इस्लामिक जगत को "जुरासिक वर्ल्ड" बनने से बचाएं मुसलमान
नब्बे के दशक में जुरासिक वल्र्ड व जुरासिक पार्क के नाम से बनी लगभग दर्जन भर फिल्मों की शृंखला में एक बात सामान्य है कि इनमें सभी डायनासोर एक दूसरे की जानी दुश्मन दिखाए गए हैं। कट्टरपन्थी तालिबानों के कब्जे वाले अफगानिस्तान में दूसरे कठमुल्ला संगठन आईएस के हुए आत्मघाती हमले की घटना साक्षी है कि दुर्भाग्य से आज जुरासिक वल्र्ड जैसी स्थिति इस्लामिक जगत की भी बनती जा रही है जहां इस्लाम का हर फिरका एक-दूसरे के खून का प्यासा दिखाई दे रहा है। इसका खामियाजा पूरी दुनिया को उठाना पड़ रहा है। तालिबान जो कल तक अपने ही सहधर्मी अफगानों का खून बहा रहे थे आज उनके खून से होली खेलने को आईएस जैसा मजहबी संगठन तैयार दिख रहा है जो अपने आप को श्रेष्ठ इस्लामिक होने का दावा करता है। इस्लामिक आतंकवाद से इस समय पूरी दुनिया जूझ रही है। इन गतिविधियों का मौजूदा चर्चित गढ़ बना है अफगानिस्तान। जहां 26 अगस्त को काबुल हवाई अड्डे के बाहर दो बड़े बम धमाके हुए जिसमें 72 लोग मारे गए। इस हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट-खोरासान (आईएस-के) को माना जा रहा है। तालिबान ने भी दावा किया है कि हवाई अड्डे की सुरक्षा में खड़े उसके लड़ाकों को भी चोटें आई हैं। ऐसे में सवाल है कि आखिर जब तालिबान और आईएस दोनों ही जिहादी आतंकी संगठन हैं, तो इन दोनों में क्या फर्क है और इस्लामिक जगत में इनके उद्देश्य कितने अलग हैं। आईएस का जन्म हुआ था इराक और सीरिया में। 2014 में इराक के मोसुल में कब्जा करने के बाद इस संगठन ने जमकर कहर बरसाया और यूरोप में कई हमलों को अञ्जाम दिया। 2014 में बेल्जियम से लेकर, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका और फ्रांस तक आतंकी हमलों में इसका नाम आया। इस संगठन के सरगना आतंकी अबु-बकर अल बगदादी ने संगठन का लक्ष्य इस्लामी जगत में खिलाफत शासन लाना रखा और खुद को इस्लामिक जगत का खलीफा घोषित कर लिया था। 2017 तक आईएस ने अफगानिस्तान में भी लड़ाके भेजने शुरू कर दिये थे। यहां उसकी असली ताकत बने तालिबान के वो खूंखार आतंकी, जो अमेरिका से लड़ाई के दौरान मुल्ला उमर के नेतृत्व वाले संगठन की कमजोरी से तंग आ चुके थे। ऐसे ही कुछ आतंकियों ने मिलकर अफगानिस्तान के खोरासान प्रान्त में आईएस की शुरुआत की। इस संगठन की विचारधारा सुन्नी इस्लाम की वहाबी-सलफी परम्परा है।
दूसरी ओर तालिबान का उदय 1992 से लेकर 1996 तक अफगानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान हुआ। दरअसल, सोवियत सेनाओं को देश से निकालने के बाद मुजाहिदीनों के एक कट्टरपन्थी गुट ने तालिबान नाम का संगठन बना लिया। अफगानिस्तान में गृहयुद्ध खत्म होने तक तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। 2001 में अमेरिकी सेना के आने के बाद इस संगठन के ज्यादातर खूंखार आतंकी पाकिस्तान में छिप गए और पिछले 20 सालों से छिपकर गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से अमेरिकी सेना का मुकाबला कर रहे थे। अरबी भाषा में तालिबान का अर्थ है विद्यार्थी और इसकी शुरुआत पाकिस्तान के मदरसों में हुई, जहां सुन्नी इस्लाम का कट्टर रूप सिखाया गया। तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज होने के दौरान वादा किया था कि वह शरिया कानून के जरिए पाकिस्तान के पश्तून इलाके और अफगानिस्तान में शान्ति वापस लाएगा। लेकिन शरिया कानून के तहत अफगानिस्तान में नागरिकों पर काफी सख्त कानून लागू हुए। इस संगठन का उद्देश्य अफगानिस्तान को अफगान अमीरात में तब्दील करना है। अमीरात शब्द अमीर से बना है, इस्लाम में अमीर का मतलब प्रमुख या प्रधान से है। इस अमीर के तहत जो भी जगह या देश है, वो अमीरात कहलाता है। इस तरह इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान का मतलब हुआ एक इस्लामिक देश, जिसमें तालिबान के मौजूदा सरगना हैबतुल्लाह अखुन्दजादा सर्वोच्च नेता है। अफगानिस्तान में जिस आतंकी संगठन को खत्म करने के लिए अमेरिकी सेना ने तालिबान को 2001 में सत्ता से हटाया था, वह है अल-कायदा। इसी को अमेरिका के 9/11 हमलों का जिम्मेदार बताया जाता है। अल-कायदा मुख्य तौर पर सुन्नी इस्लाम की वहाबी विचारधारा को मानता है। अल-कायदा का अरबी में अर्थ है नींव और इसके आतंकियों का मानना है कि उन्हें इस्लाम को बचाने और उसके प्रसार के लिए जिहाद का इस्तेमाल करना चाहिए। अल-कायदा का मानना है कि यह हर मुस्लिम की जिम्मेदारी है कि वह इस्लाम का विरोध करती दिख रही ताकतों के खिलाफ एकजुट हो जाए। कई अर्थों में आईएस के उदय को अल-कायदा के पतन से जोड़ा जाता है। दरअसल, दोनों ही संगठन लगभग एक ही विचारधारा को मानते हैं और आईएस के बनने के बाद अल-कायदा ने खुद आईएस के आतंकी राज का समर्थन किया था।
दुनिया में इस्लाम को एकजुट समाज के तौर पर देखा जाता है और आमतौर पर लोग मुसलमानों की दो ही शाखाओं शिया और सुन्नी के बारे में ही सुनते रहते है, लेकिन इनमे भी कई फिरके है। इसके आलावा कुछ ऐसे भी फिरके है, जो इन दोनों से अलग हैं। इन सभी के विचारों और मान्यताओं में इतना विरोध है की यह एक दूसरे को काफिर तक कह देते हैं और इनकी मस्जिदें जला देते, लोगों को कत्ल कर देते है। शिया तो मुहर्रम के समय सुन्नियों के खलीफाओं, सहबियों और मुहम्मद साहिब की पत्नियों आयशा और हफ्शा को खुले आम गलियां देते है। इसे तबर्रा कहा जाता है। सुन्नियों के फिरको में हनफी, शाफई, मलिकी,हम्बली,सूफी,वहाबी, देवबंदी,बरेलवी,सलफी,अहले हदीस आदि के मुख्य तौर पर नाम लिए जा सकते हैं। शियाओं के फिरकों में इशना अशरी, जाफरी, जैदी, इस्माइली, बोहरा, दाऊदी, खोजा, द्रूज के नाम लिए जा सकते हैं। कुल मिला कर इस्लाम में 72 फिरके बताए गए हैं जो कहने को तो चाहे मुसलमान हैं परन्तु एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। इस्लाम में मजहब के नाम पर दूसरों को ईमान में लाने और इसके लिए जिहाद के नाम पर दूसरे धर्मों से लडऩे की ही विसंगती नहीं बल्कि इसके फिरके भी आपस में लड़ते-झगड़ते और एक दूसरे का खून बहाते देखे जा सकते हैं। अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि इस्लामिक देशों में भी मुसलमान अपने ही सहधर्मी मुसलमान के खिलाफ हथियार उठाए हुए है। अब इस्लाम के धर्मगुरुओं, मजहब हितैषियों, चिन्तकों, बुद्धिजीवियों, नेताओं का दायित्व बनता है कि वह इस्लाम को शान्ति का धर्म बनाएं क्योंकि किसी भी धर्म में इस तरह की खानाजंगी न तो खुद उसके लिए और न ही दुनिया के हित में है।
- राकेश सैन, जालन्धर