जनजातीय गौरव दिवस : मध्यप्रदेश में सबसे पहले जनजातियों ने फूंका था आजादी के संघर्ष का बिगुल
जनजातीय गौरव दिवस 15 नवम्बर पर विशेष (लेखक : रंजना चितले)
भारत की संस्कृति, स्वाभिमान और स्वायत्तता के लिए जितना बलिदान और संघर्ष जनजातियों का है, वैसा उदाहरण संसार में कहीं नहीं मिलता। भारत में प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी के विरुद्ध जनजातियों ने सबसे पहले शस्त्र उठाये हैं। यदि देशी सत्तायें पराभूत हुईं हैं तो उन्हें संरक्षण देने का कार्य भी जनजातियों ने ही किया है। इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जब किसी आक्रमणकारी के भय या लालच से भ्रमित होकर जनजातियों ने घात किया हो। अंग्रेजी राज में सबसे पहले जनजातियों ने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए मजरों, टोलों से तीर-कमान उठाये और अंग्रेजों से संघर्ष किया। मध्यप्रदेश में जनजाति क्रांति का लम्बा इतिहास है।
भारत में स्वाधीनता का अंकुर स्वतंत्रता प्रिय जनजातियों के बीच ही अंकुरित हुआ। वनों और पर्वतों में रहने वाली जनजातियों की जनजातीय चेतना ने अंग्रेजों सहित हर आततायी, निरंकुश और आक्रमणकारी सत्ता के विरुध्द निर्लिप्त संघर्ष किया। अपनी माटी के प्रति समर्पित इन जनजातियों के इसी स्वाधीनता संघर्ष को आगे चलकर समूचे राष्ट्र ने स्वीकारा। इसीलिए अंग्रेजों ने जनजातियों का दमन करने के लिए दो काम किये। पहला शिक्षा और सेवा के नाम पर परिवर्तन का अभियान चलाया और दूसरा कुछ जनजाति समूहों को अपराधी घोषित किया।
उत्तर में विंध्याचल से लेकर दक्षिण-पश्चिम में सहयाद्रि के पश्चिमी घाट तक का अंचल भीलों का निवास स्थान था। अंग्रेजी राज के चलते भीलों पर दमन, शोषण का लम्बा सिलसिला चला। अन्तत: भीलों ने भी शांतिपूर्ण जीवन छोड़कर शस्त्र उठाए और अंग्रेजों के लिए आतंक बन गए। भीलों ने श्रृंखलाबद्ध संघर्ष किया। सन् 1817 में खानदेश के भीलों का विद्रोह हुआ। अंग्रेजों ने इस विद्रोह के पीछे पेशवा के मंत्री त्रियंबक के होने की बात कही। बम्बई प्रेसीडेन्सी के एलफिंस्टन ने लिखा है- 'त्रियंबक और उनके दो भतीजे गोंडा जी दंगल और महीपा दंगल खानदेश के विद्रोही नेता हैं।'
हरे-भरे वनों में क्रांति की ज्वाला
खानदेश पर अंग्रेजों का कब्जा सन् 1818 में होते ही भीलों ने पराधीनता को सिरे से नकार दिया और संघर्ष शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने क्रूरता से भील क्रांति का दमन किया। भील नायकों को कैद कर लिया गया, रसद की सप्लाई रोक दी गयी और पहाड़ियों के दर्रों पर सेना तैनात कर दी गई। यही नहीं भीलों को नौकरी और भत्ते का प्रलोभन भी दिया गया लेकिन अंग्रेजों को सफलता नहीं मिली।
भीलों ने पुन: क्रांति सन् 1819 में की, पहाड़ी क्षेत्र की विभिन्न चौकियों पर कब्जा कर लिया, भीलों की टोलियों ने अंग्रेज शासकों की हालत खराब कर दी थी। यह सिलसिला लंबे समय तक चला। भीलों के नेता शहीद हो जाने पर नये नेता नेतृत्व संभाल लेते थे और चौकियों की रक्षा करते थे। इस तरह पहाड़ियों और जंगलों में भील अजेय रहे। अंग्रेजों ने कई साजिशें रचीं, यहां तक कहा कि भील हथियार रख देंगे तो वे उन्हें माफ कर देंगे। स्वाभिमानी भील इस पर भी नहीं झुके तो अंग्रेजों ने दमन चक्र तेज किया। सतमाला पहाड़ी के भील सरदार चील नायक को पकड़कर फांसी दे दी गई।
भील नायक दशरथ ने सन् 1820 में मोर्चा संभाला तो हिरिया नायक के नेतृत्व में भीलों ने सन् 1822 में अंग्रेजी राज को चुनौती दी। कर्नल रॉबिन्स सन् 1823 में बड़ी सेना लेकर भीलों के क्षेत्र में दाखिल हुए। दो वर्षों तक भीलों का क़त्ल किया गया। उनकी बस्तियों में आग लगा दी गयी, इस पर भी वे भीलों को तोड़ नहीं पाये।
सन् 1824 में त्रियंबक के भतीजे गोंडा जी दंगलिया ने भीलों को एकत्र कर विप्लव किया। वहीं सन् 1826 में दांग सरदारों और लोहारा के भीलों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा लिया। सन् 1827 में लेफ्टिनेंट आउटरम ने भील सेना की स्थापना की और भील क्रांति को दबाने के लिए उनका उपयोग किया गया। इसके बाद भी कई साल तक भील आक्रोश सुलगता रहा। धार राज्य के भीलों ने सन् 1831 में संघर्ष शुरू किया तो सन् 1846 में मालवा के भीलों ने मोर्चा लिया। खानदेश के भीलों ने सन् 1852 में प्रबल संघर्ष किया और फिर सन् 1857 में भगोजी नायक तथा काजर सिंह के अलावा कई भील- भिलाला नायक और असंख्य भीलों ने युध्द में अपना योगदान दिया।
भारत के पहले मुक्ति संग्राम सन् 1857 में लगभग 7 लाख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्हें अंग्रेज विद्रोही कहते थे। जब सन् 1857 की क्रांति असफल हुई तो इन क्रांतिकारियों ने वनों में ही शरण ली। इनकी तलाश में अंग्रेजों की सेना ने जंगलों में आग लगाई, जनजातियों के गांव जलाये। लेकिन फिर भी किसी जनजाति बंधु ने समर्पण नहीं किया। यदि हम सन् 1857 के विवरण में जायें तो पूरे देश में नेतृत्व भले ही देशी सत्ताओं या सैनिकों ने किया हो लेकिन उनके पीछे सामूहिक संघर्ष जनजातियों का ही रहा है।
स्वाधीनता संग्राम का युगान्तकारी मोड़
वस्तुत: सन् 1857 का स्वाधीनता संग्राम इतिहास का एक युगान्तरकारी मोड़ है, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य समाहित है। इस मुक्ति संग्राम के बीज सन् 1857 से ठीक 100 वर्ष पूर्व तभी पड़ गये थे जब अंग्रेजों ने छल-बल से सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय के बाद अपना शासन आरम्भ किया था। चेतना के स्तर पर लगे इसी अंकुर ने सन् 1857 में महासंग्राम का रूप लिया।
कालान्तर में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की प्रेरणा ने श्रृंखलाबद्ध आंदोलनों की पृष्ठभूमि निर्मित की। अंग्रेजों की लूट-खसोट और अत्याचार से भारतीयों का सब्र टूट गया। स्वधर्म और स्वराज की गूंज के साथ भारतवासी उठ खड़े हुए, जिसमें सम्पूर्ण भारत के स्वर समाए थे।
सन् 1857 की क्रांति से लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व संत रामदास द्वारा शिवाजी महाराज को दिया मंत्र देश में गूंज उठा। मंत्र था:
धर्मासाठी मरावे, मरोनी अवध्यांस मारावे।
मारिता मारिता घ्यावे, राज्य आपुले॥
अर्थात् अपने धर्म के लिये मरो। मरते-मरते शत्रु का विनाश करो। इसी तरह लड़ते रहो, मरते रहो और अपना राज्य वापस ले लो। इसी मनोविज्ञान के साथ अंग्रेजों की अत्याचारी, अन्यायी, दमनकारी नीति, आर्थिक शोषण, सामाजिक रीति-रिवाजों और धार्मिक परम्पराओं में गंभीर हस्तक्षेप के कारण उपजे असंतोष की छटपटाहट फूट पड़ी थी।
महासमर में 10 मई 1857 को भारतीयों ने बलिदानी पहल कर यह साबित कर दिया कि अपनी धरती, अपना देश और अपनी स्वतंत्रता के लिए भारतीय जन किसी भी सीमा तक बलिदान दे सकता है।
स्वाभिमानी स्वतंत्रता प्रिय जनजातियों ने तो आरम्भ से ही विदेशी सत्ता को नकार दिया था। सन् 1857 में मुक्ति संग्राम की चिंगारी जब उत्तर भारत होती हुई मध्यभािरत पहुंची तो मालवा-निमाड़ के जनजाति भील-भिलाला नायकों ने मोर्चा थामा। इन नायकों में टंटया भील, भीमा नायक, खाज्या नायक, सीतराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई आदि ने संघर्ष का गौरवपूर्ण इतिहास रचा। जनजाति क्रांतिनायकों के साथ बरुद के श्यामसिंह, अकबरपुर के रेउला नायक, मकरोनी परगना के कल्लू बाबा, नाना जगताप, दौलत सिंह, टिक्का सिंह, परगना सिकन्दर खेरा के निहाल सिंह के अतिरिक्त फौजी टीकाराम जमादार और जवाहर सिंह ने मिलकर अनूठा संघर्ष किया।
सेठ-साहूकारों के चंगुल से गरीबों को दिलाई मुक्ति
सन् 1857 क्रांति के दिनों में सम्पूर्ण मालवा, निमाड़ में क्रांतिकारियों का जाल फैला था। खरगौन और उसके आसपास का क्षेत्र क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र था। जनजाति क्रांतिकारियों की श्रृंखलाबद्ध व्यवस्था अद्भुत थी। एक नायक के बलिदान होते ही दूसरा नायक मोर्चा थाम लेता था ताकि क्रांति अनवरत चलती रहे। इन भील जननायकों में टंटया भील तो अपने शौर्य और पराक्रम से अलौकिक किवंदंती बन गये। टंटया भील का जन्म सन् 1842 के आसपास हुआ। मात्र 16 वर्ष की आयु में वह क्रांतिवीर हो गये। वह हजारों बहनों का भाई और तरुणों का मामा था। संकट में लोग टंटया मामा को पुकारते। वह हवा की तरह आता, लोगों को शोषण से मुक्त करवाता और अगले मोर्चे पर चल देता। उसने अंग्रेजों के चाटूकार सेठ-साहूकारों के चंगुल से दीन-हीन गरीबों को मुक्ति दिलाई, अंग्रेजों से लगातार संघर्ष किया और जनयोध्दा बन गया। यही नहीं वन में शरण के लिए आये सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों का वह आश्रयदाता भी था।
15 सितम्बर 1857 को उसकी भेंट क्रांति के महानायक तात्या टोपे से हुई। उसने तात्याटोपे से गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण प्राप्त किया। टंटया के जीवन का एकमात्र उद्देश्य था शोषकों को दण्ड देना और हर गरीब को उसका हक दिलाना। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध उस अग्नि को और प्रज्ज्वलित किया जो वनांचलों और पर्वतों की तहलटियों में बसे टोलों में उसके जन्म से भी पहले नादिर सिंह, चीलनायक, सरदार दशरथ, हिरिया, गौंडाजी, दंगलिया, शिवराम पेंडिया, सुतवा, उचेत सिंह और करजर सिंह आदि नायकों ने सुलगाई थी। टंटया के आक्रामक मोर्चों से अंग्रेज बौखला गये। उसे पकड़ने के लिए पुलिस बिग्रेड तक की स्थापना कर दी गई पर अंग्रेजी फौज उस तक पहुंच न सकी।
नर्मदा किनारे मध्यप्रदेश और गुजरात की पट्टी का शेर और झाबुआ वेस्ट के भीलों के आदर्श टंटया को पकड़ना आसान न था। अंतत: अंग्रेजों ने छल, बल का सहारा लिया, मानसिंह ने गद्दारी का इतिहास रचा। 04 दिसम्बर सन् 1889 को फाँसी पर चढ़कर शोषितों का सहारा और शोषकों को छका देने वाला मसीहा टंटया भील बलिदान हो गया।
शोषण और अत्याचार के विरुद्ध थे क्रांतिकारी
स्वाधीनता संघर्ष और जनजातीय चेतना का एक ऐसा ही भील नायक हुआ है भीमा नायक। मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र के इस नायक ने सन् 1840 से सन् 1864 तक अंग्रेजों के विरुद्ध भीलों की क्रांति का नेतृत्व किया। तात्या टोपे से प्रेरित और उन्हें नर्मदा पार करवाने वाले इस नायक ने सन् 1857 के स्वातंत्र्य समर में निमाड़ में अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। पश्चिम मध्यभारत की भील जनजातियों का नेतृत्व करने वाला भीमा नायक बड़वानी रियासत के पंचमोहली गाँव का रहने वाला था। सन् 1857 के समर में अंग्रेजों से सीधी भिड़ंत के बाद अंग्रेजों ने खानदेश भील कोर को उसके पीछे लगा दिया था लेकिन वह उसे पकड़ न सके। भीमा नायक अपने साथियों मोवासिया, रेवलिया नायक और दस हजार क्रांतिकारियों के साथ डंटा रहा। अंग्रेजों के शोषण और अत्याचारों से मुक्ति के इस मोर्चे में भीमा की माँ सुरसी ने भी एक क्रांतिकारी टोली का नेतृत्व किया। माँ सुरसी को कैद कर अंग्रेजों ने भीषण यातनाएँ दीं। भूख-प्यास से तड़पती सुरसी ने जेल में ही अपना बलिदान दिया।
प्रतिशोध में भील क्रांतिकारियों ने हमले तीव्र कर दिये। सम्पूर्ण निमाड़ में क्रांतिकारियों का जाल फैला था। क्रांति गतिविधियों में जुलाई सन् 1857 में खरगौन क्षेत्र में बाम्बे मार्ग पर, अक्टूबर सन् 1857 में ब्रह्मानगाँव में, मंडलेश्वर, महेश्वर, राजपुर खरगौन के अलावा पीपलखेड़ा और खरसन गाँव में तीव्र हमले हुए। क्रांति अभियानों से भयभीत अंग्रेज परिवार सहित खरगौन छोड़ इन्दौर भाग गये। क्रांति को दबाने के लिये महेश्वर और मण्डलेश्वर में फोर्स तैनात की गई। अंग्रेजों के दमन चक्र की परवाह किये बिना स्वाभिमानी भीलों ने हथियार नहीं डाले।
सन् 1857 की क्रांति को दबाने के बाद जहाँ सारे भारत में अंग्रेजों ने सत्ता हासिल कर ली थी। वहीं भील योध्दा अपने मोर्चे पर डटे रहे। निमाड़ में सभी नायकों ने मिलकर 16 दिसम्बर सन् 1866 को आक्रमण किया। अंग्रेजों को बड़ा नुकसान हुआ। इसमें धर-पकड़ का सघन अभियान चला। कई नायक पकड़े गये, पर भीमा नायक को पकड़ न सके। भीमा की सीधे गिरफ्तारी संभव नहीं थी, इसलिए अंग्रेजों ने षड़यंत्र रचा। गद्दार की सूचना पर 2 अप्रैल सन् 1867 को घने जंगल में सोते हुए कैद किया। भीमा ने मृत्यु तुल्य यातनाएँ सहीं पर अन्त तक अंग्रेजों से समझौता नहीं किया।
बड़वानी के खाज्या नायक
खाज्या नायक निमाड़ के सेंधवा घाट के निवासी थे। उन्होंने अंग्रेजी राज को नकारते हुए अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी और बड़वानी क्षेत्र में भीलों के स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। लगातार संघर्ष किया और बगैर किसी समझौते के फाँसी पर चढ़ गए।
महासंग्राम के कुछ समय पूर्व सन् 1857 से ही क्रांति महानायक तात्या टोपे खाज्या नायक के संपर्क में थे। ग्वालियर के महादेव शास्त्री और पुनासा के नारायण सूर्यवंशी से निमाड़ में होने वाले पत्रों के आदान-प्रदान में खाज्या नायक की प्रमुख भूमिका थी। खाज्या नायक की क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल 800 क्रांतिकारियों में भीलों के अतिरिक्त मकरानी और अरब योध्दा भी शामिल थे। खाज्या नायक ने विपन्न गरीबों के लिए 20 जनवरी, 1858 को ले. एटिकन्स और लें. पोरबिन ने नेवली के दक्षिण पश्चिम में खाज्या के दल पर हमला कर किया। इसमें खाज्या नायक की पराजय हुई। सिरपुर के आसपास के सभी क्रांतिकारी भील और भीमा नायक का दल भी खाज्या नायक के साथ हो लिया।
खाज्या ने सन् 1857 महासंग्राम के तत्कालीन विराम के बाद भी अपना युध्द जारी रखा। लगातार युध्दों की श्रंखला में 1 जुलाई, 1860 में अंग्रेजों से प्रत्यक्ष युध्द हुआ। इस युध्द में खाज्या नायक के 1500 क्रांतिकारी शहीद हुए और सैकड़ों गिरफ्तार किए गए। 150 क्रांतिकारियों को पेड़ से बांधकर गोली से उड़ा दिया गया। शेष साथियों को पलायन करना पड़ा। खाज्या नायक को पकड़ने में असमर्थ होने पर अंग्रेजों ने साजिश रची इसमें रोहिद्दीन नामक मकरानी जमादार को शामिल किया गया। 3 अक्टूबर, 1860 को स्नान उपरांत सूर्य उपासन करते समय खाज्या नायक पर गद्दार रोहिद्दीन ने पीछे से गोली चला दी। अपनों की गद्दारी से निमाड़ के भील महायोध्दा के संघर्ष को नियति ने विराम लगा दिया।
निमाड़ के सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह भिलाला
सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई, भिलाला जनजाति नायक थे। उन्होंने सन् 1857 के युध्द में अंग्रेजों के विरुध्द निमाड़ क्षेत्र में आवाज उठाई। शोषण के खिलाफ मोर्चा लिया और अंग्रेजों से युध्द करते हुए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
सन् 1857 की क्रांति के समय बड़वानी रियासत के आरंभ में खाज्या नायक और भीमा नायक ने मोर्चा संभाल लिया। अंग्रेजों द्वारा इन भील नायकों के दमन के बाद सीताराम कंवर और रघुनाथसिंह मंडलोई ने भिलाला क्रांति की कमान संभाली। इन क्रांति नायकों ने भील-भिलाला के तीन हजार क्रांतिकारियों का संगठित दल बनाया और होल्कर दरबार के सवारों, सिपाहियों आदि को भी क्रांति के लिए प्रेरित किया।
क्रांति दल खरगौन की ओर बढ़ा फिर 30 सितम्बर, 1858 को क्रांतिकारियों ने बालसमुन्द चौकी पर अधिकार किया और जामुनी चौकी को लूटकर जला दिया। दल प्रमुख सीताराम कंवर को पकड़ने के लिए अंग्रेज सरकार ने पाँच सौ रुपये के ईनाम की घोषणा की तभी अकबरपुर क्षेत्र में सीताराम कंवर ने तीव्र हमले किये। क्रांतिकारियों ने पहाड़ी से नीचे आकर दो चौकियों और डाकघर पर कब्जा किया और डाक के घोड़ों को छीन लिया।
8 अक्टूबर, 1858 को वीर योध्दा सीताराम कंवर और उनके साथी बरूद गाँव की ओर बढ़े। ब्रिटिश फोर्स का उनके दल से बंड नामक स्थान पर युध्द हुआ। इस मुठभेड़ में क्रांतिकारियों की हार हुई। 20 क्रांतिकारी शहीद हुए जिनमें नायक सीताराम कंवर और हवालदार ज्वाला भी थे। दल के 78 क्रांतिकारियों को कैद कर फाँसी दे दी गयी। नायक सीताराम कंवर के शहीद होते ही अक्टूबर 1858 के आसपास टांडा बरूद के भिलाला नायक रघुनाथसिंह मंडलोई ने क्रांति की कमान थामी।
नायक रघुनाथ सिंह मंडलोई अपने अभियान के बाद अक्सर बीजागढ़ में ठहरते थे। उन्हें पकड़ने के लिए कीटिंग बीजागढ़ किले पर धावा बोलने के लिए एक फोर्स लेकर बीजागढ़ की ओर बढ़ा। बड़वानी में 8 अक्टूबर की शाम को होल्कर राज्य की फोर्स भी कीटिंग से आ मिली। मेजर कीटिंग ने बीजागढ़ किले में रघुनाथ सिंह मंडलोई और अन्य एकत्रित क्रांतिकारियों के पास संदेश भेजा कि वे बातचीत के लिए आएं। रघुनाथ सिंह मंडलोई कीटिंग के पास आये लेकिन बातचीत के स्थान पर मेजर कीटिंग ने छल से रघुनाथ सिंह को बन्दी बना लिया।
शंकरशाह-रघुनाथशाह
स्वाधीनता संग्राम के बलिदानियों की इसी श्रंखला में विश्व इतिहास में बलिदान का अनूठा उदाहरण है जबलपुर अंचल के राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह का। गोंडवाना के गोंड राजवंश के प्रतापी राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया था। राष्ट्रभक्ति भावपूर्ण कविता लिखने पर राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा दिया गया था।
वर्तमान में जबलपुर नगर का हिस्सा बना पुरवा ग्राम जो जबलपुर से चार मील दूर स्थित था, इसी गाँव में राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह का निवास था। यहीं रह कर उन्होंने गुप्त रूप से सन् 1857 के महासंग्राम में सैनिकों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। क्रांति योजना राजा शंकरशाह के निवास पर ही बनी थी। जबलपुर की 52वीं रेजीमेंट के सिपाही इस सिलसिले में अक्सर राजा शंकरशाह के घर जाया करते थे। अपने क्रांतिकारी साथियों और 52वीं रेजीमेंट के सैनिकों के साथ मिलकर पिता-पुत्र ने क्रांति योजना बनाई। मुहर्रम के दिन छावनी पर आक्रमण करना सुनिश्चित किया गया। लेकिन भारतीय इतिहास का नकारात्मक पक्ष पुन: प्रभावी हुआ। देश के गद्दार ने यह सूचना अंग्रेजों तक पहुँचा दी।
गद्दार खुशहाल चन्द के अलावा अन्य दो जमींदारों ने भी गद्दारी की। योजना में सेंध लगी और डिप्टी कमिश्नर ने षडयंत्र रचा। उसने एक तरफ सुरक्षा बढ़ाई, दूसरी ओर सैनिकों के असंतोष के स्त्रोत का पता लगाने के लिए गुप्तचरों का जाल बिछाया, तीसरा राजा शंकरशाह के विरुध्द प्रमाण तलाशना शुरू किया। सुनियोजित योजना बनाकर फकीर के वेश में एक गुप्तचर राजा के पास भेजा गया। चूंकि सन् 1857 के महासंग्राम में संन्यासी फकीरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी अत: राजा ने उस फकीर को क्रांति मार्ग का पथिक माना और अपनी संपूर्ण योजना बता दी। गुप्तचर से सूचना मिलते ही 14 सितम्बर, 1857 को डिप्टी कमिश्नर अपने लाव-लश्कर के साथ राजा शंकरशाह के गाँव पुरवा पहुँचा।
राजा के घर की तलाशी ली गयी। इसमें क्रांति संगठन के दस्तावेजों के साथ राजा शंकरशाह द्वारा लिखित एक कविता मिली। यह कविता अपनी आराध्य देवी को संबोधित कर लिखी गयी थी। कविता थी-
मूंद मुख डंडिन को चुगलौं को चबाई खाई
खूंद डार दुष्टन को शत्रु संहारिका
मार अंगरेज, रेज कर देई मात चंडी
बचै नाहिं बैरी-बाल-बच्चे संहारिका॥
संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर
दीन की पुकार सुन आय मात कालका
खाइले मलेछन को, झेल नाहि करौ मात
भच्छन तच्छन कर बैरिन कौ कालिका॥
इसी तरह की प्रार्थना उनके बेटे रघुनाथशाह की हस्तलिपि में भी थी। दोनों क्रांतिवीर पिता-पुत्र को बन्दी बनाकर सैनिक जेल में रखा गया। तुरंत डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारियों की एक औपचारिक सैनिक अदालत बैठायी गयी। अदालत में देशद्रोह रूपी कविता लिखने के जुर्म में राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गयी। दुनिया में साहित्य सृजन को लेकर दी जाने वाली यह अमानवीय, अनोखी सजा थी। क्रांतिकारी राजा और उनके पुत्र को मृत्युदण्ड और फाँसी पर न चढ़ाकर तोप से उड़ाना सुनिश्चित किया गया।
जबलपुर में 18 सितम्बर, 1857 को एजेंसी हाउस के सामने फाँसी परेड हुई। राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को जेल से लाया गया और तोप के मुँह से बांध दिया गया। दोनों के चेहरे आत्म-विश्वास से परिपूर्ण थे। राजा को देखने अपार जन-सैलाब उमड़ पड़ा। भीड़ उत्तेजित थी। राजा शंकरशाह ने आराध्य देवी से प्रार्थना की कि वे उनके बच्चों की रक्षा करें ताकि वे अंग्रेजों का देश निकाला कर सके। शीघ्र ही तोपचियों को तोप दागने की आज्ञा दी गयी। तोप चलते ही दोनों के अंग क्षत-विक्षत होकर चारों ओर बिखर गये।
रानी ने अधजले अवशेष को एकत्र कर उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया। अंग्रेज राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा क्रांति की आग बुझाना चाहते थे लेकिन वह आग बुझी नहीं बल्कि दावानल बन गई। 52वीं रेजीमेंट के सैनिक उसी रात क्रांति की राह पर चल दिए।
क्रांति संघर्ष और बलिदान के बीच अंग्रेजों ने दमन चक्र चलाया और क्रांति की ज्वाला को दबाने का सघन अभियान शुरू किया। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को कुचल देने के बाद भी जनजातियों ने सन् 1866 तक युध्द किया। वीर जनजातियों ने जहाँ प्रत्यक्ष युध्द किया वहीं क्रांतिकारियों को पनाह देकर परोक्ष संघर्ष भी किया। नगरों में असफलता के बाद भी वनों में क्रांति की आग सुलगती रही। अंग्रेजों ने जनजातियों के दमन का अलग ही मार्ग निकाला, उन्हें विभिन्न जातियों में विभाजित कर चोर, लूटेरा घोषित करना शुरू किया। इतिहास साक्षी है अंग्रेजों ने जितनी भी जनजातियों को चोर, लुटेरा घोषित किया, वे सभी घोषणाएँ सन् 1857 के बाद की हैं।
क्षेत्रवार हम देखें तो मध्यप्रदेश में सन् 1857 के मुक्ति संग्राम के विभिन्न केन्द्र थे, जिसमें बुन्देलखण्ड और नर्मदा घाटी में प्रमुख थे सागर, शाहगढ़, गढ़ाकोटा, खुरई, खिमलासा, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, मंडला, होशंगाबाद, बैतूल, चंदेरी और छतरपुर। मध्यभारत में ग्वालियर, इन्दौर, धार, अमझेरा, महिदपुर, मन्दसौर, नीमच और खरगौन। भोपाल रियासत में नवाब सिकन्दर बेगम अंग्रेजों के पक्ष में होने के बावजूद सीहोर छावनी स्थित फौज ने क्रांति कर देश की पहली लोकतांत्रिक सरकार, सिपाही बहादुर सरकार की स्थापना की।
जब क्रांति ज्वाला को दबाने का सघन अभियान चलाया गया तब क्रांति के महानायक तात्या टोपे ने लगभग 11 महीनों तक गुरिल्ला युध्द जारी रखा। तब प्रदेश के भील नायकों ने उनके साथ मोर्चा थामा। लेकिन मानसिंह की गद्दारी ने अपना इतिहास रचा और सन् 1857 के महासंग्राम को अस्थाई विराम लगा। संघर्ष, शौर्य और कुर्बानियों का ऐसा उदाहरण इतिहास में कहीं नहीं मिलता।
छिंदवाड़ा के जनजातीय नायकों की हुंकार
स्वत्व, स्वाभिमान और स्वराज के लिए जनजातीय वीरों के बलिदान का एक ओर अध्याय है छिंदवाड़ा जिले के भोई जनजाति के अमर वीरों का। जब देश में सन् 1923 में राष्ट्रव्यापी स्वाधीनता आंदोलन चरम पर था, तब छिंदवाड़ा के जनजातीय नायक बादल भोई अपने साथियों के साथ स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गये। बादल भोई ने सन् 1923 में तामिया तहसील में सभा का आयोजन किया। उनके जोशीले भाषण और आह्वान से कोयतोर (गोंड) जनजाति के लोग स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गए। उनके नेतृत्व में हजारों जनजाति वीरों ने मोर्चा थाम लिया। इन क्रांतिकारियों में बादल भोई के साथ सहरा भोई, अमरू भोई, इमरत भोई, लोटिया भोई, टापरू भोई और झंका भोई जैसे जनजाति नायकों ने स्वाधीनता संघर्ष करते हुए अमर बलिदान दिया।
नमक सत्याग्रह
स्वाधीनता आंदोलन के दूसरे चरण में जब देशभर में गाँधीजी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन चला तब जनजातियों ने अपने-अपने क्षेत्र में अंग्रेजों के प्रति असहयोग दर्ज किया। असल में गाँधीजी के नेतृत्व में चले स्वाधीनता संग्राम में सत्याग्रह, आन्दोलन की प्राण शक्ति था। इसी सत्याग्रह की ताकत ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी। गाँधीजी द्वारा ईजाद किये गये 'सत्याग्रह' तत्व को भारत-वासियों ने एक साथ आत्मसात किया। राष्ट्रपिता ने सन् 1929-30 के 'नमक सत्याग्रह' में नमक बना ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी। यह चुनौती पूरे देश ने दी। मध्यप्रदेश में 'नमक सत्याग्रह' ने ही 'जंगल सत्याग्रह' की नींव रखी। प्रदेश भर में यह आंदोलन बड़े उत्साह के साथ चलाया गया, अनेक देशभक्त शहीद हुए, लाठियाँ खायीं, जेल की यातनाएँ सहीं, पर टस से मस न हुए।
जंगल सत्याग्रह
आन्दोलन के इस दौर में सिवनी जिले का विशिष्ट योगदान रहा है। आदिवासियों ने जंगल सत्याग्रह में अपनी सशक्त भागीदारी सुनिश्चित की, पीढ़ियों से आदिवासियों द्वारा आक्रांताओं के विरोध में उठाई जा रही अपनी गौरव गाथा को बरकरार रखा और जंगल सत्याग्रह में भाग लिया।
टुरिया सत्याग्रह
आरम्भ में सत्याग्रह में सिवनी जिले के स्वयंसेवक शासकीय जंगल, चंदन बगीचा में जाकर घास काट सत्याग्रह करते थे। सत्याग्रही पहले नोटिस देते, जत्थे में जाते और घास काटते। इसकी कार्यवाही में सरकार द्वारा दफा 379/114 ता.हि. एवं 26 फॉरेस्ट एक्ट के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाता व सजा तथा जुर्माना तय किया जाता। जुर्माने की वसूली अत्यंत निर्ममता से की जाती थी। इसमें संपत्ति, पशु, ज़मीन, बर्तन सब कुछ कुड़की में नीलाम कर दिये जाते थे। बावजूद इसके आंदोलनकारी नहीं रुके, उनका जत्था दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। इसी क्रम में 'टुरिया सत्याग्रह' होना था।
टुरिया गाँव सिवनी नागपुर राजमार्ग पर सिवनी से 28 मील दूर खवासा ग्राम से दाहिनी तरफ 5 मील दूरी पर स्थित है। इस वन ग्राम द्वारा नियत समय अनुसार 9 अक्टूबर 1930 को 'चंदन बगीचा' में घास काटकर सत्याग्रह आरम्भ किया जाना तय हुआ। सत्याग्रह की सूचना टुरिया ग्राम के ही सत्याग्रही अग्रणी श्री मूका ने अंग्रेजी शासन को नोटिस देकर दी कि वो 9 अक्टूबर को टुरिया के निकट जंगल में घास काटकर सत्याग्रह करेंगे। इस सूचना से तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर (कलेक्टर) सीमेन भड़क उठा और टीच देम ए लेसन का आदेश देकर पुलिस को लाव-लश्कर के साथ टुरिया भेज दिया। सत्याग्रह के पूर्व रामप्रसाद तथा मूका ने जोश भरे भाषण से अपने साथियों को प्रोत्साहित किया। इस अभियान में लगभग 500 व्यक्ति शामिल थे। पुलिस ने जोर जबरदस्ती से रोकने का प्रयास किया पर सत्याग्रही भला कब रुकने वाले थे। आन्दोलनकारियों ने घास काटी और उपस्थित जन-समुदाय ने श्री मूका का अभिनन्दन किया। पुलिस सब इन्स्पेक्टर सदरउद्दीन और रेंजर मेहता पूरी तैयारी में थे। उन्होंने सत्याग्रह आरम्भ होते ही मूका को गिरफ्तार कर लिया। इस पर जन समूह में आक्रोश उत्पन्न हुआ, ग्रामवासियों की उत्तेजना के विरोध में अंग्रेजी शासन के आदेशानुसार पुलिस गोलियाँ बरसाने लगी। ग्रामवासियों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाई गईं। हाहाकार मच गया। अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता भोले-भाले ग्रामवासियों पर बरस रही थी। घटना स्थल पर ही गुड्डेबाई साकिन खामरीठ, रेनीबाई साकिन खम्बा, देभोबाई सा. भीलवा और विरजू भाई सा. मरझोडू शहीद हो गये। लगभग 35-40 लोग घायल हुए। अंग्रेजों ने अपनी तानाशाही परम्परा के तहत मृतकों के शव घरवालों को नहीं दिये।
खून से भीगी जंगल की देह
टुरिया में गोलीकांड के बाद भी पुलिस की बर्बरता रुकी नहीं। ग्रामवासियों को वृक्षों से बाँधा गया, उन्हें कोड़ों से पीटा, जमीन पर घसीटा तथा लातों-घूंसों से मारा गया। सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया। घायलों को रिश्तेदारों से मिलने तक नहीं दिया। उनकी तड़प और चीख से सिवनी जिला चीत्कार उठा।
अमर शहीदों के खून से भीगी जंगल की देह ने बलिदान का रंग भरा। इस बलिदान के बाद जंगल सत्याग्रह दावानल बनकर प्रांत भर में छा गया। अंग्रेजों ने दमन में कोई कसर नहीं रखी। क्रांतिकारियों में अनगिनत वनवासी शहीद हुए, कइयों को काला पानी की सजा हुई और कई फाँसी पर लटका दिए गए। फाँसी, मौतें और सजाओं का लम्बा सिलसिला चला। इसके बाद भी जनजाति अंचल में स्वातंत्र्य की अलख और संघर्ष जारी रहा, जो भारत की आजादी के बाद ही थमा।
आज हमें स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि में जनजातीय चेतना और युध्द में वीर जनजातियों के बलिदान के लम्बे सिलसिले को नमन करने की आवश्यकता है। हम जानें, समझें और महसूस करें कि हमारे वनांचल के वनवासी बंधुओं के स्वाधीनता के संकल्प, स्वाभिमान और बलिदान की परम्परा से ही हम आज स्वतंत्र भारत में खुली साँस ले रहे हैं।
(लेखिका कथाकार और स्तम्भकार हैं)