पुस्तक समीक्षा / मौन संविधान : भयानक परिणाम
- लेखक - मेजर सरस त्रिपाठी और डॉ आनन्द पाटील
- समीक्षक - सोमदत्त शर्मा
पुस्तक का नाम – मौन संविधान : भयानक परिणाम
लेखक – मेजर सरस त्रिपाठी
अनुवादक एवं सहलेखक– डॉ. आनंद पाटिल
प्रकाशक – प्रज्ञामठ पब्लिकेशन्स , गाजियाबाद , उ.प्र .
मूल्य – रू 599/-( हिंदी संस्करण )
संविधान को लोकतंत्र की गीता कहा जाता है। लेकिन गीता और संविधान में बस इतना अंतर है की गीता का विचार अपरिवर्तनीय है जब कि संविधान के कानून जब तक अस्तित्व में रहते हैं अपना काम करते हैं लेकिन आवश्यकता पड़ने पर इनमें परिवर्तन संशोधन होते रहते हैं। भारतीय संविधान भी इसका अपवाद नहीं है। अस्तित्व में आने के बाद से अब तक इसमें सौ से अधिक संविधान संशोधन किये जा चुके हैं। बाईस सौ उनतालीस (2239) क़ानून अपनी उपयोगिता खो देने के कारण निरस्त किये जा चुके हैं।
"मौन संविधान : भयानक परिणाम" ऐसी ही पुस्तक है जिसमें मेजर सरस त्रिपाठी ने भारतीय संविधान और उसके प्रावधानों लेकर विचारपूर्ण प्रस्ताव किये है | पुस्तक की महत्ता इस कारण भी है कि प्रस्तावों के क्रियान्वयन को लेकर भी उन्होंने रास्ता सुझाया है | प्रथम अध्याय –"स्वतः समाप्ति ( अधिनियम एवं कानून ) अधिनियम" - के अंतर्गत उन्होंने ‘समुद्र तट उपद्रव ( बोम्बे और कोलाबा ) अधिनियम ,1853 ‘ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह क़ानून लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना है और अपनी प्रासंगिकता खो चुका है फिर भी अस्तित्व में है" (अभी कुछ दिन पूर्व मोदी सरकार ने इसको समाप्त किया)। प्रासंगिकता खो चुके अनेक कानून प्रचलन में बने रहे, क्यों कि इन कानूनों को स्वतः समाप्त करने का कोई व्यवस्था नहीं थी। लेखक ऐसे कानूनों को समाप्त करने का प्रस्ताव करता है। वस्तुतः ऐसे कानूनों से देश के विकास में तो कोई सहयोग नहीं मिलता हाँ, प्रशासनिक बाधाएं जरूर आ जाती हैं और परिणाम आम आदमी को भुगतना पड़ता है। लेखक ऐसे कानूनों के निरस्तीकरण के साथ-साथ ऐसे प्रस्तावित अधिनियमों के निर्माण के समय ही कालावधि तय करने की बात भी करता है ताकि समय के साथ उपयोगिता खो चुके क़ानून, एक निश्चित अवधि के बाद, स्वतः ही समाप्त हो जाएँ। इस तरह लेखक संवैधानिक प्रावधानों को अनिश्चितकालीन और निश्चितकालीन वर्गों में बांटकर रखने का व्यवहारिक प्रस्ताव प्रस्तुत करता है।
इस तरह सम्पूर्ण पुस्तक एक ‘विचार’ पुस्तक के रूप में सामने आयी है जिसमें ऐसे विषय भी शामिल हैं जिनके प्रति वर्तमान प्रधानमंत्री तथा पूर्व के प्रधानमंत्रियों ने भी अपने विचार और मंशा समय-समय पर व्यक्त की है | जिसमें ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ अपने वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की रूचि का विषय है | ‘सामान नागरिक संहिता’ और ‘जनसँख्या नियंत्रण’ जैसे विषयों पर भी वर्तमान सरकार अपनी मंशा जाहिर कर चुकी है |
राजनीति में वंशवाद की समाप्ति के लिए लेखक ‘राजनीतिक दल (आतंरिक लोकतंत्र की पुनर्स्थापना) विनियमन अधिनियम’ लाने की वकालत करता है। यद्यपि संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने भी ‘रिव्यु ऑफ़ द वर्किंग ऑफ़ पोलिटिकल पार्टीज स्पेसिअली इन रिलेशन टू इलेक्शन एंड रिफॉर्म्स ओपशंस’ शीर्षक अध्याय में इस विषय पर काफी प्रकाश डाला है | इस सन्दर्भ में मेजर त्रिपाठी ने भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियो को छोड़कर कश्मीर से लेकर केरल तक अनेक राजनितिक दलों की चर्चा की है जो किसी एक व्यक्ति या एक परिवार के इर्द गिर्द रहती हैं। लेखक की दृष्टि में ‘यह अत्यंत विस्मयकारी बात है कि भारत के संविधान में राजनितिक दलों के सन्दर्भ में इस दृष्टि से कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है। इस अध्याय में वे संविधान की दसवीं अनुसूची ( सन १९८५ ) में जोड़े गये प्रावधानों का जिक्र करते हुए करते हुए संविधान के बावनवें संशोधन के अनुच्छेद १०२ (२) तथा अनुच्छेद १९१ (२) के अंतर्गत दलबदल की स्थिति में संसद या विधान सभा और विधान परिषद् के सदस्यों को अयोग्य घोषित करने को लेकर है | लेकिन लेखक ने दलबदल के कारण व्यवस्था का मजाक बनाने से रोकने के लिए कुछ सुझाव भी दिए हैं। जैसे कोई राजनेता दलबदल करता है तो उसे कम से कम एक साल के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति न हो या चुनाव से पूर्व बने गठबंधन को चुनाव के बाद किसी तरह के बदलाव की अनुमति न दी जाय। इसी तरह निर्दलियों ने चुनाव से पूर्व गठबंधन नहीं किया है तो चुनाव के बाद भी उन्हें ऐसा करने की अनुमति न हो।
लेखक ने ‘हिन्दू राष्ट्र (संवैधानिक मान्यता और परिभाषा )अधिनियम’ ,‘हिन्दू मंदिर और संपदा (प्रशासन एवं प्रबंधन) अधिनियम की चर्चा क्रमशः छठे और सातवें अध्याय में की है | छठे अध्याय में मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुदीप रंजन सेन की टिप्पणी के हवाले से पकिस्तान , बांगलादेश और अफगानिस्तान आदि देशों में ,जहां हिन्दुओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, के आलोक में भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में संवैधानिक व्यवस्था करने का भी प्रस्ताव किया है | इस प्रस्ताव के सन्दर्भ में लेखक ने जनसांखिकीय आंकड़े देकर अपने तर्क को पुष्ट किया है | कहना न होगा कि यह प्रस्ताव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूल उद्द्येश्य के पक्ष में लाया गया है | जिसके लिए भिन्न भिन्न कारणों से देश के समूचे जनमानस में एक बेचैनी महसूस की जा रही है और जिसकी अभिव्यक्ति भी तरह तरह से हो रही है | ‘हिन्दू मंदिर और सम्पदा (प्रशासन एवं प्रबंधन) अधिनियम’ शीर्षक अध्याय में लेखक ने हिन्दू मंदिरों को प्राप्त दान के प्रबंधन एवं प्रशासन के लिए क़ानून बनाने पर जोर दिया है | क्यों की वर्तमान व्यवस्था में देश के बड़े और विशिष्ट हिन्दू मंदिरों की संपत्ति और दान का नियमन और संरक्षण सरकार करती है और यह केवल हिन्दू मंदिरों पर ही लागू होता है। जबकि देश में अन्य धर्मों के नागरिक भी हैं लेकिन किसी अन्य धर्म की संपत्तियों पर यह कानून लागू नहीं होता। वास्तव में यह एक धर्म निरपेक्ष देश में पक्षपातपूर्ण व्यवस्था ही कही जायगी |लेखक इस विभेदकारी और पक्षपातपूर्ण कानून को बदलने की पुरजोर वकालत करता है।
पुस्तक का अध्याय सात ‘अल्पसंख्यक (परिभाषा और पहचान ) अधिनियम’ है | इसमें कानून के माध्यम से अल्पसंख्यकों को राज्यवार परिभाषित करने का प्रस्ताव लेखक ने किया है | क्योंकि देश में अरुणांचल , मणिपुर , मेघालय , मिजोरम , और नागालैंड जैसे कई राज्य हैं जिनमें हिन्दू अल्पसंख्यक है लेकिन उसे इन राज्यों में वो सुविधाएँ नहीं मिलतीं जो बहुसंख्यक होने के बावजूद देश के दूसरे राज्यों में अल्पसंख्यकों को मिलती रही हैं | इसलिए लेखक ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को पुनः परिभाषित करने की वकालत करता है और सभी नागरिक समूहों को परिस्थिति के अनुरूप राज्यवार लाभ देने के लिए कानून बनाने की सिफारिश करता है |
इनके अतिरिक्त केंद्र – राज्य सम्बन्ध , राज्यपाल नियुक्ति (भूमिका और योग्यता ) अधिनियम , सर्वोच्च न्यायालय (न्याय सुगम्यता), क्षेत्रीय न्यायपीठ अधिनियम , उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम १९९१ ( संशोधन / निरसन) तथा छः अन्य कनूनो पर जिसमें सरकार की वित्तीय स्थिरता और उत्तरदायित्व अधिनियम , राष्ट्रीय न्यायिक (नियुक्तियां और उत्तरदायित्व ) आयोग अधिनियम , स्वतंत्र नियुक्ति आयोग की स्थापना के लिए विभिन्न निकायों की संस्तुतियों , अनिवार्य मतदान के बहाने मौलिक कर्तव्य निर्वहन, राजमार्ग अधिनियम ,अतिक्रमी घुसपैठिया अधिनियम जैसे विषयों को उठाकर लेखक ने एक प्रकार से भारतीय संविधान के पुनरावलोकन की आवश्यकता को रेखांकित किया है |
पुस्तक की एक और विशेषता इसका हिंदी अनुवाद है। यह पुस्तक मूलतः अंग्रेजी में लिखी गयी थी। डॉ. आनंद पाटिल ने इसका हिंदी अनुवाद किया है | अनुवाद इतना सरल , सहज और स्पष्ट है कि सम्पूर्ण विषय को अक्षरशः अक्षरशः बोधगम्य बनाता है |
पुस्तक में जो विषय उठाये गये हैं कभी न कभी , कहीं न कहीं अलग अलग रूपों में चर्चा होती रही है लेकिन इस तरह से पुस्तकाकार रूप में समन्वित प्रयास संभवतः पहली बार हुआ है | इसके लिए लेखक और अनुवादक दोनों की प्रशंसा की जानी चाहिए |पुस्तक हिन्दी और अंग्रेजी ( In English titled "Silent Constitution: Dangerous Consequences") दोनों भाषाओँ में उपलब्ध है। |