अशुभ को शुभ बनाने वाली ऊर्जा का नाम है शिव : डॉ. मृत्युञ्जय तिवारी
वेबडेस्क। समाज में परित्यक्त, वंचित और अनुपयोगी समझी जाने वाली वस्तुओं को भगवान शिव ने स्वीकार किया है । जहां अन्य देवी देवताओं को हम अच्छे फूलो से पूजते हैं वही शिव जी को भांग धतूरा आदि चढ़ाया जाता है । इसी प्रकार इनका निवास भी श्मशान में माना गया है । वस्त्र में बाघाम्बर, माला के जगह पर शेषनाग, सुख सुविधाओं से दूर पर्वत पर भोलेनाथ सपरिवार रहते हैं । श्री कल्लाजी वैदिक विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष डॉ मृत्युञ्जय तिवारी ने बताया कि भगवान शिव के मित्र स्वयं कुबेर हैं पुत्र गणेश हैं, श्वसुर हिमालय हैं फिर भी भिक्षाटन करना भी इन्होंने स्वीकारा है । एक तरफ जनमानस में सामान्य भावना है कि तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा । परन्तु तीन अंक का महत्व शिव के लिए अत्यधिक है । ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस अंक के स्वामी ग्रह गुरू हैं। गुरू ग्रह के देवता भगवान विष्णु हैं । इसलिए भगवन शिव अपना गुरु विष्णु को मानते हैं, और विष्णु भगवान शिव को अपना गुरु मानते हैं । यही कारण है कि भगवान शिव अंक तीन को बहुत शुभ मानते हैं और इनकी पूजा में तीन का बड़ा महत्व होता है। भगवान शिव की हर वस्तु में तीन शामिल है ।
त्रिशूल -
भगवान शिव का त्रिशूल त्रिलोक का प्रतीक है । इसमें आकाश, धरती और पाताल शामिल हैं । कई पुराणों में त्रिशूल को तीन गुणों जैसे तामसिक गुण, राजसिक गुण और सात्विक गुण से भी जोड़ा गया है ।
शिव के तीन नेत्र -
शिव ही एक ऐसे देवता हैं जिनकी तीन नेत्र हैं । इससे पता लगता है कि शिव जी का तीन से गहरा नाता है । शिव जी की तीसरी नेत्र कुपित होने पर ही खुलती है । शिव जी के इस नेत्र के खुलने से पृथ्वी पर पापियों का नाश हो जाता है । इतना ही नहीं, शिव जी का यह नेत्र ज्ञान और अंतर्दृष्टि का प्रतीक है, इसी से शिव जी ने काम दहन किया था ।
बेल पत्र की पत्तियां -
शिवलिंग पर चढ़ाने वाली बेल पत्र की पत्तियां भी तीन होती हैं, जो एक साथ जुड़ी होती हैं । कहते हैं ये तीन पत्ते त्रिदेव और त्रिलोक के प्रतीक होते हैं।
शिव के मस्तक पर तीन आड़ी रेखाएं -
शिव जी के मस्तक पर तीन रेशाएं या त्रिपुंड सांसारिक लक्ष्य को दर्शाता है । इसमें आत्म संरक्षण, आत्मप्रचार और आत्मबोध आते हैं। व्याक्तितव निर्माण, उसकी रक्षा और उसका विकास, तो इसलिए शिवजी को अंक 'तीन' अधिक प्रिय है ।
दिन का तीसरा भाग अर्थात प्रदोष काल -
शास्त्रों में पूरे दिन को चार प्रहर में बांटा गया है। चार प्रहर में से भगवान शिव को तीसरा प्रहर यानी संध्या का समय बहुत प्रिय है इसे प्रदोष काल कहा जाता है। इस समय भगवान शिव की पूजा विशेष फलदायी होती है।
वैसे इस तीन संख्याओं का रहस्य भी शिवपुराण में उल्लिखित है -
शिवपुराण के त्रिपुर दाह की कथा में शिव के साथ जुड़े तीन के रहस्य के बारे में बताया गया है । इस कथा के अनुसार तीन असुरों ने तीन उड़ने वाले नगर बनाए थे, ताकि वो अजेय बन सके । इन नगरों का नाम उन्होंने त्रिपुर रखा था । ये उड़ने वाले शहर तीनों दिशा में अलग-अलग उड़ते रहते थे और उन तक पहुंचना किसी के लिए भी असंभव था। असुर आंतक करके इन नगरों में चले जाते थे, जिससे उनका कोई अनिष्ट नहीं कर पाता था । इन्हें नष्ट करने का बस एक ही तरीका था कि तीनों शहर को एक ही बाण से भेदा जाए । लेकिन ये तभी संभव था जब ये तीनों एक ही लाइन में सीधे आ जाएं । मानव जाति ही नहीं देवता भी इन असुर के आतंको से परेशान हो चुके थे ।
असुरों से परेशान होकर देवता ने भगवान शिव की शरण ली । तब शिवजी ने धरती को रथ बनाया । सूर्य और चंद्रमा को उस रथ का पहिया बना दिया । इसके साथ ही मदार पर्वत को धनुष और काल सर्प आदिशेष की प्रत्यंतचा चढ़ाई । धनुष के बाण खुद विष्णु जी बने और सभी युगों तक इन नगरों का पीछा करते रहे । एक दिन वो समय आ ही गया जब तीनों नगर एक सीध में आ गए और शिव जी ने पलक झपकते ही बाण चला दिया । शिव जी के बाण से तीनों नगर जलकर भस्म हो गए । इन तीनों नगरों की भस्म को शिवजी ने अपने शरीर पर लगा लिया, इसलिए शिवजी त्रिपुरी कहे गए । तब से ही शिवजी की पूजा में तीन का विशेष महत्व है