प्रणब मुखर्जी : पत्ता टूटा, वटवृक्ष सूखा
अभूतपूर्व झंझावातों से भरे वर्ष 2020 में अगस्त की आखिरी शाम भारतीय लोकतंत्र के लिए एक आघात और अंधेरा लेकर आई। 5: 46 बजे अभिजीत मुखर्जी का वह ट्वीट आया जिसके आने की आशंका और न आने की इच्छा हर भारतीय के दिल में थी। प्रणब दा नहीं रहे! पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न प्रणब मुखर्जी का यूं जाना राजनीति के भ्रमपूर्ण कोलाहल को दिशा देने वाले स्वर का एकाएक शांत हो जाना है। यह राजनीति में अटल बिहारी वाजपेई, चंद्रशेखर या भैरोंसिंह शेखावत की परंपरा के ऐसे सितारे का बुझना है जिसके अहाते में अलग-अलग विचारों के जुगनू जगमगाते थे।
35 वर्ष के युवा सांसद के रूप में नेहरू काल से कदम बढ़ाते प्रणब दा इंदिरा के दौर में कांग्रेस के महत्वपूर्ण स्तंभ हो गए। कुछ लोग मानते हैं कि उन्हें इंदिरा गांधी ने गढ़ा, परंतु यह बात पूरी तरह सच नहीं है। इंदिरा ने उन्हें मौके दिए। हर मोर्चे पर पूरे अध्ययन और तैयारी से उन्होंने खुद को साबित किया और बढ़ते-बढ़ते कांग्रेस के संकटमोचक हो गए। वे अनूठे थे। एक समय में तीन-तीन पुस्तकें पढऩे वाले, संवैधानिक नियम-निर्देशों के विलक्षण जानकार, और प्रोटोकॉल के पक्के।
राष्ट्रपति पद की सीढ़ी दलों के दलदल से ऊपर है। प्रणब दा ने भी कांग्रेस छोड़ी। परंतु, यह वास्तविकता है कि कांग्रेस ने इससे पहले ही अपने विचार पुरुष को हाशिए पर रख छोड़ा था। राजीव या सोनिया, कुनबे की लीक पर चलने की जिद ने पार्टी को पटरी से उतार दिया। कांग्रेस के ही कद्दावर चेहरों (प्रणब मुखर्जी इनमें सर्वप्रमुख थे) से कुनबे को डर लगने लगा। और आगे जो हुआ वह इतिहास है। कभी राष्ट्रीय विचारों का मंच कहे जाने वाले दल को सबने संकीर्णता के खोल में सिमटते देखा और सबसे पक्के कांग्रेसी कहे जाने वाले प्रणब दा ने उदारता, प्रगतिशीलता और समझ के वे आयाम दुनिया के सामने रखे, जिन्हें विश्व 'भारतीय मूल्य' की मान्यता देता है।
7 जून, 2018 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय वर्ष प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह को कोई कैसे भूल सकता है। प्रणब मुखर्जी इस कार्यक्रम में सहभागी हुए। आश्चर्य है कि जो वर्ग खुद पर खुले विचार, प्रगतिशील, सेकुलरिज्म और सहिष्णुता का ठेकेदार होने का ठप्पा लगाता है उस पूरी बिरादरी में प्रणब दा के इस कदम से भारी बौखलाहट थी। यानी विचारों को समझे बिना बात का विरोध। प्रणब दा इस लीक के नहीं थे। विस्तृत अध्ययन, भारत की गहरी सांस्कृतिक समझ और फिर निष्कर्ष रूप में अपनी बात कहने का साहस। यह गुण उन्हें सच्चा प्रगतिशील बनाता था।
उस कार्यक्रम में उन्होंने भारतीय संस्कृति की 5,000 वर्ष की अवधारणा की बात की। पश्चिम के देशों की संकल्पना और भारतीय राष्ट्र की संकल्पना का अंतर स्पष्ट किया। 'वसुधैव कुटुंबकम' तथा 'सर्वे भवंतु सुखिन:' के भारतीय चिंतन को रेखांकित किया। व्यक्ति चला जाता है, विचार रह जाता है। जीवन क्या है? डाल से पत्ते का टूट जाना! बस!
वैसे, प्रणब नाम के इस पत्ते का टूटना और देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का वट वृक्ष सूखते जाना, दो परस्पर सापेक्ष बातें हैं। सोचने की बात है कि यदि कांग्रेस ने उस राष्ट्रीय विचार को न त्यागा होता जिसे प्रणब दा जैसे विचार पुरुष न सिर्फ अंत तक कसकर थामे रहे, बल्कि अपने आचरण से सबके सामने रखते रहे, तो क्या कांग्रेस का ऐसा क्षरण हुआ होता? यह याद रखने वाली बात है कि देश और संस्कृति की धारा अजस्र होती है। दलीय राजनीति या सत्ता आने-जाने के बदलाव और बहावों से अप्रभावित! प्रणब मुखर्जी को यह स्मरण रहा, कांग्रेस भूल गई।
राजीव गांधी फाउंडेशन के लबादे में दागियों के पैसे से झोली भरती, चीनी चंदे के लालच में भारत से घात करती पार्टी कुनबे की स्वार्थसिद्धि का उपकरण तो हो सकती थी, परंतु प्रणब दा सरीखे 'रत्नों' की जगह होने का गौरव वह बहुत पहले खो चुकी थी। बहरहाल, देश लोकतंत्र में विपक्ष की अभूतपूर्व छीजन को देख रहा है। छद्म प्रगतिशीलों का उन्मादी प्रलाप भी सुन रहा है और प्रणब दा जैसे वास्तविक उदारवादी का स्वर मौन होने पर आंसू भी बहा रहा है।
(लेखक साप्ताहिक पाञ्चजन्य के संपादक हैं)