पुण्यतिथि विशेष : मैथिलीशरण गुप्त परलोक में भी चाहते थे आचार्य जी जैसा पथ प्रदर्शक
" करते तुलसीदास जी कैसे मानस-नाद,
'महावीर' का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद"
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिए कही गई यह लोकप्रिय पंक्तियां आज भी गुरु-शिष्य परंपरा के लिए कीर्ति स्तंभ हैं।हमारे उन्हीं राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 12 दिसंबर को 57वीं पुण्यतिथि है। 12 दिसंबर 1964 को उन्होंने अंतिम सांस ली। 3 अगस्त 1886 को चिरगांव (झांसी) में राम भक्त राम चरण एवं काशीबाई के घर जन्मे मैथिलीशरण गुप्त, द्विवेदी युग की देन हैं। खड़ी बोली कविता के प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले गुप्त जी ने छह दशक की काव्य साधना में करीब 40 मौलिक काव्य ग्रंथों की रचना की। अतीत वर्तमान और भविष्यत पर आधारित भारत भारती और रामचरितमानस की प्रमुख पात्र उर्मिला के चरित्र पर आधारित साकेत उनके महत्वपूर्ण महाकाव्य हैं।
प्रारंभ में रसिकेंद्र उपनाम से बृजभाषा में कविताएं लिखने वाले मैथिलीशरण गुप्त की अपने समय की प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका "सरस्वती" में कविताएं छपने की ललक ने उन्हें आमजन की भाषा में आमजन के लिए कविताएं लिखने की तरफ मोड़ दिया। इसका किस्सा यूं है-" गुप्तजी ने अपनी बृजभाषा की कविता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पास भेजी। उसमें अपना उपनाम "रसिकेंद्र" भी लिखा। आचार्य जी ने एक पत्र के साथ कविता वापस लौटा दी। पत्र में लिखा-"हम सरस्वती में बृजभाषा में कविताएं नहीं छापते। आम जन की भाषा खड़ी बोली में कविताएं लिखिए। और हां! अब रसिकेंद्र बनने का जमाना गया...।"
आचार्य जी की ऐसी टिप्पणी के बाद गुप्तजी ने बृजभाषा से मुंह मोड़ लिया। रसिकेंद्र उपनाम से तौबा कर ली और खड़ी बोली में कविता लिखनी शुरू कर दीं। सरस्वती में उनकी खड़ी बोली की पहली कविता "हेमंत" 1905 में प्रकाशित हुई। अगर वह अपनी इस कविता के संबंध में सार्वजनिक रूप से यह न स्वीकारते-"मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा।... पढ़ने पर मेरा आनंद आश्चर्य में बदल गया।इसमें तो इतना संशोधन और परिवर्धन हुआ था कि यह मेरी रचना ही नहीं कही जा सकती थी। कहां वह कंकाल और कहां यह मूर्ति। वह कितना विकृत और यह कितनी परिष्कृत। फिर भी शिल्पी के स्थान पर नाम तो मेरा ही छपा है। मुझे अपनी हीनता पर लज्जा आई और पंडित जी की उदारता देख कर श्रद्धा से मेरा मस्तक झुक गया।" तो हिंदी जगत को आचार्य द्विवेदी के श्रमसाध्य संपादन की अनुभूति समय रहते समझने में मुश्किल होती।
हिंदी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी और मैथिलीशरण गुप्त के बीच परस्पर स्नेह और सम्मान के रिश्ते जगजाहिर हैं। आचार्य द्विवेदी न घोषित गुरु थे न राष्ट्रकवि घोषित शिष्य लेकिन दोनों के बीच आपसी समझ गुरु-शिष्य के रिश्ते से बड़ी थी। पवित्र और शीतल थी। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक रहे। साहित्य में इसके कई प्रसंग समय-समय पर सामने आते रहे हैं। खड़ी बोली आंदोलन से निकले मैथिलीशरण गुप्त आचार्य द्विवेदी के एकमात्र ऐसे शिष्य है जो परलोक में भी उनके जैसे पथ प्रदर्शक की चाह रखते हैं। एक ही स्थान पर वह लिखते भी हैं-"अयोग्य देखकर भी पंडित जी ने मुझे त्यागा नहीं, सदा के लिए अपना लिया। मुझे बोलचाल की भाषा में पद्य रचने का गुर मिल गया।.... अपने प्रभु से यही प्रार्थना करता हूं कि परलोक में भी उनका सा पथ प्रदर्शक मुझे प्राप्त हो।"
अपने अघोषित गुरु से कविता के "गुर" ग्रहण करने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा अपनी मृत्यु के 3 वर्ष पूर्व और आचार्य द्विवेदी की मृत्यु के 23 वर्ष बाद 5 दिसंबर 1961 को सरस्वती की शुभाशंसा में लिखा गया एक पत्र भी दृष्टव्य है-"उन्हीं का (आचार्य द्विवेदी) अनुग्रह था, जो कृतविज्ञों के समाज में मेरे ऐसा अस्पृश्य भी इस मंदिर में प्रवेश और प्रसाद पा सका।"
प्रथम आचार्य और राष्ट्रकवि के बीच खटपट का वो प्रसंग -
गुरु शिष्य के रिश्ते से भी ज्यादा प्रगाढ़ जीवन का निर्वाह करने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी और मैथिलीशरण गुप्त के बीच खटपट का भी एक प्रसंग है। खड़ी बोली के हिंदी साहित्य में इस प्रसंग की चर्चा देखने-सुनने और पढ़ने को कम ही मिलती है। आचार्य द्विवेदी पर करीब 70 वर्ष पहले पहला शोध लखनऊ विश्वविद्यालय से करने वाले इस डॉ. उदयभानु सिंह ने अपने शोध में इस प्रसंग पर भी प्रकाश डाला है। शेख भोलाराम सेकसरिया स्मारक ग्रंथ माला-३ के तहत उनका शोध ग्रंथ "महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग"संवत 2008 में लखनऊ विश्वविद्यालय की ओर से ही प्रकाशित किया गया। इसके मुद्रक रमाकांत मिश्र (एम.ए.) लखनऊ प्रिंटिंग हाउस-अमीनाबाद लखनऊ थे। इस शोध ग्रंथ के पुस्तक रूप में प्रकाशित होने पर उपोद्घात विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. दीनदयालु गुप्त ने लिखा था।
विश्वविद्यालय के ही पूर्व विभागाध्यक्ष एवं प्रसिद्ध समालोचक डॉक्टर सूर्य प्रसाद दीक्षित से प्राप्त इस शोध ग्रंथ में प्रकाशित प्रसंग कुछ ऐसा है-"आचार्य द्विवेदी के समकालीन बनारसीदास चतुर्वेदी ने विशाल भारत में साकेत की आलोचना की। आलोचना की कुछ बातों से गुप्तजी सहमत नहीं हुए और 15 जनवरी 1932 को चतुर्वेदी जी को उत्तर लिखकर भेजा। उसी उत्तर की प्रतिलिपि के साथ द्विवेदी जी को भी उन्होंने पत्र लिखा और उनकी सम्मति मांगी। द्विवेदी जी ने अपनी राय देते हुए लिखा-"तुलसी की कविता से आपको अपनी कविता की तुलना करना शोभा नहीं देता"। आचार्यजी का पत्र पढ़कर गुप्तजी तिलमिला गए और 28 जनवरी को एक पत्र लिखा-"आज 25 वर्ष से ऊपर हुए मैं आपकी छत्रच्छाया में हूं। यह बात औरों के कहने के लिए रहने दीजिए। मैंने अपनी ध्यान समाधि में जैसा देखा वैसा लिखा।" एक फरवरी को द्विवेदी जी ने उत्तर में लिखा कि आपने मुझसे राय मांगी मुझे जो कुछ उचित समझ पड़ा लिखकर मैंने आपकी इच्छापूर्ति कर दी। इस पर आप विवाद पर उतर आए। जो राय मैने दी उसका सर्वाश में खंडन कर डाला। इसकी क्या जरूरत थी? आप अपनी राय पर जमे रहते। ध्यान समाधि लगाकर पुस्तक लिखने वालों को मेरे और बनारसीदास जैसे मनुष्यों की राय की परवाह ही क्यों करनी चाहिए? वे अपनी राह जाएं, आप अपनी। आपकी राय ठीक। मेरी और बनारसीदास की गलत सही- तुष्यत भवान।"
द्विवेदी जी के इस पत्र के उत्तर में 4 फरवरी को मैथिली शरण जी ने जो लिखा उसे साहित्य प्रेमियों को जरूर पढ़ना चाहिए-
"पूज्यवर श्रीमान पंडित जी महाराज प्रणाम। कपा कार्ड मिला। जिसे कहीं से अनुकूलता की आशा नहीं होती वह एकांत में अपने देवता के चरणों में बैठकर, भले ही वह दोषी स्वयं हो, उसी को उपालंभ देता है। ऐसा ही मैंने किया है। मेरे सबसे छोटे भाई चारुशीला शरण का बच्चा अशोक कभी-कभी खींचकर मेरी टांगों में अपना सिर लगा देता है और मुझे खेलता हुआ अपना अभिमान प्रकट करता है समझ लीजिए ऐसा ही मैंने किया है और मेरा यह व्यवहार सहन कर लीजिए।"
इस प्रसंग के अतिरिक्त महावीर प्रसाद द्विवेदी और मैथिलीशरण गुप्त के बीच कोई अन्य ऐसा विवाद हिंदी साहित्य में सुना और पढ़ा नहीं गया लेकिन दोनों के बीच संबंधों में कोई फर्क इस प्रसंग से पसंगा भर नहीं पड़ा। साल भर बाद ही काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आचार्य द्विवेदी के सम्मान में 1933 में प्रकाशित किए गए द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ के सबसे आखिर में मैथिलीशरण गुप्त की "अंत में" शीर्षक से कविता-
"क्षमा करो उनको भी राम!
उनके भी उद्धार हेतु मैं
करता हूं प्रभु, तुम्हें प्रणाम.." प्रकाशित हुई।
साहित्य जगत के इन दोनों ही महापुरुषों ने आजीवन यह सिद्ध किया कि रिश्ते नाम के मोहताज नहीं होते। रिश्ते अभिसिंचित होते हैं, परस्पर स्नेह और सम्मान से।ऐसे राष्ट्रकवि एवं जगत "दद्दा" मैथिलीशरण गुप्त को 57 वीं महाप्रयाण तिथि पर कोटि-कोटि नमन!