महर्षि वाल्मीकि : रामायण के रचनाकार, भगवान श्री राम से संवाद
वेबडेस्क। संस्कृत में प्रथम महाकाव्य रचने वाले आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी जयंती शरद पूर्णिमा के मनाते हैं। महर्षि वाल्मीकि के जन्म के समय ,जाति ,वंश ,कुल संबंध में किंबदंतियों समेत अनेकानेक मत प्रचलित हैं।मत मतांतर के रहते हुए भी अंततोगत्वा शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर निर्णय को स्थिर किया जा सकता है।
एतदानाख्यानामायुष्यं समविष्यं सहोत्तरम् ।
कृतवान प्रचेतसः पुत्रस्तद ब्रहाप्यन्वमन्यत।।
(वाल्मीकि रामायण ७/१११/११)
सुतो तु तब दुर्धर्षो तथ्य मेतद ब्रबीमि ते।
प्रचेतसोsहं दशमः पत्रो रघुकुलोद्वह ।।
(आध्यात्म रामायण,७/७/३१)
मैं सच कहता हूं यह दोनों दूर जाए वीर आप की ही संतान हैं। हे राघव मैं प्रजापति प्रचेता का दसवां पुत्र हूं।
मरीच्यमित्र्यंगिरसौ पुलस्त्यं पुलहं ऋरतुम्।
प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगुं नारदमेव च।।
(मनुस्मृति १/३५)
महर्षि मरीचि, अत्रि, अंगिरा ,पुलस्त्य, पुलह ,क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद ऋषि कश्यप और अदिति की संतान लव कुश को भगवान श्रीराम का पुत्र बताते हुए उनकी सभा में अपना परिचय देते हुए महर्षि वाल्मीकि ने अपने को प्रचेता का पुत्र बताया इसलिए उनका नाम प्राचेतस भी है। प्रचेता कश्यप एवं अदिति की नौवीं संतान थे, जिन्हें वरुण भी कहा जाता है। उनकी दशवीं वीं संतान के रूप में वाल्मीकि का जन्म हुआ। महर्षि वाल्मीकि की माता का नाम चर्षणी था।रामचरितमानस में भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी ओर संकेत किया है
बाल्मीकि नारद घटजोनी ।
निज निज मुखन कही निज होनी।।
महर्षि वाल्मीकि के द्वारा राम नाम का स्मरण करते हुए घनघोर तपस्या की गई, यहां तक कि जहां वे विराजित थे वहां पर दीमक ने बाल्मीकि अथवा बाबीं या ढूह (ऐंथिल) बना ली थी ।जब उन्हें तपस्या पूर्ण होने पर परम पिता ने वरदान दिया ,तपस्या के कारण पूर्व कृत कर्मों के क्षरण के पश्चात वाल्मीकि( बाबीं)से दिव्य स्वरूप में इनका यह प्राकट्य होने से ही वाल्मीकि नाम पड़ा। भारतीय वांग्मय में तीन आदि कवियों का वर्णन दिया गया है पहले नलिनोद्भव महर्षि बाल्मीकि के संबंध में जो किंबदंतियां प्रचलित हैं उनसे एक सामान्य सा निष्कर्ष यह माना जा सकता है कि वे पूर्व में सामाजिक रुप से लोकनिन्ध्य क्रूर कर्म में संलग्न रहने के बाद ही तपोरत हुए। इसलिए तुलसीदास जी लिखते हैं -
उल्टा नाम जपउ जग जाना ।
बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।
जानि आदि कवि नाम प्रतापू।
भयेहु शुद्ध करि उल्टा जापू।।
कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्।
आरुह्य कविता शाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम्।
परम सत्ता से प्रेरित महान विभूतियों और हस्तियों, ज्ञानियों, विज्ञानियों ,परोपकारी जनों ,त्यागमूर्तियों ,संत ,महात्माओं, साधुओं और भगवद्भक्तोंकी कोई जाति नहीं होती है। ये अलौकिक शक्ति से युक्त होकर जाति, कुल ,वंश आदि लौकिक बंधनों से मुक्त हो जाया करते हैं ।सारा संसार उनका कुनबा होता है।
माता शबरी ,मतंग ऋषि , परम संत रैदास, पंढरीनाथ मंदिर के सामने जिन भक्त राज का मंदिर स्थापित है "चोखा मेड़ा"कथित रूप से जातीय संस्तरण में नीचे गिने जाने वाली जातियों से ताल्लुक रखने के बावजूद संपूर्ण लोक में पूज्य हुए। महानता का संबंध जाति से नहीं होकर कर्म से होता है, यदि ऐसा नहीं होता तो पांडवों का यज्ञ परम भक्त श्वपच बाल्मीकि के आगमन बिना पूरा कैसे हो सकता था ?इसके बावजूद हम अपने निपट अज्ञान के वशीभूत होकर दिव्य आत्माओं को भी सांसारिक जाति बंधन में बांधने का अनपेक्षित तथा निष्फल प्रयास करने में लगे रहते हैं। समाजशास्त्र में वर्णित प्रदत्त प्रस्तुति और अर्जित प्रस्थिति से हम समझ सकते हैं कि अर्जित प्रस्थिति के स्थापित होने पर प्रदत्त प्रस्थिति शून्य मान हो जाया करती है। महर्षि वाल्मीकि सतयुग त्रेता और द्वापर तीनों के दृष्टा थे भगवान राम जब उनसे मिलने उनके आश्रम पर गए थे तब उन्होंने यह कहा-
तुम त्रिकालदर्शी मुनि नाथा।
विश्व बदर जिमि तुम्हरे हाथा।।
महर्षि वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद से राम के चरित्र की रामायण के रूप में संस्कृत में रचना की वह का संसार का प्रथम महाकाव्य बना।
न ते वाग्नृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति।
कुरु राम कथां पुण्यां श्लोकबद्धा मनोरमाम्।
मां सरस्वती की कृपा से उनके श्री मुख से पहला श्लोक तमसा नदी के किनारे बहेलिया द्वारा क्रौंच पक्षी को मार देने की घटना से अद्भुत हुआ।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीसमा।
यतक्रोंचमिथुनादेकमबधी काम मोहितम।।
हे दुष्ट तुमने प्रेम में मगन क्रौंच पक्षी को मारा है, तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाएगी और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा। उनके द्वारा २४हजार अनुष्टुप छंदों में राम कथा की रचना रामायण के रूप में की गई जिसमें सात कांड १०० उपाख्यान और ५०० सर्ग हैं इसे आदि काव्य या चतुर्विंसतिसाहस्त्री संहिता भी कहा गया है। संस्कृत वांग्मय में प्राप्त राम कथाओं के अतिरिक्त संसार कीअनेक रामकथा जैसे अध्यात्म रामायण ,अद्भुत रामायण, कंब रामायण आदि राम विषयक उपजीव स्वीकार किया जा सकता है ।राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इतिहास के दो भेद किए हैं ,पहला परिक्रिया दूसरा पुराकल्प ।परिक्रिया इतिहास एक नायक से संबंध होता है और पुराकल्प पर इतिहास अनेक नायकों से संबंध होता है। इस प्रकार रामायण एक नायक विषयक होने से परिक्रियात्मक इतिहास स्वीकार किया जा सकता है। इस महाकाव्य की विशेषता यह है कि गायत्री मंत्र के २४ वर्ण होते हैं, इस को आधार मानकर रामायण में २४हजार श्लोक लिखे गए हैं प्रत्येक १००० श्लोक के बाद गायत्री मंत्र के नए वर्ण से नया श्लोक आरंभ होता है। वेदों के बाद सर्वप्रथम अनुष्टुप वाणी का प्रवर्तन आदि काव्य रामायण में ही है ।ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित होने से इसे आर्ष काव्य भी कहा जाता है। संसार के विभिन्न देशों में राम कथा को विस्तार देने के मूल में रामायण महाकाव्य ही है। रामायण जैसे अद्वितीय अनुपम ऐतिहासिक महाकाव्य के रचनाकार आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के उपकार का समाज सदा ऋणी रहेगा।