जैव-विविधता संरक्षण एवं संवर्धन के लिए समर्पित जीवन

जैव-विविधता संरक्षण एवं संवर्धन के लिए समर्पित जीवन
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डॉ. आनंद पाटील

वेबडेस्क। प्रायः जल, जंगल, जमीन, जानवर एवं जन की चिंताओं से ओत-प्रोत बहुत कुछ पढ़ने-सुनने को मिलता है परंतु, कृतिशीलता के साथ इन सबके संरक्षण-संवर्धन का दायित्व वहन करने वाले बिरले ही देखने को मिलते हैं। ऐसा ही एक बिरला एवं कृतिशील व्यक्तित्व विगत पाँच-छह वर्षों से सोलापुर क्षेत्र में केवल पर्यावरण की चिंता ही नहीं कर रहा है, अपितु सातत्यपूर्ण एवं परिवर्तनकामी उपक्रमों के माध्यम से जीवन व जैव-विविधता संरक्षण-संवर्धन का कार्य कर रहा है। उस बिरले व्यक्तित्व का नाम है - श्री अरविंद सिद्धेश्वर म्हेत्रे।

श्री अरविंद सोलापुर में मंद्रूप ग्रामवासी पर्यावरण-योद्धा है। कम्प्यूटर विज्ञान में शिक्षित-दीक्षित अरविंद म्हेत्रे आयटी एवं एसएपी प्रोजेक्ट में प्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं। आजीविका के लिए नौकरी और निसर्ग (प्रकृति) एवं पंछियों से विशेष संसक्ति उनके जीवन के अभिन्न पहलू हैं। इसी प्रकृति-संसक्ति के कारण पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन के लिए उन्होंने 'निसर्ग माझा सखा' नामक संस्था ही स्थापित की। अरविंद सोलापुर के निकटवर्ती क्षेत्रों में पारिस्थितिकी संतुलन के प्रति जागरुकता अभियान चला रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विविध योजनाओं का आयोजन कर लोगों में 'निसर्ग माझा सखा, निसर्ग माझा बंधू' की भावना जाग्रत करने का सतत उपक्रम कर रहे हैं। उनके महत्वपूर्ण कार्यक्रम – 'रक्षाबंधन निसर्गाशी' (प्रकृति के साथ रक्षाबंधन), 'ग्रीन गणेशा', 'घर तिथे झाड' (जहाँ घर, वहाँ पेड़), 'स्मार्ट सिटी-ग्रीन सिटी', 'ग्रीन व्हिलेज', 'से नो टू प्लास्टिक', 'रोप आमचे, संगोपन तुमचे' (पौधा हमारा, पालन-पोषण तुम्हारा), 'पेड़ लगाओ, पेड़ बचाओ', 'स्पॅरो पार्क' (गौरैया उद्यान) इत्यादि हैं।

अरविंद म्हेत्रे बताते हैं कि अपने तीज-त्योहार मनाते हुए प्रकृति-पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुँचेगी, इसका ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। अपार्टमेंट संस्कृति के अभिशाप में घर-आंगन से तुलसी और हमारे मंदिर (संस्कार) नदारद हो ही चुके हैं। हम चहारदीवारी में अपने ही में सिमटते जा रहे हैं। स्वकेंद्रित एवं संकुचित होते जा रहे हैं। पहले हम और हमारे घर वृक्षों से घिरे होते थे। आज हमें भौतिक संसाधन एवं सुख-सुविधाओं ने घेर लिया है। प्रत्येक घर के आंगन में पेड़, पशु, पक्षी, फूल-क्यारियों का होना समृद्धि सूचक माना जाता था। हमारी समृद्धता की संकल्पना निरंतर बदल रही है। हमें न जाने और अनजाने ही कितने ही फूलों-पौधों के नाम स्मरण थे। नयी पीढ़ी अपनी उस विरासत से धीरे-धीरे कट चुकी है। प्लासिटकमय जीवन का अंगीकार करते-करते हमने प्लास्टिक के फूल-पौधों को भी अपना लिया है। यह किसी अभिशाप से कम नहीं है। ऐसे में, 'पेड़ लगाओ, पेड़ बचाओ' की नितांत आवश्यकता है।

बढ़ते शहरीकरण और स्मार्ट शहरों की संकल्पना को दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने अनेकानेक सहयोगियों को संघटित कर 'जहाँ-जहाँ घर हैं, वहाँ पेड़ होने चाहिए', इस भावना का प्रसार करते हुए वृक्षारोपण का व्यापक अभियान चलाया। वे बताते हैं कि जैसे ही सोलापुर शहर को स्मार्ट सिटी की सूची में सम्मिलित किया गया। हमने शहर के हर दुकान के सामने कम-से-कम पाँच पौधे लगाने का उपक्रम किया और सबसे अपील की कि हर दुकान के सामने पेड़ होने चाहिए। 'पौधा हमारा, पालन-पोषण तुम्हारा' उपक्रम का अत्यंत सकारात्मक प्रभाव हुआ। अरविंद का उद्देश्य एवं स्वप्न है कि हमारे शहरों को 'स्मार्ट' के साथ-साथ 'ग्रीन' बनाना चाहिए। इसी क्रम में, 'ग्रीन सिटी' के साथ-साथ 'ग्रीन विलेज' के लिए भी गतिविधियाँ आरंभ कर दी हैं।

उनके सभी कार्यों में ध्यानाकर्षक एवं उत्कृष्ट 'गौरैया उद्यान' की संकल्पना है। गौरैया के लिए घोंसले और बसेरा बनाना अद्भुत परिकल्पना है। स्रोतों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार अरविंद म्हेत्रे एवं समूह ने अनुपयोगी व फेंके हुए प्लास्टिक से हजारों-हजार घोंसले बनाये। उनके इस प्रयास से सोलापुर क्षेत्र में गौरैया की संख्या में कल्पनातीत वृद्धि हुई है। प्रायः ये छोटे-से जीव संकटग्रस्त स्थिति में आने के समाचार मिलते हैं और सोशल मीडिया पर ग्रीष्म की ताप न झेल पाने के संदेशों के साथ-साथ छतों पर पानी रखने की अपील होती है। अरविंद म्हेत्रे से संवाद के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि हम ऐसे विषयों पर संदेश भेजने का उपक्रम तो करते हैं परंतु उसकी कार्यान्विति नहीं होती। हमने जब काम आरंभ किया तो एक विचार स्पष्ट था "केल्याने होत आहे रे आधी केलेच पाहिजे", बोलने से अच्छा है चुपचाप कर्म करना। इस सृष्टि के संरक्षण के लिए बोलने की तुलना में कृतिशीलता की आवश्यकता अधिक है।

विवेकानंद केंद्र, सोलापुर के सांस्कृतिक मासिक 'विवेक विचार' के संपादक श्री सिद्धाराम भै. पाटील ने उनके संबंध में अत्यंत सटीक लिखा है, "श्री अरविंद म्हेत्रे एक वैज्ञानिक व्यक्तित्व है। उन्हें यह विरासत अपने पिता से मिली है। वे नौकरी के बाद बचे हुए समय में पर्यावरण रक्षा के लिए कुछ-न-कुछ करते रहते हैं। गौरैयों के लिए घर-घर आश्रय बनाने के उनके आंदोलन की जड़ें सोलापुर में अत्यंत गहरी हो चुकी हैं। सैकड़ों बच्चों को गौरैया का घोंसला बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। किसी विचार को जनांदोलन में कैसे बदला जा सकता है, उन्होंने इसका उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया है।"

गौरैया को संकटग्रस्त करने में हमारे कंकरीट के जंगल, चीकनी-चपटी दीवारें और ऊँची-ऊँची इमारतों का उतना ही योगदान है। ऐसे में, गौरैया के पुरुज्जीवन में अनुपयोगी वस्तुओं से घरौंदे बनाने का उपक्रम उत्कृष्ट प्रतीत होता है। अरविंद बताते हैं कि यद्यपि कृत्रिम घोंसले बनाना निसर्गसम्मत नहीं है, परंतु हमने प्रयोग किया और आज यह देखकर प्रसन्नता होती है कि गौरैया उन घरौंदों में अधिवास कर रही हैं और दिन-ब-दिन उनकी संख्या वृद्धि हो रही है। हमारे लिए यह सबसे बड़ा ईश्वरप्रदत्त पुरस्कार है। हम प्रकृति को केवल बचा ही नहीं रहे हैं, अपितु उसका संवर्धन भी कर रहे हैं। दैनिक लोकमत के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में अरविंद म्हेत्रे ने 5500 घोंसले बाँटकर और आगे घोंसले बनाने का प्रशिक्षण देकर जाग्रति का नवीन कार्यक्रम आरंभ किया है।

अपने व्यक्तिगत संदेश में उन्होंने लिखकर भेजा है कि "इस धरती पर रहने वाले प्रत्येक प्राणी को मानव की भाँति जीने का अधिकार है। यदि अन्य पशु-पक्षी 'मनुष्य' नामक पशु के भय से 'दूर' जा रहे हैं, तो इसके लिए केवल 'मनुष्य' ही जिम्मेदार होगा। एक 'सतर्क नागरिक' के रूप में हमें इस संबंध में अपने प्रामाणिक प्रयास जारी रखने चाहिए। ऐसा माहौल बनाना चाहिए, जिसमें पशु-पक्षियों के रहने और फलने-फूलने की उम्मीद की जा सकती है।" यह चिंता चिंतनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।

कविवर जयशंकर प्रसाद ने प्राकृतिक विभीषिका को सांकेतिक रूप में व्यक्त किया था, जो कि इन विविध संदर्भों में आज भी उल्लेखनीय है – "तो फिर मैं हूँ आज अकेला जीवन रण में, प्रकृति और उसके पुतलों के दल भीषण में।" (कामायनी) हमें ऐसी स्थितियों से बचने-उबरने के लिए दिलीप कुलकर्णी और अरविंद म्हेत्रे की भाँति कृतसंकल्पित एवं कृतिशील होना होगा। वास्तव में, प्रलयंकारी भविष्य से बचने के लिए पर्यावरण संतुलन एवं संवर्धन के लिए सक्रिय होना ही होगा।

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