पत्रकार - डॉ. बाबासाहब आंबेडकर
'पत्रकार' यह एक ऐसा शब्द है, जो वृत्तपत्र या मीडिया से जुड़े सभी व्यक्तियों को लगाया जाता है। मुद्रितशोधन करने वाला, रिपोर्ट का काम करने वाला, पेज ले आऊट करने वाला, वृत्त पत्र में लिखने वाला, इन सभी को पत्रकार शब्द लगाया जाता है। जब हम डॉ. बाबा साहब आंबेडकर जी का उल्लेख एक पत्रकार इस शब्द से करते है, तब साफ़ शब्दों में यह कहना पड़ेगा कि, उपरोक्त अर्थ में डॉ. बाबा साहब जी को पत्रकार कहना ठीक नहीं लगता। लेकिन दूसरा कोई पर्याप्त शब्द भी उपलब्ध नहीं है, इसलिये पत्रकार इस शब्द का प्रयोग करना पड़ता है।
पत्रकारिता बाबासाहब जी का करियर नहीं था। आजकल पत्रकार बनने के लिये प्रशिक्षण आवश्यक होता है। उनका पत्रकार का प्रशिक्षण भी नहीं था। पत्रकारिता उनके लिये समाज को विचार देने का एक माध्यम तथा समाज को जागृत करने का एक शस्त्र था। उनके कालखंड में 'टाइम्स ऑफ इंडिया' या मराठी में 'केसरी' जैसे ख्यातनाम वृत्तपत्र थे। इन वृत्तपत्रों में बाबासाहब जी के विचारों को स्थान मिलने की संभावना नगण्य थी। इसी कारण उन्होंने 1920 में 'मूकनायक' (पाक्षिक) नाम का वृत्तपत्र निकाला। इसके बारह अंकों का संपादन डॉ. बाबासाहब जी आंबेडकर ने किया। उसके बाद 'बहिष्कृत भारत' (पाक्षिक) नाम का वृत्तपत्र 1927 में शुरू किया। इन दोनों पत्रों का संपादन भी उन्होंने ही किया। मूकनायक और बहिष्कृत के संपादकीय उन्होंने ही लिखे।
मूकनायक के पहले संपादकीय में यह पत्र मैं क्यों शुरू कर रहा हूं, इसको बाबासाहब जी ने इन शब्दों में रखा, "हमारे बहिष्कृत लोगों पर चल रहे और आगे होने वाले अन्यायों पर उपाय योजना सुझाने का एवं उनकी भावी उन्नति और उसके मार्ग के वास्तविक स्वरूप की चर्चा करने के लिये वृत्तपत्र जैसी अन्य जगह नहीं। लेकिन, मुम्बई इलाके में जो वृत्तपत्र निकलते हैं, उनकी ओर नज़र डालें तो यह ध्यान में आयेगा कि, बहुतांश वृत्तपत्र विशिष्ट जाति के पक्षधर हैं। अन्य जाति के हितों की उन्हें परवाह नहीं होती"। (30 जनवरी, 1920 का संपादकीय) केवल अस्पृश्य वर्ग के प्रश्नों को लेकर मूकनायक का जन्म हुआ। मूकनायक नाम भी वैशिष्टयपूर्ण है। वह नायक है, लेकिन बोल नहीं सकता। उसको वाणी देने का काम बाबासाहब जी करना चाहते थे।
मूकनायक के सभी संपादकीय अस्पृश्यों के प्रश्नों के संदर्भ में: 1920 में स्वराज्य का आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था। 'स्वराज्य की प्यास सुराज्य से नहीं मिटती' यह घोषवाक्य बन गया था। 14 फ़रवरी, 1920 के संपादकीय में बाबासाहब जी ने इसका संज्ञान लिया और प्रश्न उठाया कि, स्वराज्य किन लोगों का होगा और वह किसके लिये होगा? इन प्रश्नों का उत्तर मिलना चाहिये। 28 फ़रवरी, 1920 के संपादकीय में वे इसका उत्तर देते हैं, 'यह स्वराज्य हमारे कुछ काम का नहीं, क्योंकि स्वराज्य में हमारी अस्पृश्यता समाप्त होनेवाली नहीं। वे आगे कहते हैं 'काँग्रेस पार्टी का स्वराज्य यानि उच्च वर्णों का हमारे उपर राज'। जिनको आज हम फंडामेंटल राइट्स कहते हैं, उनका उल्लेख इसी संपादकीय में बाबासाहब जी ने किया है। हर एक व्यक्ति को नौ अधिकार मिलने चाहिएं: - 1. वैयक्तिक स्वातंत्र्य 2. वैयक्तिक संरक्षण 3. निजी माल-मत्ता संभालने का हक़ 4. कानून की समता 5. सद्विवेकबुद्धि के अनुसार व्यवहार करने की अनुमति 6. भाषण स्वातंत्र्य और मत स्वातंत्र्य 7. सभा का आयोजन करने का हक़ 8. देश के राजकारभार (संसद) में प्रतिनिधि भेजने का हक़ 9. सरकारी नौकरी मिलने का हक़।
डॉ. बाबासाहब 27 अप्रैल, 1920 के संपादकीय में लिखते हैं कि, 'हमें स्वराज्य तो प्राप्त होगा ही और जो शासनपद्धति आएगी वह 'प्रजा प्रतिनिधि सत्तात्मक राज्य' की रहनेवाली है'। यह उनकी दूरदृष्टि है। 5 जून, 1920 के संपादकीय में उन्होंने सत्यधर्म पर कुछ प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं, "सच्चा धर्म देश में सर्वत्र एक ही है। उसके अनुसार जो आचरण करेगा उस पर ईश्वर संतुष्ट रहेगा। इसके विपरीत सच्चा धर्म छोड़कर जनों मे जनार्दन (नर में नारायण) न देखते हुये बनावटी ऊंच-नीच का भाव उत्पन्न कर और वैसे ग्रंथों की रचना कर उसके आधार पर अपने बंधुओं को पशु से भी नीच मान कर भयंकर पातक करना, इससे ईश्वर संतुष्ट होगा क्या? ऐसे पातकी को ईश्वर क्या शिक्षा करेगा"? 14 अगस्त, 1920 के अंक में उन्होंने बहिष्कृत समाज को कहा, "अन्याय को कब तक हम सहन करते जाएंगें? हमें मनुष्य बनना है न? या गड़रियों द्वारा भेड़ों में पले सिंह जैसे, सिंह होकर भी खुद को भेड़ समझेंगे? हम लोग चोखामेला, मतंगऋषि, रैदास, आदि के वंशज हैं, इसका स्मरण बाबासाहब दिलाते हैं।
बहिष्कृत भारत के बाबासाहब जी के संपादकीय ज्यादा विस्तृत हैं और विचारों की गहराई में बहुत श्रेष्ठ हैं। इन दोनों पत्रों की विशेषता यह रही कि, अस्पृश्य वर्ग के प्रश्नों के अलावा अन्य किसी विषय को उन्होंने नहीं उठाया है। उदाहरण के लिये देश की सर्वसाधारण अर्थ नीति, परराष्ट्र नीति, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, संरक्षण, शिक्षा के विषय, यातायात के साधन इत्यादि विषयों पर उन्होंने इन पत्रों में कुछ लिखा नहीं है। उनका फोकस अस्पृश्य वर्ग, अस्पृश्यता से उसकी मुक्ति, मुक्ति में बाधा डालने वाले विषय, इन विषयों को दूर करने के उपाय, अस्पृश्यों का संगठन और उन में आत्मचेतना निर्माण करने के प्रयास तक विस्तृत है।
बहिष्कृत भारत के अग्रलेखों का वर्गीकरण चार भागों में किया जा सकता है। 1. हिंदू धर्म मीमांसा 2. जाति प्रथा और अस्पृश्यता 3. अस्पृश्यों के आर्थिक प्रश्न 4. अस्पृश्यों के राजनैतिक अधिकार। 22 अप्रैल, 1927 का बहिष्कृत भारत का संपादकीय इन चार विषयों पर हिंदू धर्म की चिकित्सा जैसा प्रयास करता दिखाई पड़ता है। इस में बाबासाहब जी लिखते है, "हिंदू धर्म का सिद्धांत ख्रिस्ती (ईसाई) और महंमदी (इस्लाम) धर्म के सिद्धांत से अलग समता के तत्व का पोषक है। मनुष्य ईश्वर का अंश है। यह कह कर ही यह सिद्धांत नहीं रूकता वह कहता है, मनुष्य ईश्वर का ही रूप है। इतनी निर्भीकता से केवल हिंदू धर्म यह कहता है। जहां पर सभी ईश्वर के ही रूप है, वहां पर कोई उच्च, कोई नीच इस प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। समता का साम्राज्य निर्माण करने के लिये इससे बढ़कर कोई सिद्धांत नहीं हो सकता। परन्तु बाबासाहब यह खेद व्यक्त करते है कि, हिंदू धर्म के इस तत्व के अनुसार लौकिक व्यवहार नहीं होता।
धर्म के दो भाग होते है, 1. तत्वज्ञान 2. व्यवहार (आचार-पद्धति) इसी संपादकीय में बाबासाहब जी ने कहा कि, धर्म का विचार और आचार एक जैसा होना चाहिये। लोकमान्य तिलक जी को उन्होंने उद्धृत किया। लोकमान्य तिलक जी कहते है, "धारणात् धर्मः यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धि: स धर्मः" हिंदू धर्म शास्त्रकारों ने आचार में देशकाल अनुसार परिवर्तन करने का अधिकार दिया है। उसके अनुसार, कालानुगत परिवर्तन करना चाहिये। यह संपादकीय महार चवदार तालाब के सत्याग्रह के समय में लिखा गया है। इसमें सत्याग्रह का संदर्भ है। महाराष्ट्र में अस्पृश्य जातियों में एक महार जाति है। इस जाति के लोग सत्याग्रह में सम्मिलित हुये थे, उन्होंने तालाब का पानी पिया। स्पृश्य हिंदू इससे भड़क गये। उन्होंने कहा कि, अस्पृश्य लोगों के स्पर्श के कारण तालाब का पानी अशुद्ध हो गया है, इसलिये उन्होंने जलशुद्धिकरण हेतु कोई धार्मिक विधि की, इससे बाबासाहब जी को बहुत दु:ख हुआ और कठोर शब्दों में उन्होंने इसकी भर्त्सना की।
उन्होंने कहा कि, यह धर्मद्रोह है। एक ओर तो कुछ हिंदू परधर्म में गये लोगों को शुद्ध कर स्वधर्म में लाने की मुहिम चलाते हैं और दूसरी ओर जो लोग स्वधर्म में हैं, कुछ हिंदू ऐसे हैं जो उनके साथ दुर्व्यवहार करने का काम करते हैं। यह पागलपन है। स्वामी श्रद्धानंद जी के जीवंत कार्य का यह स्मारक नहीं है, उलटा उनके कार्य की विडंबना है। अस्पृश्यता हमारे नरदेह का कलंक है और उसे हमको ही मिटाना पड़ेगा, इन शब्दों में बाबासाहब जी ने इस संपादकीय का समारोप किया है। 29 जुलाई, 1927 के संपादकीय में उन्होंने फिर से हिंदू धर्म के सिद्धांत पर लिखा है। उन्होंने कहा कि, अभ्युदय के लिये समाज में अनुकूल वातावरण होना चाहिए। मोक्षप्राप्ति तो मृत्यु के बाद का विषय है। हिंदू धर्म के ये तथाकथित नए नियम अभ्युदय के लिये अवसर नहीं देते। बाबासाहब जी कहते हैं कि कुछ लोग़ कहते हैं 'जब तक आप जीवित हो, हमारे गुलाम बने रहो। मृत्यु के बाद आपको स्वर्गप्राप्ति होगी"। बाबासाहब जी ने सवाल उठाते है कि 'व्यक्ति धर्म के लिये है, या धर्म व्यक्ति के लिये है? हिंदू धर्म हमारा धर्म है या नहीं? यह भी बाबासाहब जी का सवाल है। अस्पृश्यता हिंदू समाज को ग्रसनेवाला रोग है। इस प्रकार के अन्य लेख भी हैं, जिन में हिंदू तत्व विचार और व्यवहार इन में जो विसंगति है, उनको स्पष्ट शब्दों में रखा गया है। एक इशारा भी उन्होंने किया कि, अगर अस्पृश्य लोग मुसलमान बनते हैं तो हिंदू समाज का क्या होगा? इसका भी विचार हिंदू समाज को करना चाहिये।
जातिप्रथा तथा अस्पृश्यता के बारे में उन्होंने 3 जून, 1927 के संपादकीय में भी परामर्श दिया है। वे कहते हैं "हिंदू समाज में जो अस्पृश्यता है, वह पीढ़ीगत है। इस प्रकार की अस्पृश्यता अन्य किसी समाज में नहीं है। जन्मजात उंच-नीच भाव यही ब्राह्मणत्व की सच्ची व्याख्या है। इस उंच-नीच भाव ने जातिप्रथा को जन्म दिया है। ब्राह्मण वर्ग ने सर्वप्रथम उर्वरित समाज से अपने को अलग किया। उनका अनुकरण क्षत्रिय वर्ग ने किया, वैश्य वर्ग ने किया। बाबासाहब लिखते है, "हम ब्राह्मण जाति के विरुद्ध नहीं है। हमारा कटाक्ष ब्राह्मणत्व पर है। ब्राह्मण लोग हमारे बैरी नहीं, ब्राह्मणत्वग्रस्त लोग हमारे बैरी हैं"। 1 जुलाई, 1927 के संपादकीय में ब्राह्मण वर्ग ने ब्राह्मणत्वग्रस्त होकर किस प्रकार जाति का गढ़न किया, इसकी मीमांसा उन्होंने की है। ब्राह्मण वर्ग ने समाज का नेतृत्त्व किया है। परंपरा से उसको यह स्थान मिला है। इसलिये उनका दायित्व बनता है कि, समाज में जो घातक रूढ़ियां उत्पन्न हुई हैं, उन्हें मिटाने का प्रयास करे, यह उनकी जिम्मेदारी है। उंच-नीच के भाव का निर्मूलन उन्हीं को करना है।
महार जाति की आर्थिक स्थिति के बारे में बहिष्कृत भारत में उनके तीन संपादकीय हैं। संपादकीय का शीर्षक है, महार वतन (ईनाम) और तिथियां 2 सितम्बर, 16 सितम्बर व 30 सितम्बर 1927 को इन तीनों लेखों में बाबासाहब जी का आर्थिक ज्ञान प्रकट होता है। गांव-देहात में फैली महार जाति की वतनदारी क्या होती थी, वतनी कामों में निम्न प्रकार के कामों का ज़िक्र बाबासाहब जी ने किया है: -
1. वसूली जमा करने के बारे में गांव के अधिकारी लोगों की मदद करना।
2. ताल्लुका स्थान या अधिकारी जहां बैठता हो वहां डाक का लाना-ले जाना करना।
3. ताल्लुका कचहरी में वसूली पहुंचाना।
4. जन्म-मृत्यु की सूचना एकत्रित करना।
5. सरकारी अधिकारी के गांव में आने पर उनकी समुचित व्यवस्था करना व वे जो काम बताये वे काम करना।
6. अन्य तरह के जो भी काम कहे जाएं वे करना।
ये हुये सरकारी काम, इन सरकारी कामों के अतिरिक्त उसे गांव की प्रजा (गांव के लोग) के काम भी करने होते थे। वे काम निम्नलिखित हैं: -
1. ख़लिहान बनाने के लिये लोगों की सहायता करना।
2. प्रजा में से किसी की मृत्यु होने पर उसके अग्नि संस्कार के लिये ईंधन पहुंचाना।
3. मरने वालों के रिश्तेदारों तक खबर पहुंचाना।
4. मृत पशुओं को खींचकर ले जाना।
5. विवाह के अवसर पर लकड़ी काटना।
6. अन्य छोटे-मोटे काम करना।
'महार वतन' पर बाबासाहब को कड़ी आपत्तियां थी। वे थीं -1. 'वतन' में काम करने वाले महारों के काम निश्चित नहीं थे। महार लोगों के सरकारी कामगार होने से सरकारी नियम के अनुसार उनके काम तय किये जाने चाहिए थें। उनके काम की अवधि निश्चित नहीं होती थी, उनका काम 24 घंटे का होता था। 'वतन' परिवार के पास होने से किसी कारण से पुरूष न हो तो उसके बदले उसकी पत्नी को, मां को अथवा पिता को काम करना होता था और ये सारे कार्य अत्यंत श्रमसाध्य हुआ करते थे। वृद्ध व्यक्ति को डाक पहुंचाने के लिये एक गांव से दूसरे गांव पैदल भेजना अन्याय ही था। सरकारी अधिकारी के गांव में आने पर उसकी व्यवस्था करने के अलावा उसके घोड़े को खरारा करने तक के सभी कार्य महार वतन में शामिल होते थे। इसके अलावा उसे मुफ़्त के काम करने होते थे। बाबासाहब ने ऐसे 43 कामों की सूची दी है।
बाबासाहब की स्पष्ट राय महार वतन रद्द करने की थी। रद्द करने पर मुआवज़ा देने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। बाबासाहब का यह कथन उस समय में (1927) साहस का काम था। 'जहां वतन की ललक इतनी जबरदस्त है, जहां पाटिल अपना वतन छोड़ने के लिये तैयार नहीं है, जहां कुलकर्णी अपना खोया वतन पाने के लिये जूझ रहा है वहां महारों के नेता ही महारों का वतन रद्द करने की मांग करें, यह विचित्र लगेगा व कुछ लोग हमें हमारे ही लोगों का दुश्मन करार देकर हमें दोष देंगे'।
मूकनायक और बहिष्कृत के सम्पादकीयों में अस्पृश्यों के बारे में डॉ. बाबासाहब जी ने एक भूमिका सातत्य (सत्यता?) से रखी है। उनका प्रतिपादन है कि अस्पृश्य वर्ग अल्पसंख्यक है। हिंदू समाज से वे बहिष्कृत हैं, उन्हें नागरिक अधिकार नहीं हैं, राजनैतिक अधिकार भी नहीं हैं। सामाजिक दृष्टि से बहिष्कृत होने के कारण उन्हें अल्पसंख्यक मानना चाहिये और अल्पसंख्यक मानकर उन्हें विशेष राजनैतिक अधिकार देने चाहिएं, राजसत्ता में उनका प्रवेश होना चाहिये। सत्ता के कारण उन्हें बल प्राप्त होगा और समाज में सम्मान का स्थान प्राप्त होगा, इस प्रकार सारांश में उनकी भूमिका रहने वाली थी। सन् 1921 से अंग्रेज़ों ने भारत को संविधान देने की प्रक्रिया प्रारंभ की। काँग्रेस ने ऐसे संविधानों का विरोध किया था। भारत का संविधान कैसा होना चाहिये, इसकी एक रिपोर्ट मोतीलाल नेहरू कमेटी द्वारा देश के सामने रखा गया। डॉ. बाबासाहब जी ने 18 जनवरी, 1929 के अंक में नेहरू रिपोर्ट की भी चिकित्सा की है। दूसरे शब्दों में कहें तो मोतीलाल नेहरू द्वारा जो संविधान देश के सामने रखा गया था, उसका नफ़ा-नुक्सान एक लेख में उन्होंने बताया। लेख का शीर्षक है, 'नेहरू कमिटीची योजना' व 'हिंदुस्थानचे भवितव्य' (नेहरु कमेटी की योजना और हिंदुस्तान का भविष्य)।
वैसे यह विषय संविधान के संदर्भ में होने के कारण जटिल है। लेकिन, बाबासाहब जी उसे बहुत सरल शब्दों में लिखते है। वे कहते है, "(सारांश)'' संविधान के बिना किसी देश की राजनीति नहीं चल सकती। नेहरू कमेटी ने विश्वामित्र जैसी प्रतिसृष्टि निर्माण करने का साहस किया है। नेहरू कमेटी के अनुसार स्थलवाचन (टेरिटोरियल) और जातिवाचक मतदार संघों (मतदाता समूह) की रचना की गई है। बाबासाहब जी का कहना यह है कि पिछड़ी जातियों के लिये जातिवाचक मतदार संघ (मतदाता समूह) आवश्यक है। स्थलवाचक मतदार संघ (मतदाता समूह) से पिछड़ी जाति का उम्मीदवार चुनकर आना कठिन है, लेकिन, नेहरु कमेटी में मुसलमानों के लिये, जो जातिवाचक विभक्त मतदार संघ (मतदाता) निर्माण किये हैं, बाबासाहब उन पर कड़ा आक्षेप करते हैं। उनके शब्द इस प्रकार है, "इस देश के राजनीति में जो गैरजिम्मेदार प्रवृत्ति निर्मित हुई है, उसका मुख्य कारण मुसलमानों को दिये हुये विभक्त मतदार संघ (सेप्रेट इलेक्ट्रोलेट) हैं, ऐसे मतदार संघ (मतदाता समूह) तुरंत समाप्त करने ही चाहिएं।
इसके बाद डॉ. बाबासाहब जी ने 'लखनऊ पैक्ट' की मीमांसा की है उनके अनुसार 'लखनऊ पैक्ट' से भी ज्यादा विभक्त मतदार संघ (सेप्रेट इलेक्ट्रोलेट) नेहरू कमेटी ने मुसलमानों को दिये हैं। उन्होंने इसका एक ग्राफ़िक्स दिया है। 'लखनऊ पैक्ट' में जो दिया उससे ज्यादा विभक्त मतदार संघ (सेप्रेट इलेक्ट्रोलेट) मुसलमानों को नेहरु कमेटी की सिफारिशों में दिया गया है। इसी प्रकार सिंध, बलुचिस्तान और पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रांत अलग बनाये गए हैं। इसके कारण (उस समय भारत में केवल नौ प्रांत थे) इन नौ प्रांतों में से पांच प्रांतों में मुसलमानों का प्राबल्य बनेगा, इसका कारण यह बताया गया कि, जहां मुसलमान बहुसंख्यक है, वहां वे हिंदुओं पर अत्याचार नहीं करते परन्तु जहां पर हिंदु बहुसंख्यक है वहां पर मुसलमान पर अत्याचार होंगें। इस प्रकार से एक समूह को ओलिस रखना यह घटिया किस्म की राजनीति है, ऐसा बाबासाहब जी का मत था।
बाबासाहब जी कहते हैं कि हिंदू का स्वभाव 'दिधलें दुःख परांने उसनें फेडू नयेचि सोसावे' (दूसरों ने दुःख दिया तो उसे सहन करना चाहिये उसका बदला नहीं लेना चाहिये) ऐसा होने के कारण हिंदू केवल मार खायेगा। बाबासाहब जी कहते है कि नेहरू कमेटी की रिपोर्ट हिंदुओं के लिये ख़तरनाक है और हिंदुस्तान पर भी अरिष्ट लाने वाली है। हमको यह समझना चाहिये कि हमारा देश कैंची में पड़ा देश है। एक तरफ़ से चीन और जापान जैसे दो भिन्न संस्कृति के राष्ट्रों का घेरा है और दूसरी तरफ़ से तुर्किस्तान, पर्शिया, अफगानिस्तान आदि तीन मुसलमान देशों का घेरा है। अगर चीन भारत पर हमला करता है तो सारा भारत उसके खिलाफ़ खड़ा हो जाएगा परन्तु अगर मुसलमानी देश आक्रमण करते हैं तो भारत का मुसलमान आक्रमक मुसलमानों से लड़ेगा क्या? यह सवाल बाबासाहब जी ने उठाया है। अंत में उन्होंने कहा कि मैं हिंदू समाज और धर्म पर टीका करता हूं, इसलिये हिंदू लोग मुझपर नाराज़ होते हैं। मुसलमानों पर टीका कर कर उनका रोष नहीं लेना चाहिये, यह बहुत लोग कहते हैं, लेकिन, जिस बात में हमारे देश का अकल्याण है, उस बात में हमारा भी अकल्याण है, ऐसी हमारी भावना होने के कारण इस जोख़िम को हमने उठाया है।
अपने लेखों में बाबासाहब जी अनेक बार संस्कृत वचनों का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिये 'यतोऽभ्युदयनि: श्रेय स सिद्धि:स धर्म:' 'न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति' 'अशोचन्नति कुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम' (जो सार्वजनिक दुःख है, उसका शोक करना व्यर्थ है। उसके प्रतिकारार्थ ईलाज करना चाहिये।) 'अपहाय निजं कर्म कृष्णेति वादिनः। ते हरेर्द्वेषिणाः पापाः धर्मार्थ जन्म यध्दरेः'। (अपने कर्म का त्याग कर जो केवल हरि-हरि करते बैठे रहते हैं, वे हरिद्वेष्टा हैं। हरि का जन्म धर्म की रक्षा के लिये हुआ है।) 'एतावानेव पुरुषो यदमर्षी यदक्षमी। क्षमावान्निरमर्षश्व नैव स्त्री न पुनः पुमान्॥' (जिस पुरुष को अन्याय का संताप अनुभव होता है, उसी को ही पुरुष कहना चाहिये।) (4/11/1927) 'ऋणैश्चतुर्भिः संयुक्ता जायन्ते मानवा भुवि। पितृदेवर्षिमनृजैर्देयं तेभ्यश्च धर्मतः॥' (3/2/1928) (प्रत्येक व्यक्ति पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण और लौकिक ऋण इस प्रकार के चार ऋण लेकर जन्म लेता है यह ऋणमुक्ति उसे करनी पड़ती है।
इस प्रकार अनेक श्लोकों का दर्शन उनके लेखों में होता है। इसके साथ-साथ अपना विषय स्पष्ट करने के लिये छोटी-छोटी कहानियों का उपयोग भी उन्होंने किया है। मराठी के अनेक मुहावरों को भी उन्होंने कुशलतापूर्वक उपयोग किया है। सरल भाषा, स्पष्ट प्रतिपादन, निर्विवाद, युक्तिवाद और निर्भय लेखन यह उनकी गुणसंपदा है।
अंत में बाबासाहब जी की पत्रकारिता, यह एक गहन अध्ययन का विषय है। सामान्य पत्रकारों से वे अलग हैं। उनकी पत्रकारिता पूंजीवाद, समाजवाद या निजीवाद के लिये नहीं है। समाज जागरण ही उसका अंतिम हेतु है। यह दायित्व उन्होंने स्वयं आगे होकर अपने कंधों पर लिया है। लाभ और भय से वे सैंकड़ों हाथ दूर हैं। उन्होंने कभी भी किसी पर व्यक्तिगत टीका नहीं की। कमर के नीचे वार करने के लिये उन्होंने अपनी लेखनी का उपयोग कभी नहीं किया। कभी झूठ नहीं लिखा, डिस-इनफार्मेशन और मिस-इनफार्मेशन का सहारा उन्होंने कभी नहीं लिया। उन्होंने मौलिक लेखन किया, जो कालातीत है वह 1927-28 में जितना सत्य है, उतना ही 2021 में सत्य है। ऐसी पत्रकारिता के लिये गहरा अध्ययन, विषय की सर्वांगीण जानकारी होना आवश्यक होता है। बाबासाहब के लेखों को पढ़ने के बाद इसकी अनुभूति हम सबको होती है।
ऐसे विरला पत्रपंडित को विनम्र प्रणाम!