को अपने दूसरे कार्यकाल का कार्यभार संभाला, तब परिस्थितियां अत्यंत भयावह थीं"
प्रश्न;-तो फिर ऐसा क्या कारण था कि आपके विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से बड़े स्तर पर एक दुष्प्रचार अभियान चलाया गया?
जगमोहन:इस अभियान की एक बड़ी भयानक पृष्ठभूमि थी। इससे पहले कि ये 'पाकिस्तान परस्त' और 'आज़ादी परस्त' तत्व घाटी को अपने जबड़ों में भर पाते, मैं इसे एक ऐसी सुनियोजित, बहुआयामी रणनीति के माध्यम से संघ (सरकार) के सामने रखने में सफल हो गया, जिसका क्रियान्वयन 19 से 26 जनवरी के बीच बड़ी दृढ़ता और तेजी के साथ किया गया था। पंजाब के ब्लू-स्टार या चीन के तियानानमेन स्क्वायर की भांति कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुए बिना, मैंने षड्यंत्रकारियों और उग्रवादियों की सभी योजनाओं पर पानी फेर दिया।
पाकिस्तान के शासक, जो यह आशा लगाए बैठे थे की यह ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह का मसला है, और उसके बाद कश्मीर घाटी पके सेब की तरह उनकी गोद में आ कर गिर पड़ेगी, अपनी योजना असफल होने से भड़क उठे। उन्होंने ये कभी नहीं सोचा था कि एलओसी के उस पार, भारतीय पक्ष का कोई आदमी इस तरह का कदम उठाएगा। उन्हें आभास हो गया था कि उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा मैं ही हूँ। उन्हें इस बात का भी इल्म था, कि अप्रैल 1984 से जून 1989 तक के अपने पहले कार्यकाल में मैंने घाटी के लोगों, और अधिकारियों से अच्छी घनिष्ठता बना ली है। वो जानते थे कि मुझमें उनके आतंक और विध्वंस का नेटवर्क ध्वस्त करने की, सरकारी तंत्र को पटरी पर लाने की, और आम कश्मीरियों को ये समझाने की क़ाबिलियत है, कि उनकी संवैधानिक अशिक्षा का फायदा उठाया जा रहा है, अन्य भारतियों की तरह वे भी स्वतंत्र है, उनकी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान संरक्षित रखी जाएगी, और केंद्र सरकार की तरफ से एक भारी वित्तीय सहयोग उन्हें प्रतिवर्ष उपलब्ध कराया जाता है। इसलिए पाकिस्तान ने व्यक्तिगत रूप से मुझ पर पलटकर हमला करने का निश्चय किया, और मेरी छवि, जो मैंने अपने पहले कार्यकाल में बनाई थी, उसे धूमिल करने को अपनी योजनाओं में सबसे ऊपर शामिल किया, ताकि मुझे राज्य से बहार फेंका जा सके।
तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो स्वयं मुजफ्फराबाद आईं, और कश्मीरियों को मेरे खिलाफ भड़काया। एक टेलीविजन भाषण के दौरान, दाहिने हाथ को बाएं हाथ की गद्दी पर पटकते हुए किया गया, उनका आश्चर्यचकित कर देने वाला आश्चर्य-जनक व्यवहार (कटिंग जेस्चर) और जोर-जोर से गुस्से में जग-जग मो-मो हन-हन चिल्लाना मुझे अभी तक याद है। उन्होंने प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या अन्य किसी प्रमुख भारतीय प्रमुख को नहीं, बल्कि मुझे टारगेट किया, क्योंकि वो जानती थीं कि मुझे कश्मीरी राजनीति और प्रशासन की गहराइयों का भली-भांति ज्ञान था और मेरे पास उस योजना के तमाम घटकों से लड़ने और उन्हें हतोत्साहित करने की क़ाबिलियत थी, जो उनकी आईएसआई द्वारा निर्दयतापूर्वक चलाया जा रहा था।