हिन्दू वाद नहीं संवाद है : स्मृतियां चैतन्य करें!
स्वदेश वेबडेस्क। आदरणीय श्री गुलाब कोठारी जी, सादर नमस्ते। कल राजस्थान पत्रिका में 'हिन्दू कौन' शीर्षक से संपादकीय में लेखक के रूप में आपका नाम देखकर उत्पन्न संशय का निवारण करने के लिए यह पत्र लिख रहा हूँ। आपके नाम का यह आलेख समाचार-पत्र में सार्वजनिक हुआ है अत: पत्र भी खुले में लिखने की विवशता है।आदरणीय कृपया संज्ञान में लें कि न भाषा भूगोल पर आश्रित होती है न संवाद वाणी पर। भाषा भूगोल पर आधारित होती तो अंग्रेजी और अरबी भारत में नहीं आती और संस्कृत बाहर नहीं जाती। गाय अमेरिका में अंग्रेजी में नहीं रभाती और न कौआ भारत में अरबी बोलता है। यदि भाषा भूगोल व वाणी की मोहताज होती तो ब्रेल लिपि, मूक-बधिर की संकेत भाषा बीस कोस पर बदलती रहती।
जालौर की तरफ च को च ही लिखते हैं उच्चारण कुछ भी हो। सड़क को हड़क लिखते तो सिंध प्रांत कभी का हिन्द प्रांत हो जाता, वह तो पाकिस्तान में जाने के बाद भी अभी तक सिंध और वहाँ के निवासी विस्थापित होकर भारत आ गये तो भी अभी तक सिंधी कहलाते हैं।संस्कृत के सिंधु शब्द का किसी भारतीय भाषा में हिन्दु' यह रूप नहीं हुआ, क्योंकि संस्कृत के किसी भी शब्द के आरंभ का असंयुक्त 'संस्कृत भाषा में भी यथावत् 'स् ही रहा है, परिवर्तित नहीं हुआ। यथा-सुप्त - सुवव सप्त- सद्भाव -समभाव, सौभाग्य - सोहग्ग, सत्य - सच्च, सुख - सुह, सैन्य - सेण्ण, सर्प -सह्रश्वप, सर्व - सव्व ।
आप तो जैन हैं अत: प्राकृत शब्दों से परिचित हैं ही ! प्राकृत भाषाओं से आगे परिवर्तन होकर अपभ्रंश भाषाएं अस्तित्व में आईं। उन अपभ्रंशों से परिवर्तित होकर आजकल की हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, बंगला, मराठी आदि भाषाओं की परंपरा चली। इनमें भी सर्वत्र शब्दके आरंभ का 'स यथावत् बना रहा है, 'ह नहीं हुआ है। यथा पंजाबी में सप्त और हिन्दी में सात (7) का स् संस्कृत के 'सप्त के स् को यथावत् रखे हुए हैं। आज के इस्लामी पाकिस्तान में लगभग 75 वर्ष के बाद भी सिंधु नदी 'सिंध दरिया और सिंध सूबा ही है। तब आपका कथन 'हिन्दुस्तान (मुस्लिम सानिध्य से) कहलाने लगा कहाँ टिकता है आप सोच सकते हैं तो देखिये।
संस्कृत का स् परिस्थिति विशेष में ग्रीक भाषा में ह् बना है। जैसे संस्कृत के सप्त का ग्रीक में हेह्रश्वटा। ऐसा rough breathing में होता है।soft breathing में ऐसा नहीं होता। अत: ग्रीक में सिंधु का हिन्दु होना संभव नहीं। जैसे अंग्रेजी मे honest के शब्द h का उच्चारण नहीं होता। सिंधु के लिए ग्रीक में indu /indi उच्चारण किया। ग्रीक के माध्यम से ही लैटिन में सिंधु को हिन्दू के रूप में उच्चारा। पारसियों की भाषा के प्राचीनतम् ग्रन्थ जेन्द- अवेस्ता में संस्कृत के पदादि स् का ह् पाया जाता है। जैसे - सप्त- हत , सर्व - हर्व, असुर -अहुर , सरस्वती - हरहवती। अत: संस्कृत का सिंधु शब्द जेंद-अवेस्ता में ही 'हिन्दु हो गया था। पारस देश अर्थात् ईरान वृहत्तर सांस्कृतिक भारत का ही भाग था। अत: यह भौगोलिक व इस भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों का हिन्दु नाम विदेशी या मुस्लिम संसर्ग का परिणाम नहीं है। इस नाम को धारण करना गौरव का विषय माना जाता था। आपको पता है कि हजरत मोहम्मद की एक पत्नी का नाम 'हिन्द था? आज जो फारसी शब्दकोश से हिन्दू का अर्थ खोजने का प्रयत्न करते हैं वह अफगानिस्तान के इस्लामीकरण के बाद भारत को 'दार-उल - इस्लामÓ न बना पाने की मौलाना अल्ताफ हुसैन 'हाली के शब्दों में व्यक्त कुण्ठा है।
वो दीने-हिजाजी का बेबाक बेड़ा निशां जिसका अफ़सा -ए-आलम में पहुंचा मुजाहिम हुआ कोई खतरा न जिसका न अमान में फटका, न कुलजुम में झिझका किये पे सिपर जिसने सातों समंदर वो डूबा दहाने में गंगा के आकर. अब प्रश्न आता है 'हिन्दु धर्म शब्द प्रयोग का। आपका कथन सत्य है कि यह नाम वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों में नहीं है, यदि होता तो आश्चर्य होता योंकि धर्म अपने आप में ही पूर्ण शब्द है, इसे किसी विशेषण की आवश्यकता ही नहीं है। किसी वेद में वैदिक धर्म लिखा है क्या? क्या तीर्थंकरों ने जैन धर्म की तथा भगवान बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की घोषणा की थी? पर ये नाम उपलब्ध हैं। अत: मानना पड़ेगा कि कालांतर में किसी ने दिये हैं। क्यों दिये? क्योंकि उनकी पृथक् पहचान को इंगित करना था। धर्म के परास में भी कई बातें जुड़ती गईं जैसे- वस्तुधर्म, वर्णाश्रम धर्म, गुणधर्म, कुलधर्म, संतति धर्म, पितृधर्म आदि। अत: सापेक्ष धर्म से पृथक् पहचान के लिए सर्वप्रथम 'सनातन धर्म शबद-प्रयोग प्रचलन में आया। कालांतर में इसका भी अर्थ संकुचित कर दिया गया- सनातनी अर्थात मूर्ति पूजक। धर्म वास्तव में सनातन व एक ही है- धारणात् धर्म अर्थात जिन नीति-नियमों से प्रजा का धारण होता है।
यतो अभ्युदय निश्रेयस् सिद्धि: अर्थात जिससे इहलौकिक वैभव तथा पारलौकिक सिद्धि (मोक्ष, कैवल्य) होती है। इन उद्देश्यों की पूर्ति कैसे होगी? अत: कहा कि यह जीवन कैसे जीना इसका दर्शन धर्म है और यह जीवन धर्ममय है। इसका आकलन लक्षणों से होता है। मनु के शब्दों में 'दशकम् धर्म लक्षण। भारत उद्भूत जितने मत-पंथ - संप्रदाय हैं। वे इन धारण करने योग्य लक्षणों, आचार-पद्धति में एक मत हैं, केवल उपासना पद्धति में भिन्नता है। अत: सब धर्म की श्रेणी में आते हैं और बाहर से आने वाले मजहबों, रिलीजन से इनको पृथक पहचान देने के लिए हमारी राष्ट्रीयता के लिए प्रयुक्त शब्द हिन्दू ही धर्म वाचक भी बन गया जो सर्वसमावेशी है- इसमें मोहमद-पंथी और ईसा-पंथी भी समा सकते हैं, समा रहे हैं। उपासना पद्धति के कारण झगड़े को तो 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति कहकर वेद ने सभ्यता के प्रारंभ में ही समाप्त कर दिया था। यदि सैमेटिक मजहबों की विचारधारा हिन्दू को मान्य होती तो 'हिन्दू शद मुस्लिम के विरोध में आया तथा हिन्दू भी संप्रदाय का वाचक है ऐसा कहने पर कलासफेमी के आरोप में पकड़े जाते या आपके घर के सामने सर तन से जुदा के नारे और सर की कीमत लग रही होती। हिन्दू धर्म ने शास्त्रार्थ की परपरा और अभिव्यिकत की स्वतंत्रता के अन्तर्गत चार्वाक् को भी अपना मत रखने को अवकाश दिया है किंतु आपने हिन्दू धर्म की तुलना इतनी घटिया उपमा से की है कि आपने अपना ही स्तर घटा लिया।
हिन्दू न कभी सप्रदाय था न हो सकता है, हाँ हिन्दू में सप्रदाय हो सकते हैं। आपको यदि लगता है कि कुछ लोग मुस्लिम सप्रदाय की तरह या प्रतिक्रिया में हिन्दू धर्म को सप्रदाय वाचक बना रहे हैं तो आप किसे हिन्दू धर्म मानते हैं उसे सबके समक्ष प्रस्तुत कर जन प्रबोधन कीजिए, न कि भ्रमित करने वाली स्तरहीन तुलना, शेखचिल्ली की तरह 'तुक नहीं मिली तो या वजन तो लगेगा ही का तर्क उचित नहीं है। आप सत्य कहते हैं कि हिन्दू की कोई एकमत स्वीकृत परिभाषा नहीं है। परिभाषा का जंजाल पश्चिम का बुना हुआ है। सबको परिभाषा के पायजामे में फिट करने का प्रयत्न सर्वत्र उचित नहीं है। क्या आप जीवन की परिभाषा दे सकते हैं? परिभाषा सप्रदाय की हो सकती है, धर्म के तो लक्षण हो सकते हैं। विराट को शदों में बांधना हो तो 'नेति नेति से आगे गति नहीं है। हिन्दू का अर्थ मुस्लिम विरोधी है आपकी यह परिभाषा तो राहुल गाँधी भी स्वीकार नहीं करेंगे कयोंकि उनकी परिभाषा में 'हिन्दू अच्छा है, हिन्दुत्व खराब है।
शायद आप तो सर्वोच्च न्यायालय के 'हिन्दुत्व जीवन-पद्धति है की परिभाषा को भी नहीं मानते? हिन्दू यदि जीवन-दर्शन है तो यह जीवन के हर क्षेत्र में दृष्टिगोचर होना चाहिए। अत: आप क्यों चाहते हैं कि राजनीति स्वत्व के इस दर्शन से अलिप्त रहे? आज की आकांक्षा और भारत के उज्ज्वल भविष्य की आवश्यकता है। शास्त्रों के नाम हिन्दू शब्द से जुडऩा गर्व की बात है, जिमी मानसिकता वाले को ही यह शर्म की बात लग सकती है। 'हिन्दू शब्द का प्रयोग करने वालों को अपनी संस्कृति का कितना ज्ञान है। यह व्यंग्य करना देशविदेश में रहने वाले करोड़ों हिन्दुओं का अपमान है। हिन्दुओं को आपसे प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है। हिन्दू का आचरण आज भी सबसे सौम्य और उदार है।
हिन्दुवाद, हिन्दुइज्म जैसे शब्द भी आपके मस्तिष्क में पश्चिम ने ठूंसे हैं और आप उनकी जुगाली कर रहे हैं, हिन्दु वाद का नहीं संवाद का नाम है। बवासीर को उसके नियत स्थान से ही निकलने देना उचित है, हम क्यों पीक की तरह थूकें? यह सत्य है कि 'बंदर के हाथ में उस्तरा दे दो, वह खुद को ही लहूलुहान कर लेगा पर आपने जो भी अनर्गल लिखा है वह क्यों संभव हुआ? योंकि आपके पास अखबार है और आप उसके मालिक हैं। अत: छापने वाले 'अहो रूपम्, अहो ध्वनि की तरह छापने को मजबूर हैं। अब उस्तरा किसके हाथ में हैं आप बतायें। मेरे प्रतिवाद को आप छापेंगे नहीं क्योंकि मेरे पास अखबार नहीं है और सोशल मीडिया नहीं होता तो आपका लेख 'बाबा वाक्य प्रमाण हो जाता। आदरणीय, उपासना व्यक्तिगत होती है, धर्म नहीं। धर्म सार्वत्रिक, सार्वभौमिक, सर्वकालिक, सर्वजनपालनीय होता है।
तेतीस करोड़ देवी-देवता कहने का अर्थ यही है कि प्रत्येक वाक्य एक उपास्य हो सकता है, धर्म प्रत्येक का अलग कैसे होगा? क्या धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रिय निग्रह, धी, अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि की परिभाषा प्रत्येक की अलग होगी? व्यक्तिगत डायरी में लिखना हो तो कुछ भी लिखा जा सकता है, क्योकि बुद्धि की सीमा होती है, मूर्खता की नहीं और डायरी निजी होने से कोई प्रभावित भी नहीं होगा। किंतु सार्वजनिक रूप से लेख प्रकाशित करते समय सोचना पड़ता है कि संस्कृत में लिखा हुआ सब सुभाषित नहीं होता और न ही अखबार में छपा ब्रह्म वाय! जनता को आप कुछ भी परोस देंगे और वे मुंडी हिलाकर स्वीकार कर लेंगे, मूर्ख बनाने का वो काल व्यतीत हुआ। सावधान इन्डिया!! भारत अपने स्वत्व को धारण कर निद्रा से जाग रहा है, अब उसे उधार की परिभाषाएँ नहीं चाहिए उसे अपने सनातन विमर्श की स्मृतियाँ चैतन्य कर रही हैं। ईश्वर आपको सद् प्रेरणा दे। आपका शुभेच्छु