“वज्रपात” / मनुस्मृति : पान पुराना घी नया

“वज्रपात” / मनुस्मृति : पान पुराना घी नया
X
लेखक - डॉ. आनन्द पाटील

हिन्दुस्थान करुणा, लोककल्याणकारी संस्कार, वैचारिक स्वतन्त्रता, सर्वसमावेशी दृष्टि एवं दार्शनिक चिन्तन के कारण विश्व-प्रसिद्ध है। लोककल्याणकारिता के कारण यहाँ आक्रान्ता भी आश्रय-प्रश्रय पाते रहे हैं, परन्तु जो आक्रान्ता (साम्राज्यवादी) आये, उनकी विषाक्त युक्ति-योजनाएँ थीं। उन्होंने उन्हीं युक्ति-योजनाओं के अन्तर्गत भारतीय सामाजिक परिवेश को विषाक्त किया। आज कुछ लोग ‘मनुस्मृति’ को पानी पी-पीकर गाली देते हैं। इसके पीछे विषाक्त युक्ति-योजनाएँ, दुष्प्रचारित सामग्री एवं अनेकानेक प्रसंगों में अज्ञानता है। ध्यातव्य है कि ‘मनुस्मृति’ को लेकर विचार कम, सुनियोजित दुष्प्रचार अधिक है।

हिन्दू धर्म को प्रतिगामी बताने और ब्राह्मणों में अपराध-बोध जागृत करने हेतु ‘मनुस्मृति’ के चयनित अंशों का सुविधानुसार दोहन होता है। लोग भूल जाते हैं कि वर्तमान भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था है और वह ‘मनुस्मृति’ से नहीं, संविधान से चलती है। ‘यजुर्वेद’ में कहा है कि विद्या से अमरत्व प्राप्त होता है - ''विद्ययाऽमृतमश्‍नुते।'' परन्तु, दुर्भाग्य कि बुद्धिवादियों ने विद्या का उपयोग अपनी युक्ति-योजनाओं को क्रियान्वित करने हेतु किया। ‘मनुस्मृति’ उसी प्रकार दुष्प्रचारित है, जिस प्रकार हिन्दू-हिन्दुत्त्व। हिन्दी के एक स्वघोषित आलोचक ने न जाने किस युक्ति-योजना एवं बौद्धिक खुजलाहट के कारण लिखा है - “'हिन्दू' शब्द की आज की अर्थ योजना साम्प्रदायिक है।” ‘मनुस्मृति’ के सम्बन्ध में प्रायः ऐसी बौद्धिक खुजलाहटों से उपजी खीझ के परिणामस्वरूप उसे स्त्री-विरोधी, निम्न जाति-विरोधी के रूप में दुष्प्रचारित किया गया है। यह विस्मृत न हो कि ज्ञानी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं, परन्तु अविद्यार्जित ज्ञानी शंकाएँ बढ़ा कर दिग्भ्रमित कर देते हैं। शंकाएँ उत्पन्न करने वाले ज्ञानियों ने अपनी युक्ति-योजनाओं के अनुसार ‘मनुस्मृति’ को दुष्प्रचारित किया ताकि इस महादेश का सामाजिक तानाबाना चरमरा जाये और वे उस ढाँचे में अपने धार्मिक मत का चूना-सीमेण्ट भरकर अपनी भव्य इमारत बना सके।

कोई भी ग्रन्थ अपने देशकाल की उपज होता है। उसमें सामयिक सत्य का अन्वेषण-रेखांकन होता है। यही तथ्य ‘मनुस्मृति’ पर भी लागू होता है। परन्तु ध्यातव्य है कि कई संस्कृत ग्रन्थों के साथ प्रायोजित छेड़छाड़ हुई है। इसके कई सन्दर्भोचित उदाहरण हैं। ‘मनुस्मृति’ में अनगिनत प्रक्षिप्त अंश हैं। ‘वीकिपीडिया’ में इसी आशय का विचार है - “मनुस्मृति की पचासों पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं। कालान्तर में बहुत-से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता है।”

अब प्रश्‍न उपजते हैं कि ये अंश किसने जोड़े, कब जोड़े, क्यों जोड़े? ऐतिहासिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि 1776 में सर विलियम जोन्स ने ‘मनुस्मृति’ का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। ध्यान दें कि अलेक्जैण्डर पोप नामक अनुवादक ने होमर के ‘इलियड’ एवं ‘ओडेसी’ का अनुवाद किया था। अनुवाद मूल से इतना भिन्न था कि एक आलोचक ने कहा कि “मिस्टर पोप, वह कविता सुन्दर है, किन्तु इसे आप होमर की कविता नहीं कह सकते।” अर्थात् मूल के प्रति चाहे जितनी निष्ठा हो, अनुवाद में फलीभूत नहीं होती। अब उनके अनुवादों का क्या कहें, जिनमें निष्ठा के स्थान पर षडयन्त्र कूट-कूट कर भरा हो! ब्रिटिशों ने ‘मनुस्मृति’ को मुस्लिमों के शरिया के समानान्तर रखते हुए उसका प्रयोग हिन्दू कानून के रूप में किया। इसे ब्रिटिशों की विभाजनकारी कूटनीति के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखना और विचार करना चाहिए कि दीर्घावधि से लोक-व्यवहार में अछूत रही संस्कृत में लोगों को प्रावीण्य तो दूर, कार्यसाधक ज्ञान भी होगा? तब ऐसे कूटबुद्धि अनुवादकों पर संशय होता है।

यह भी विचारणीय है कि ‘मनुस्मृति’ की भाषा संस्कृत हुई और संस्कृत लोक-व्यवहार में अछूत रही तो उसमें क्या-कुछ, क्यों और किस सन्दर्भ में कहा गया है, तथा जो कहा गया है, वह प्रामाणिक ही है, कैसे पता चला? जब संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध ज्ञान अनूदित रूप में प्रचारित है, तो अलेक्जैण्डर पोप पर उस आलोचक की राय से समझना होगा कि वे अनुवादक कितने प्रवीण रहे होंगे, उनका संस्कृत ज्ञान कैसा रहा होगा? आश्‍चर्य है, भारत में अछूत संस्कृत विदेशियों को लुभाती है। अपने प्रचार-तन्त्र से प्रसिद्धि प्राप्त तथाकथित विद्वानों को संस्कृत ग्रन्थों का मनोनुकूल (छद्म) अनुवाद कर कर्मण्यता को भूला-बिसराने वाले परजीविता में पतित देशजों को अपने मायाजाल में फाँसने में सफलता मिलती रही है।

ध्यान रहे कि पश्‍चिम में अनुवाद का विकास ‘बाइबिल’ के अनुवाद से ही हुआ है। अतः समझना होगा कि ईसाचरित (गॉस्पल) को दैवीय, सर्वोपकारी एवं समतामूलक स्वरूप प्रदान करने के बावजूद भारतीयों का समाजार्थिक विभाजन करना आवश्यक था। ऐसा किये बिना हिन्दुओं में वैदिक धर्म के प्रति अनास्था उत्पन्न नहीं की जा सकती थी और वे हिन्दू धर्म त्याग कर ईसाइयत का स्वीकार न करते। बाबासाहब आम्बेडकर विद्वान थे, परन्तु दुर्भाग्यवश वे भी ईसाई प्रचार-तन्त्र के नैरेटिव के शिकार हुये और ‘मनुस्मृति’ को ब्राह्मणवाद की मूल संहिता मान कर प्रक्षिप्तांशों की सत्यता के बावजूद उसे सम्पूर्ण सत्य माना।

वर्तमान समय में मानना-समझना होगा कि यह देश मनुस्मृति से नहीं, संविधान से चलता है। अतः अप्रामाणिक ‘मनुस्मृति’ को पानी पी-पीकर गाली देने से सामाजिक विद्वेष ही बढ़ेगा। अब कबीर का अनुसरण आवश्यक है - “सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।”

(लेखक : डॉ. आनन्द पाटील, युवा आलोचक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

Tags

Next Story