बिना जसराज जी के अब हम 'बिहाग' और 'माता कालिका' सुन पाएंगे ?
रसराज पं. जसराज जी भारतीय शास्त्रीय संगीत के स्थापत्य और ध्रुवतारा हैं। इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने जब पंडित जसराज के नाम पर एक ग्रह का नाम रखा, तब तारामंडलों में भारतीय संगीत धरती से आकाश तक अपनी चमक बिखेरने लगा। आज यह ध्रुव तारा नक्षत्र बनकर असंख्य तारामंडलों के समूह में विलीन हो गया और पीछे छोड़ गया वाणी और स्वरों का 'साढ़े तीन सप्तकों' वाला फैलाव।
वैसे तो कलाकार को अपने कर्म पर पूरा विश्वास होता है और वह यह भी जानता है कि उसके गायन को सुनने वालों पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। पर वह यह नहीं जानता कि उसके जाने के बाद उसके चाहने वालों की क्या दशा होगी। क्या बिना पं. जसराज जी के अब हम 'बिहाग' और 'माता कालिका' सुन पाएंगे?। गांव की गलियों से निकलकर पूरे विश्व में भारतीय संगीत को पहचान दिलाने वाले पं. जसराज जी के शरीर से अब कभी हमारा साक्षात्कार न हो पाए लेकिन, उनके स्वरों का विस्तार हमारे संगीत और संस्कृति को विश्वमंगल की कामना से जोड़ रखेगा।
28 दिसंबर 1930 को हिसार (हरियाणा) के गांव पीली मन्दौरी में जन्मंें पंडित जसराज ने खुद भी नहीं सोचा था कि वह एक दिन भारतीय कंठ संगीत का प्र्रतिनिधित्व करेंगे। बचपन में पिता मोतीराम ने पं. जसराज को ऐसा शहद चटाया कि उनके कंठ में मां सरस्वती का स्थायी निवास हो गया और निवास भी ऐसा हुआ कि अपने गुरू पं. मणिराम से प्राप्त अपनी चार पीढ़ियों की परंपरा को अपने हजारों शिष्यों की श्रंखला खड़ी कर मेवाती घराने को अमर कर दिया। बहुत कम लोगों को पता है कि पं. जसराज की संगीत यात्रा तबला वादक के रूप में शुरू हुई। पंडित मणिराम जी गाते थे और युवा जसराज तबला बजाते थे। जसराज की का सारा बचपन तबला बजाने और गाना सुनने में निकला। लाहौर शहर ने जसराज जी के जीवनक्रम को बदला और 1946 में उनके हाथ से तबला छूटा और तानपूरा आ गया। इसके बाद जसराज जी ने तानपूरा कभी नहीं छोड़ा।
पं. जसराज अकेले ऐसे शास्त्रीय गायक हैं, जिन्होंने संगीत की रूढ़ियों को तोड़ते हुए उसे पूरा भारतीय बनाया। आमतौर पर माना जाता है कि ख्याल गायकी अमीर खुसरो की देन है। ख्याल गायिकी में भारतीय संगीत के अलावा फारसी परंपरा का भी मिश्रण है। ख्याल रूपक शैली में विकसित हुई है लेकिन पं. जसराज ने ख्याल में ध्रुपद अंग का भरपूर प्रयोग करते हुए उसे प्रबंध शैली से जोड़ने का भी प्रयास किया। ब्रजभाषा में रचित अष्टछाप के पदों का ख्याल में गायन करने वाले वह पहले शास्त्रीय गायक बने। पं. जसराज जी को ब्रज से खासा लगाव था और अपने गायन में उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति को चरम पर पहुंचाया। बल्लभाचार्य रचित 'ब्रजे बसंतम् नवीनत चैरम' राग बंसत में 'और राग सब बने बाराती', बिहाग में 'लट उलझे सुलझा जा बालम', राग पूर्वी में 'ऐ तुम चले जाओ ढोटा' राग भैरव 'रसिकनी रस में रहत गढ़ी', राग नायकी में 'अबके फेर लीजे ओर सुघर राय वही तान', राग केदार में 'गोकुल में बाजत कहां बंधाई' राग देवगंधार में 'रानी तेरो चिर जीयो गोपाल' और भी न जाने कितने ब्रजभाषा के पदों का उन्होंने गायन करते हुए शास्त्रीय संगीत को भारतीय बना दिया। पंडित जी के श्रोता भी इनते रसिक थे कि बिना ब्रजभाषा के पदों और राग अड़ाना में 'माता कालिका' को सुने बिना पंडित जी को मंच से उतरने नहीं देते थे। दरअसल 'माता कालिका' महाराज जयवंत सिंह की रचना है। लेकिन उसे संगीतबद्ध किया पंडित मणिराम ने और अमर कर दिया पं. जसराज ने।
एक बार वृंदावन में हरिदास संगीत समारोह में पंडित ने अपना गायन डेढ़ घंटे में समाप्त कर दिया। श्रोताओं के कहने पर राग मल्हार में उन्होंने 'हमारे यहां श्यामा जूं कौ राज' सुनाया। पंडित जी के इस मल्हार को सुनने के लिए श्रोता सुबह 5.30 तक बैठे रहे। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस एक अकेले पद को पंडित जी ने 6 घंटे तक गाया और मल्हार के विविध प्रकारों में श्रोताओं को सुनाया।
पंडित जसराज जी के गायन की सबसे बड़ी विशेषता उसका आलाप, उसकी लंबी तान जो एक खास किस्म की दुनिया का निर्माण करती है, जिसमे शब्द नहीं ध्वनि गुंजायमान होती है। पंडित जसराज द्वारा स्वरमंडल के साथ खींची गई तान एक प्रत्यंचा की तरह हुआ करती थी और इस तान रूपी प्रत्यंचा से श्रोताओं ने पं. जसराज जी से करीब 70 से अधिक राग सुने। खुद पंडित जी को 200 से अधिक रागों का स्थायी, अंतरा, अभोग-संचारी, सबकुछ मालूम था। अब आप अंदाज लगा सकते हैं कि जिसको 200 राग याद हों तो उसके पास कम से कम 300 रागों का भंडार अवश्य होगा। पंड़ित जी ने मंचों पर कई अप्रचलित रागों का भी गायन किया। जिसमें गौड़ गिरी मल्हार श्रोताओं को विशेष प्रिय था।
दरअसल पंडित जसराज को अपने गुरु पं. मणिराम की हमेशा याद रहा करती थी कि राग को गाने से पहले उसकेे परिवार को जान लो। मंच पर जाने से पहले श्रोेताओं के मन को पहचान लो। पंडित जी को पता था कि रागों में स्वरों का आरोह और अवरोह ही संगीतकार और संगीत रसिक के मन को क्रमशः रंगता है। पंडित जसराज जी ने कभी भी मंच पर अकेले गायन नहीं किया। हमेशा अपने शिष्यों को मंच पर साथ रखा। खुद जसराज जी ने मुझसे आगरा प्रवास के दौरान कहा था कि संगीत की असली शिक्षा तो मंच पर ही होती है और सभी कलाकारों को श्रोता बनकर अपने शिष्यों को सुनना चाहिए। पं. जसराज जी ने कई नवीन शास्त्रीय रचनाओं के साथ मूर्छना की प्राचीन शैली का सजृन किया। जिसमें महिला-पुरूष एक साथ गायन करते हैं। इसे उन्होंने जसरंगी नाम दिया। विश्व में भारतीय शास्त्रीय संगीत के रूप में पंडित जसराज की आवाज की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती रहेगी कि हमारी पीढ़ी और आनेवाली पीढ़ियों में संगीत का जिंदा रहना दरअसल एक सभ्यता का जिंदा रहना है।