औवेसी की जहरीली जुबान और एतिहासिक तथ्‍य

औवेसी की जहरीली जुबान और एतिहासिक तथ्‍य
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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी जिस तरह से अपनी जहरीली जुबान का प्रयोग करते हैं, उससे जरूर अनेक बार लगता है कि पता नहीं कब भारत की सर्वधर्म सद्भाव की फिजा खराब हो जाए और जिसके पूर्ण दोषी नि‍श्‍चित तौर पर सांसद औवेसी ही होंगे। वस्‍तुत: हाल ही जिस तरह से मक्का मस्जिद में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्‍होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निशाना साधा है और कहा कि हम यहां पर बराबर के शहरी हैं, किराएदार नहीं हैं हिस्सेदार रहेंगे। अगर कोई यह समझ रहा है कि हिंदुस्तान के वजीरे-ए-आजम 300 सीट के हिंदुस्तान पे मनमानी करेंगे, नहीं हो सकेगा....।

असल में औवेसी अन्‍य इसी प्रकार के लोगों की यही जहरी‍ली जुबान हिन्‍दू-मुसलमानों को भाईचारे के साथ रहते हुए देश का विकास बराबर से करते रहने से रोकती है। कहीं न कहीं उनके ये बयान दोनों ही समुदायों के बीच गहरी खाई का कार्य करते हैं। वर्तमान समय में जब देश अमन चैन से प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है तब इस तरह से ''हम यहां पर बराबर के शहरी हैं, किराएदार नहीं हैं हिस्सेदार रहेंगे।'' कहने का आखिर औचित्‍य क्‍या है? क्‍या कभी स्‍वतंत्र भारत में बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं ने मुसलमानों को किराएदार माना है? उनसे कोई दोयम दर्जे का व्‍यवहार किया है? वास्‍तव में आज इस संदर्भ में कुछ एतिहासिक तथ्‍यों को भी खंगालने की जरूरत है, शायद हो सकता है कि उसके बाद औवेसी जैसी सोच रखनेवाले लोगों की मानसिकता में कुछ परिवर्तन आ जाए।

प्रश्‍न यह है कि क्‍या भारत में बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं ने कभी खण्‍डित आजादी की कल्‍पना की थी?जो देश अगस्‍त 1947 को दो टुकड़ों में भारत भक्‍तों को मिला, वे तो आज भी यही दुआ करते हैं कि भारत फिर से अखण्‍ड हो जाए, धर्म के आधार पर हुआ यह बंटवारा अनुचित है। शायद, यही वह वजह भी है जो इन देशभक्‍तों को 14 अगस्‍त ''अखण्‍ड भारत'' दिवस के रूप में मनाने की प्रेरणा देता है। वस्‍तुत: देश विभाजन से जुड़ी सच्चाइयों को इतिहास से कभी हटाया नहीं जा सकता है। इतिहासकार वामपंथी हो या दक्षिणपंथी अथवा स्‍वयं को तटस्‍थ कहनेवाले । भारत विभाजन और देश की स्‍वतंत्रता को लेकर कुछ तथ्‍य ऐसे हैं जिन पर सभी एकमत हैं। क्‍या यह सच नहीं कि देश के विभाजन के लिए मुसलमानों का धर्म प्रेम सबसे अधि‍क जिम्‍मेदार रहा है। पूरी तरह से धर्म आधारित राजनीतिक पार्टी मुस्लिम लीग ने ही सर्वप्रथम अलग देश की माँग की थी और यहां तक कि डायरेक्‍ट एक्‍शन (भारतीय इतिहास का काला अध्‍याय) भी इसी पार्टी की ओर से शुरू किया गया था।

हालांकि इतिहास का एक सच यह भी है कि मौलाना आज़ाद, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, मौलाना सज्जाद, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी जैसे कुछ लोग ऐसे भी थे जो इस विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे लेकिन इन मुट्ठीभर लोगों की अपनी कौम में सुननेवाला कौन था? इतिहासकार बिपिन चंद्रा विभाजन के लिए सीधे मुसलमानों की सांप्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। फ्रांसिस रॉबिनसन और इतिहासकार प्रो. वेंकट धुलिपाला सीधे तौर पर इस निष्‍कर्ष पर पहुंचते हैं कि "यूपी के ख़ानदानी मुसलमान रईस और ज़मींदार समाज में अपनी हैसियत को हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते थे" उन्हें लगता था कि हिंदू भारत में उनका पुराना रुतबा नहीं रह जाएगा, इसलिए उनका अपना धर्म आधारित अलग देश होना ही चाहिए।

विभाजन से जुड़ा एक तथ्‍य यह भी है कि महात्‍मा गांधी लम्‍बे समय तक देश विभाजन के विरोधी बने रहे, इसके लिए उन्‍होंने यहां तक कहना जरूरी समझा कि '"अगर बंटवारा होगा तो वह मेरी लाश पर होगा, जब तक मैं जीवित हूँ तब तक भारत का विभाजन नही होने दूंगा।" मई 1947 में महात्मा गांधी के आए इस बयान के बाद इतिहास यही बताता है कि जो हिन्‍दू, मुस्‍लिम बहुल पाकिस्‍तान क्षेत्र से बहुसंख्‍यक हिन्‍दू जनसंख्‍यावाले स्‍थानों पर आ रहे थे, वे सभी बापू के इस संकल्‍प की जानकारी के बाद फिर वहीं रुक गए। हिन्दुओं को लगा कि अब भारत का विभाजन किसी भी हालत में नहीं होगा। तभी इस बयान के बाद जिन्ना सहित मुस्‍लिम लीग पाकिस्तान में एक बड़ी प्रत्यक्ष कार्यवाही करती है और वर्तमान पाकिस्तान क्षेत्र के मुसलमान धर्म से मतान्‍ध होकर हिन्दुओं और अन्‍य गैर मुसलमानों को मारना शुरू कर देते हैं। हिन्दुओं की लाशों से भरी हुई ट्रेन जब भारत आने लगती हैं और शेष भारत में भी जिससे दंगे शुरू हो जाते हैं तब अखिरकार गाँधीजी को लगता है कि अब भारत के बंटवारे की घोषणा कर देनी चाहिए।

आधुनिक भारत की गवाह कई पुस्‍तके इस बात से भरी पड़ी हैं कि 15 अगस्त, 1947 के दिन भी जहां एक ओर आजादी का जश्‍न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर लाहौर और पूरे पश्चिम पंजाब व सीमा प्रांत में हिन्दू-सिख इलाके धू-धू कर जल रहे थे। हजारों-लाखों के काफिले छोटा-मोटा सामान लेकर छोटे बच्चों को उठाए, महिलाओं को बीच में रखकर बड़े बूढ़ों को संभालते हुए भारत की ओर आ रहे थे। स्थान-स्थान पर लूटपाट, अपहरण व हत्याएं हो रही थीं। परिवार के परिवार मौत के घाट उतार दिए गए। असंख्य महिलाओं का अपहरण कर लिया गया था। अनेक महिलाओं ने कुओं में छलांगें लगाकर या घर, गुरुद्वारा या मंदिर में आग लगाकर भस्म हो कर अपने सम्मान की रक्षा की थी। इतना सब होने के बाद क्‍या स्‍थि‍ति है हिन्‍दू और मुसलमानों की जरा सोचें? पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में गैर मुसलमान किस स्‍थ‍िति में है और आजाद भारत में रहनेवाले मुसलमानों की स्‍वायत्‍ता एवं उनके अल्‍पसंख्‍यक के नाते विशेष अधिकार किस सीमा तक हैं, यह आप स्‍वयं विचार कर सकते हैं।

इससे जुड़े तथ्‍य यही हैं कि 1947 में पाकिस्तान में हिन्दू और सिखों की आबादी एक करोड़ के आसपास थी। इसमें पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) शामिल नहीं था लेकिन, अब पाकिस्तान में मात्र 12 लाख हिन्दू और 10 हजार सिख रह गए हैं। बड़ा प्रश्‍न है, आखिरकार इतनी बड़ी संख्या कहां गई? क्या हुआ इनका? किसी भी देश की जनसंख्‍या समय के साथ बढ़ती है या घटती है? इसका कोई जबाब किसी के पास नहीं है। इसी तरह से बांग्लादेश का निष्‍कर्ष भी निकाला जा सकता है। यहां पर भी बीते सालों में बहुत तेजी से हिन्दू जनसंख्या कम हो रही है। यहां 1951 की जनगणना बताती है‍कि मुस्‍लिम 03 करोड़ 22 लाख और हिन्‍दू 92 लाख 39 हजार थे जोकि 2011 में हुई जनगणना में कुछ इस तरह से दिखते हैं, मुसलमान 60 वर्ष बाद बढ़कर 12 करोड़ 62 लाख हो जाते हैं लेकिन हिन्‍दू 01 करोड़ 20 लाख रहते हैं।

मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रोफेसर रिचर्ड बेंकिन के तथ्‍य बताते हैं कि यहां 1974 के वक्त हिंदुओं की संख्या कुल आबादी में एक तिहाई थी, वह 2016 आते-आते घटकर कुल आबादी का 15 वां हिस्सा रह गई । अमेरिका के रहने वाले रिचर्ड बेंकिन का शोध यह कहता है कि बांग्लादेश की वर्तमान में कुल आबादी 15 करोड़ है जिसमें से 90 प्रतिशत मुसलमान हैं। हिंदू आबादी घटकर 9.5 प्रतिशत रह गई है।

अब प्रश्‍न यह है कि क्‍या भारत में मुसलमानों के साथ ऐसा हुआ है। जहां एक ओर पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में लगातार हिन्‍दुओं की जनसंख्‍या घटी है, वहीं इसके उलट भारत में मुसलमानों की जनसंख्‍या उनके अनुपात से कहीं ज्‍यादा बढ़ी है। 1951 में भारत में मुसलमानों की संख्‍या 03 करोड़ 54 लाख थी जोकि 2011 की जनगणना आते-आते 17 करोड़ 22 लाख पर आ गई थी और अब वर्तमान में 19 करोड़ 4 लाख है। अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक आगामी चालीस साल बाद भारत सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश बन जाएगा। 2060 में भारत की मुस्लिम आबादी 33 करोड़ हो जाएगी, यानी दुनिया की कुल मुस्लिम आबादी में भारत का योगदान 11 फीसद होगा।

यहां सीधा प्रश्‍न है कि आज औवेसी को इतने वर्षों बाद एक मुसलमान होने के नाते अचानक से क्‍यों लगने लगा है कि वे भारत में ''बराबर के शहरी हैं, किराएदार नहीं हैं हिस्सेदार रहेंगे।'' भारत ने तो इस्‍लामिक पाकिस्‍तान या बांग्‍लादेश की तरह धर्म आधारित देश होने की घोषणा कभी नहीं की । वस्‍तुत: औवेसी जैसे नेताओं और मुसलमानों को समझना होगा कि ऐसा इसीलिए ही संभव हो सका क्‍योंकि भारत जब खंडित आजादी पा रहा था तो यहां बहुसंख्‍यक हिन्‍दू आबादी थी, जो प्राकृत रूप से सर्वधर्म-पंथ सद्भाव में सहज विश्‍वास रखती है और उसके अनुरूप अपना आचरण रखती है। यही कारण है कि जब देश के लिए नियम और कानून तय हो रहे थे, तभी संविधान की प्रस्‍तावना में सीधे तौर पर घोषणा कर दी गई थी कि संविधान के अधीन समस्त शक्तियों का केंद्रबिंदु अथवा स्त्रोत 'भारत के लोग' ही हैं। आज सभी को यह समझना होगा कि यह उद्घोषणा किसी विशेष को ध्‍यान में रखकर नहीं सभी की समग्रता को समझते हुए की गई है। काश, औवेसी और इन जैसे लोग जितनी जल्‍दी इस बात को समझें, देश के लिए उतना ही अच्‍छा है।

लेखक, पत्रकार एवं फिल्‍म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्‍य हैं

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