राष्ट्रहित में हो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा या नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क

राष्ट्रहित में हो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा या नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क
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- प्रो. निरंजन कुमार

यह सर्वविदित है कि बच्चे राष्ट्र का भविष्य हैं. इसलिए देश का भविष्य गढ़ना है तो इन बच्चों को इस तरह से गढ़ना होगा कि बड़े होकर वे एक सम्यक व्यक्तित्व के रूप में राष्ट्र-समाज के लिए समुचित योगदान करें. उनके मन में राष्ट्र के प्रति प्रेम का भाव हो न कि तिरस्कार का. बच्चों को इस दिशा में तैयार करने में सबसे बड़ी भूमिका शिक्षा की होती है. इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस बात पर सम्यक विचार-विमर्श हो कि बच्चों को कैसी शिक्षा दी जाए? उनके पाठ्यक्रमों में क्या पढाया जाए? यह भी कि उनकी पेडागौजी अर्थात शिक्षण पद्धति क्या हो? स्कूली शिक्षा के संदर्भ में इन चीजों की विस्तृत रुपरेखा को राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क) कहते हैं. इस नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) बनाने की जिम्मेदारी भारत सरकार की संस्था राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की है. एनसीईआरटी नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) संबंधी नीतियाँ बनाने के साथ-साथ उन नीतियों के आलोक में पुस्तकें तैयार करवाने का काम भी करता है. एनसीएफ पर पुनर्विचार करने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय (शिक्षा मंत्रालय का पूर्व नाम) की पहल पर एनसीईआरटी द्वारा 2020 में ही कमिटी के गठन की चर्चा चली. लेकिन विशेष प्रगति न होने के करण अब शिक्षा मंत्रालय ने स्वयं नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क के निर्माण हेतु के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक नई स्टीयरिंग समिति सितम्बर 2021 में बनाई है. सवाल उठता है कि इस एनसीएफ पर पुनर्विचार व संशोधन करने की क्यों जरुरत है? और इसकी क्या चुनौतियाँ हैं? ये प्रश्न बहुत ही प्रासंगिक हैं क्योंकि इनका संबंध देश के भविष्य से जुड़ा हुआ है.

शिक्षा की मार्गदर्शक नीति-उदेश्य क्या होंगे? बच्चों को क्या विषय पढाए जाएँ? उनमें क्या पाठ लगाए जाएँ? उन्हें कैसे पढ़ाया व प्रस्तुत किया जाए? इन सबका लेखा-जोखा एनसीएफ है. समय के साथ हो रहे बदलावों के अनुरूप अथवा पहले की कमियों को सुधारा जा सके, इसीलिए 10 से 15 वर्षों में एनसीएफ में संशोधन किया जाता है. एनसीएफ को अब तक चार बार संशोधित किया गया है- 1975, 1988, 2000 और 2005 में. पिछला परिवर्तन 16 साल पहले 2005 में किया गया था. हालाँकि उसके 5 साल पहले ही 2000 में एक संशोधन किया गया था. लेकिन 2004 में कांग्रेस-वामपंथ के गठजोड़ वाली सरकार बनते ही आनन-फानन में अपने वैचारिक एजेंडा के तहत एक नया एनसीएफ बना दिया गया. हालाँकि इस बदलाव का कोई ठोस कारण नहीं बताया गया. बस इतना उल्लेख है कि बच्चों पर बढ़ते पाठ्यचर्या के बोझ को देखकर इस पुनरावलोकन की जरुरत है. हालाँकि एनसीएफ-2005 के आलोक में छपी पुस्तकों को देखें तो ठीक उलट बच्चों के लिए बोझ व जटिलता और बढ़ ही गई है. इसके अतिरिक्त एनसीएफ-2000 में शामिल अनेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं को वैचारिक दबाव में एनसीएफ-2005 में जानबूझकर छोड़ दिया गया.

एनसीएफ-2000 के मार्गदर्शक निर्देश- उदेश्य को देखें. तो इनमें मूल्यपरक शिक्षा, चरित्र निर्माण, देशप्रेम, राष्ट्रीय एकता व अखंडता का भाव के साथ-साथ 'मौलिक कर्तव्यों' को शामिल किया गया. याद रहे कि मौलिक कर्तव्यों में संविधान का पालन, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रगान का आदर करना; भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखना; राष्ट्र-सेवा; हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्त्व देना आदि शामिल हैं. बताने की जरुरत नहीं कि उपरोक्त तत्व किसी देश के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं.

दुर्भाग्य से वैचारिक एजेंडा के तहत इनमें से अधिकांश चीजें एनसीएफ-2005 में छोड़ दी गईं. नया के नाम पर एनसीएफ-2005 में बाल केन्द्रित दृष्टिकोण, बिना बोझ के सीखने, और इसे आनंददायी बनाने पर जोर दिया गया है. लेकिन इसके निर्देश में बनी पुस्तकों को देखें तो बात उलटी नज़र आती है. उदाहरण के लिए कक्षा छह के 10-11 साल के नन्हें-मुन्नों की 'नागरिक जीवन' वाली पुस्तक में "रूढ़िबद्ध धारणा" और "पूर्वाग्रह" जैसे कठिन और जटिल अवधारणाएँ हैं, जो उनके कुछ पल्ले नहीं पड़ता. इसी तरह पुस्तक में ऐसे टेढ़े सवाल हैं कि "आपको क्या लगता है कि विविधता की समृद्ध विरासत के साथ भारत में रहना आपके जीवन में कुछ जोड़ता है?" अथवा "समानता के संबंध में संविधान क्या कहता है? आपको क्यों लगता है कि सभी लोगों के लिए समान होना महत्वपूर्ण है".

दुहराना चाहूँगा कि ये अवधारणाएँ- प्रश्न 10वीं-12वीं कक्षा नहीं, बल्कि क्लास 6 के बच्चों के लिए हैं. क्या 10-11 साल का बच्चा ऐसे जटिल-कठिन समाज-मनोवैज्ञानिक चीजों को ठीक-ठीक समझ सकता है? सवाल यह भी है कि क्या इतने कोमल मन को 'पूर्वाग्रह' जैसी नकारात्मक चीजें पढ़ाना चाहिए? ये चीजें जरुर पढाई जाएँ, लेकिन थोड़ी ऊँची कक्षाओं में. बच्चे क्या पढ़े और कब पढ़ें, यह बहुत ही जिम्मेदारी से निर्धारित करना चाहिए.

इतिहास का पाठ्यक्रम देखें तो भारत के गौरवशाली अतीत-परम्पराओं की अनदेखी या उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है. मिसाल के लिए प्राचीन भारत के वज्जि राज्य में लोकतान्त्रिक व्यवस्था थी. प्रख्यात इतिहासकार केपी जायसवाल के अनुसार प्राचीन भारत में लोकतंत्र की अवधारणा रोमन या ग्रीक लोकतंत्र प्रणाली से भी पुरानी है. लेकिन अभी के एनसीईआरटी पुस्तक में भारतीय लोकतंत्र पर रहस्यमयी चुप्पी है. पर यह जरुर बताया गया है कि 2500 साल पहले यूनान के एथेंस में लोकतंत्र था.

इसी तरह इस कालखंड के बारे में लिखा गया कि महिलाओं को वेद अध्ययन या अन्य अधिकार नहीं थे. जबकि लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, सावित्री-सूर्या, रोमशा, वैवस्वती, श्रद्धा जैसी अनेक स्त्रियों ने तो कई सूक्त ही रचे थे. स्त्रियाँ युद्ध तक में भाग लेती थीं. मुद्गालानी नामक ऋषिका ने हजारों गायों को युद्ध में जीता था. विपश्ला नामक ऋषिका की वीरता का उल्लेख मिलता है. इसी तरह एक पाठ का शीर्षक दिया गया है "अशोक, वह सम्राट जिसने युद्ध को छोड़ दिया." विश्व में बौद्ध धर्म और शांति का सन्देश फैलाने वाले अशोक के लिए क्या बेहतर शीर्षक यह नहीं होता "अशोक, वह सम्राट जिसने शांति का सन्देश फैलाया". क्या ऐसा शीर्षक जानबूझकर प्राचीन भारतीय इतिहास को नीचा दिखाने के लिए नहीं है? इन कपट-युक्त सूक्ष्मतों से भरे हुए सैकड़ों प्रसंग-प्रश्न आपको इतिहास, समाज, साहित्य की पुस्तकों में मिल जाएँगे. इसी तरह नकारात्मक दृष्टिकोण से पेश किए गए ऐसे अनेक विवरण मिलेंगे जो सकारात्मक जीवन मूल्य, राष्ट्र-गौरव, देशप्रेम एवं राष्ट्रीय एकता-अखंडता को बढ़ावा देने की बजाय बच्चों में विध्वंसकारी और राष्ट्रविरोधी भाव भरने का काम करते हैं. दूसरी ओर, ये पाठ बच्चों की संज्ञान क्षमता के स्तर से बोझिल और जटिल भी हैं.

इसी तरह दुनिया भर में डंका बजा रहे आयुर्वेद और योग विद्या आदि अभी की पुस्तकों में सिरे से गायब है. गणना क्षमता को कई गुना बढ़ा सकने वाला 'वैदिक गणित 'जो आज टाटा स्काई टीवी पर पैसे से उपलब्ध है. लेकिन पाठ्यक्रमों में इसे पढ़ाना तो दूर, इसका उल्लेख तक नहीं है.

पश्चिमी विचारधाराओं से आक्रांत इन शिक्षाविदों ने कम से कम पश्चिम के ही अमेरिकी इतिहासकार डेविड मैककुलो के इस कथन को याद कर लिया होता कि जो राष्ट्र अपने अतीत को भूल जाता है उसकी स्थिति उस व्यक्ति से भी बदतर है जिसकी स्मृति चली गई है ।

यह पुनरावलोकन इसलिए भी जरूरी है कि पिछले 16 वर्षों में देश-दुनिया में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास को भी पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा सके. सच पूछें तो राष्ट्रहित में एनसीएफ-2005 और उसके परिप्रेक्ष्य में बनी पुस्तकों पर तो बहुत पहले ही समग्र पुनर्विचार शुरू हो जाना चाहिए था. साढ़े सात कीमती साल यूँ ही निकल गए. वर्तमान की पुनर्विचार समिति को तीन वर्ष में अपनी रिपोर्ट देना है. उसके बाद एनसीईआरटी पुस्तक तैयार करने और छापने में तीन-चार साल और लेगी. तबतक तो गंगा जी में बहुत पानी बह चुका होगा.

(प्रो. निरंजन कुमार, हिंदी विभाग, कला संकाय, दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं, पूर्व में कई अमेरिकी विश्वविद्यालययों में प्राध्यापक रहे हैं )

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