पत्रकारिता के अनुकरणीय परमहंस थे माणिकचंद्र वाजपेयी

पत्रकारिता के अनुकरणीय परमहंस थे माणिकचंद्र वाजपेयी
डॉ अजय खेमरिया

वेबडेस्क। पत्रकारिता के पराभव काल की मौजूदा परिस्थितियों में मामाजी यानी माणिकचंद्र जी वाजपेयी का जीवन हमें युग परिवर्तन का बोध भी कराता है। पत्रकारिता में मूल्यविहीनता के अपरिमित सैलाब के बीच अगर मामाजी को याद किया जाए तो इस बात पर सहज भरोसा करना कठिन हो जाता है कि पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में कोई हाड़ मांस का इंसान ध्येयनिष्ठा के साथ पत्रकारीय जीवन की यात्रा को जीवंत दर्शन में भी तब्दील कर सकता है।

मामाजी पत्रकारिता जगत की अमूल्य और अनुकरणीय निधि हैं। वे निर्मोही और परमहंस गति के सांसारिक शख्स थे। उनका व्यक्तित्व उन सन्त महात्माओं के लिए भी विचारण पर बाध्य कर सकता है जो सार्वजनिक संभाषण में सादगी और सदाचार के लिए आह्वान करते हैं। मामाजी का व्यक्तित्व सच्चे अर्थों में विभूतिकल्प था। वे सांसारिक जीवन के सन्त थे और एक योद्धा की तरह समाज कर्म में संलग्न रहे। अपनी वैचारिकी के प्रति सांगोपांग समर्पित इस महान शख्स की जीवन यात्रा का अवलोकन मौजूदा दौर के एक महत्वपूर्ण पक्ष को भी उद्घाटित करता है, वह यह कि पहचान और प्रतिष्ठा केवल प्रोफेशन, सेंसेशन और इंटेंशन से ही अर्जित नहीं की जाती है बल्कि ईमानदारी, सादगी और ध्येय निष्ठा ही किसी जीवन को टिकाऊ और अनुकरणीय बनाते हैं। मामाजी पत्रकारिता के इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सरोकारों और सत्यनिष्ठा के प्रतिमानों को खड़ा कर गए हैं।

पत्रकार के रूप में मामाजी के बीसियों किस्से आज की पीढ़ी के लिए सीखने और धारण करने के लिए उपलब्ध है। मामाजी ने एक संवाददाता, संपादक, लेखक, वक्ता, विचारक के रूप में राष्ट्र चिंतन का समुच्चय समाज को दिया। उनके लेखन में राष्ट्रीयता और समाज की सर्वोच्च प्राथमिकता की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। मूल रूप से मामाजी आरएसएस के स्वयंसेवक थे और वे आजन्म स्वयंसेवक की सीमाओं और सत्यनिष्ठा के साथ जीये। उनके व्यक्तित्व का फलक इतना व्यापक था जिसमें आप एक तपोनिष्ठ प्रचारक, पत्रकार, राजनेता, शिक्षक, समाजकर्मी, गृहस्थ, संन्यासी का अक्स पूरी प्रखरता से चिन्हित कर सकते हैं। एक प्रचारक के जीवन में संघ नियामक की तरह होता है इसलिए इस पैमाने पर मामाजी का जीवन शत-प्रतिशत खरा उतरता है। वे संघ के आदेश पर हर भूमिका के लिए तत्पर रहे।

नई दुनिया के महानतम संपादकों में एक राहुल बारपुते ने एक लेख में मामाजी की सादगी को भारतीय सन्त मनीषा का प्रेरणादायक समुच्चय बताया था। असल में मामाजी की वेशभूषा और जीवनशैली को देखकर उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का अंदाजा लगाया जाना संभव नहीं था। बेतरतीब सिर के बाल, सिकुड़न समेटे धोती-कुर्ता और कपड़े के साधारण जूतों में रहने वाले मामाजी हर उस नए आदमी को अचंभित कर देते थे जो उनकी ख्याति और कृतित्व को सुनकर उनसे मिलने आता था। आज के दौर ही नहीं मामाजी के समकालीन पत्रकारों में भी सरकारी सुविधाओं के प्रति जबरदस्त आकर्षण होता था लेकिन मामाजी सदैव सुविधाभोगी पत्रकारिता से दूर रहे। स्वदेश ग्वालियर और इंदौर के संस्थापक संपादकों जैसी महती जिम्मेदारी को सफलतापूर्वक निभाने वाले मामाजी ने पत्र के माध्यम से राष्ट्रीयता के विचार पुंज को भोपाल, रायपुर समेत प्रदेश भर में आलोकित किया। उनके मार्गदर्शन में स्वदेश की पत्रकारीय पाठशाला में अनेक पत्रकारों ने प्रशिक्षण प्राप्त कर राष्ट्रीय और प्रादेशिक पत्रकारिता में स्तरीय मुकाम हासिल किया है।

मामाजी एक प्रशिक्षक के रूप में प्रभावी और सहज अधिष्ठाता की तरह थे। वे स्वभाव से जितने विनम्र थे कमोबेश उनकी लेखनी उतनी ही कठोरता से सरोकारों के लिये चलती थी। उनके सानिध्य में आया हर शख्स यही समझता था कि मामाजी उसके परिवार के सदस्य हैं। यही उनके उदारमना हृदय का वैशिष्ट्य था जो उन्हें हरदिल अजीज बनाता था। प्रख्यात पत्रकार राजेन्द्र शर्मा का कहना है कि मामाजी का मूलतः एक ही सार्वजनिक व्यक्तित्व था जिसमें निश्छलता और निष्कपटता के अलावा कोई दूसरा तत्व समाहित नहीं था इसीलिए वे हर सम्पर्क वाले आदमी को अपने आत्मीयजन का अहसास कराते थे।

उनके लेखन का मूल्यांकन केवल राष्ट्रीयता को प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित करता है। मामाजी के व्यक्तित्व का एक अहम पक्ष उनकी राष्ट्र आराधना में समर्पण का है। बहुत कम इस बात की चर्चा होती है कि उनके गृहस्थ जीवन में एक के बाद एक वज्राघात हुए। उनके इकलौते पुत्र का निधन संघ शिक्षा वर्ग में उनकी व्यस्तता के बीच हुआ तो पुत्री के निधन की परिस्थितियों ने भी उन्हें संघ शाखा के दायित्व से नहीं डिगने दिया। पत्नी भी असमय साथ छोड़ चुकी थी, इसके बावजूद वे संघ कार्य में अंतिम सांस तक जुटे रहे। आज के दौर में हम देखते हैं कि किसी सांसद, विधायक या मंत्री के परिजन और उनके नजदीकी किस तरह दंभ और ठसक से भर जाते हैं लेकिन मामाजी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चचेरे भाई थे इसके बावजूद उन्होंने कभी इस रिश्ते को न तो प्रकट किया न किसी अन्य को इस रिश्ते को प्रचारित करने की अनुमति दी। 2002 में अटल जी ने प्रधानमंत्री रहते हुए एक सार्वजनिक समारोह में मामाजी के चरण छूने की इच्छा व्यक्त कर देश के समक्ष यह संदेश दिया था कि मामाजी की महानता और संतत्व का मूल्यांकन करने में सत्ता और समाज भूल कर गया है। शीर्ष राजसत्ता का मामाजी के समक्ष अटल जी के रूप में दण्डवत होने का यह घटनाक्रम कोई साधारण बात नही थी बल्कि मामाजी के विभूतिकल्प व्यक्तित्व को राष्ट्रीय अधिमान्यता देने जैसा ही था।

तथापि यह भी तथ्य है कि सामाजिक जीवन में मामाजी के जीवन दर्शन को सुस्थापित करने के नैतिक दायित्व को निभाने में हम खरे नहीं उतरे हैं। उनके जीवन को दर्शन की श्रेणी में इसीलिए भी रखा जाता है क्योंकि उन्होंने जो लिखा या कहा उसे खुद के जीवन में उतारकर भी दिखाया। क्या ऐसे व्यक्तित्व और कृतित्व को दर्शन से परे कुछ और निरूपित किया जा सकता है? आइये पत्रकारिता में टूटती मर्यादाओं के इस तिमिराच्छन दौर में मामाजी के शाश्वत और कालजयी दीपक को प्रकाशित कर राष्ट्रीयता की जमीन को सशक्त करने का संकल्प लें।

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