जनादेश मांगने से ठीक पहले...

अतुल तारे

भोपाल। भारतीय जनता पार्टी अपने प्रेरणा स्रोत पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर मंगलवार को एक बार फिर ऐतिहासिक जम्बूरी मैदान में कार्यकर्ता महाकुंभ का आयोजन कर चुनावी शंखनाद फूंकने जा रही है। यह आयोजन प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में तीसरी बार है। वर्ष 2008 एवं 2013 में भी भारतीय जनता पार्टी ने कार्यकर्ताओं के प्रदेशव्यापी समागम से ही अपने चुनावी अभियान का श्रीगणेश किया था। यह आयोजन भाजपा की चुनावी रणनीति की एक अहम् शुरुआत है, पर भाजपा के नीति निर्धारक यह जानते हैं कि 15 साल के लगातार शासनकाल में ऐतिहासिक उपलब्धियों के बावजूद भाजपा के लिए यह रण एक बड़ी चुनौती है। देखना दिलचस्प होगा कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने कार्यकर्ताओं को चुनावी युद्ध से ठीक पहले क्या मंत्र देते हैं।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2003 में प्रदेश निराशा के गर्त में था। श्री दिग्विजय सिंह के 10 साल के कार्यकाल में विकास के मोर्चे पर मध्यप्रदेश एक बीमारू राज्य बन चुका था। लालटेन युग क्या होता है, यह कांग्रेस ने सजीव कर दिया था। गड्ढों के बीच सड़कें ढूंढना पड़ती थीं। खेती चौपट हो गई थी। औद्योगिक निवेश ठप था। यही नहीं कांग्रेस ने अपने दलित एजेंडा के नाम पर प्रदेश के सामाजिक ताने बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया था। गांव एवं शहर के बीच एक नया संघर्ष शुरु हो गया था। अत: 2003 का जनादेश जहां एक ओर भाजपा को बेशक अवसर देने के लिए था, वहीं कांग्रेस को खारिज करने के लिए अधिक था। भाजपा ने एक कठिन समय में प्रदेश की बागडोर संभाली और उमाश्री भारती के नेतृत्व में एक धीमी किन्तु ठोस शुरुआत दी। पर शुरुआती दो ढाई साल में असामान्य राजनीतिक घटनाक्रम के चलते पहले उमाश्री भारती को पद छोडऩा पड़ा एवं उसके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर ने भी बेहद कम समय के लिए प्रदेश की कमान संभाली। एक बार फिर प्रदेश की राजनीति में यह कयास लगने लगे थे कि भाजपा की सरकार शापित है और यह अपना कार्यकाल पूरा शायद न कर पाए। ऐसे अनिश्चय भरे वातावरण में प्रदेश में एक 'लो प्रोफाइल युवा राजनेता के रूप में शिवराज सिंह की आमद हुई। अपेक्षाएं तब भाजपा से प्रदेश को बेशक थीं, मोहभंग नहीं हुआ था, पर शिवराज सिंह कुछ बड़ा कर पाएंगे ऐसा भरोसा तब शीर्ष नेतृत्व को भी नहीं था। पर प्रशंसा करनी होगी, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की कि न केवल उन्होंने प्रदेश के विकास को एक गति दी अपितु समाज के प्रत्येक वर्ग को खासकर उस वर्ग को भाजपा के पारंपरिक जनाधार में जोडऩे का प्रयास किया, जो भाजपा के वोटर नहीं थे। सरकार, सरकार से हटकर सामाजिक हो सकती है, अत्यंत संवेदनशील हो सकती है यह शिवराज सिंह ने अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं से साबित किया, जो बाद में देश के लिए मॉडल भी बनीं। यहीं वजह रही कि पांव-पांव वाले भैया, मामा भी बने, और बूढ़े माता-पिता के श्रवण कुमार भी, युवा साथियों के भाई भी। शिवराज सिंह की यह लोकप्रियता 2008 एवं 2013 में चरम पर थी। किसी राजसी खानदान के न होने के बावजूद उनका व्यक्तित्व प्रदेश में आकर्षण का दूसरा नाम बन चुका था और यह आज भी एक सच्चाई है कि महाकौशल हो या विंध्य, मालवा हो या मध्यभारत शिवराज सिंह के समान लोकप्रिय सर्वव्यापी चेहरा आज प्रदेश में किसी राजनीतिक दल के पास नहीं। 'स्पर्श की राजनीति' एक नई राजनीतिक शब्दावली ने जन्म लिया क्योंकि जनता शिवराज सिंह को छूना चाहती थी। शिवराज सिंह के इस चेहरे को गढऩे में पर्दे के पीछे संगठन की अहम् भूमिका रही। इसमें तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष एवं वर्तमान में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की प्रमुख भूमिका रही और प्रदेश में शिवराज-नरेन्द्र की जोड़ी ने राष्ट्रीय राजनीति में अटल-आडवाणी की जोड़ी के समान ख्याति अर्जित की। यही नहीं प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वर्तमान सांसद प्रभात झा, नंदकुमार चौहान एवं संगठन महामंत्री के रूप में कप्तान सिंह सोलंकी, माखनसिंह चौहान एवं अरविंद मेनन ने भी अपनी प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया। एक नाम और महत्वपूर्ण है जो अब हमारे बीच नहीं है, वह है स्व. अनिल दवे का। एक कुशल रणनीतिकार के रूप में भाजपा आज जब अपना एक कठिन चुनाव लडऩे जा रही है, वह श्री दवे की गैर मौजूदगी को पल-पल महसूस कर रही होगी।

बात करें, अब 2018 की। शिवराज सिंह आज भी लोकप्रिय है, यह जन आशीर्वाद यात्रा ने प्रमाणित कर दिया है। संगठन की कमान एक अनुभवी सांसद के पास है, जिन्हें हम राकेश सिंह के नाम से जानते हैं। संगठन महामंत्री के रूप में संगठन शिल्पी के रूप में जाने जाने वाले सुहास भगत पर्दे के पीछे मुस्तैद हैं। केन्द्र ने एक बार फिर 2013 की तरह ही नरेन्द्र सिंह तोमर को कमान सौंप दी है। इधर केन्द्र की सफलताएं मोदी करिश्मा एवं शाह की रणनीति बोनस हैं। बावजूद इसके 2018 क्लीन स्वीप है। कांग्रेस मैदान में दिखाई न देने के बावजूद मैदान में नहीं है, यह कोई नहीं मान रहा। निश्चित रूप से भाजपा की चिंता एवं चुनौती यहीं से शुरु होती है।

कार्यकर्ता महाकुंभ के अपने लाभ हैं, संदेश हैं, वह अपनी जगह। पर समय बेहद कम है और भाजपा की पहली और बड़ी चुनौती अपने शुद्ध सात्विक एवं प्रामाणिक कार्यकर्ताओं को चिन्हित करने की है। 15 साल की सरकार में विकृतियों ने कहीं-कहीं घर बना लिया है, अपने कटे-कटे से हैं। अत: शीर्ष नेतृत्व को चाहिए कि जो जम्बूरी मैदान आ गए, उनका स्वागत है, पर जो नहीं आ पाए वह कार्यकर्ता नहीं हैं, यह मानने की भूल न करें।

कारण लाखों के जन समुद्र में सभी कार्यकर्ता ही हैं, ऐसा नहीं है। अत: अपने शानदार नेटवर्क का नेतृत्व इस्तेमाल करें और बूथ स्तर पर कार्यकर्ता से प्रत्यक्ष संवाद करें और एक 'पॉलिटिकलÓ नहीं आत्मीय 'झप्पीÓ दे, कार्यकर्ता दौड़ पड़ेगा। वहीं टिकट वितरण में मेरा-तेरा छोड़ते हुए एक आदर्श मापदंड बना कर स्वच्छ एवं ऊर्जावान चेहरों को सामने लाने का साहस दिखाए।

कांग्रेस एवं बहुजन समाजवादी पार्टी का गठबंधन होगा या नहीं होगा, यह अगले कुछ दिनों में स्पष्ट होगा। पर भाजपा नेतृत्व यह गठबंधन होगा, ऐसा मान कर समाज के प्रत्येक वर्ग को खासकर बिगड़े सामाजिक वातावरण में अपने विभिन्न प्रकोष्ठों के माध्यम से आने वाले 45-50 दिनों में एक-एक घर में दस्तक देकर बताए कि सरकार ने इस वर्ग के लिए क्या किया है। वहीं कथित रूप से सवर्ण या सामान्य वर्ग के मतदाताओं के प्रबोधन हेतु भी भाजपा को इस चुनाव में अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ेगी, ऐसा लगता है।

कांग्रेस को प्रदेश विकल्प नहीं मान रहा, यह सच है। पर वह कहीं-कहीं भाजपा से भी नाखुश है। अत: आने वाले दिनों में सरकार एवं संगठन भले ही कम बोले पर सार्थक बोले, प्रत्यक्ष संवाद करे, अपनी प्रामाणिकता की स्वयं भी ईमानदारी से जांच करें और जहां कमी लगे उसे ठीक कर जनादेश मांगने जाए, तो यह मानिए जनता चौथी बार एक इतिहास बनाना चाहती तो है, वह देखना चाहती है, आप तैयार हैं क्या?

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